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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 66 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 66/ मन्त्र 15
    ऋषिः - वसुकर्णो वासुक्रः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - विराट्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    दे॒वान्वसि॑ष्ठो अ॒मृता॑न्ववन्दे॒ ये विश्वा॒ भुव॑ना॒भि प्र॑त॒स्थुः । ते नो॑ रासन्तामुरुगा॒यम॒द्य यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभि॒: सदा॑ नः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    दे॒वान् । वसि॑ष्ठः । अ॒मृता॑न् । व॒व॒न्दे॒ । ये । विश्वा॑ । भुव॑ना । अ॒भि । प्र॒ऽत॒स्थुः । ते । नः॒ । रा॒स॒न्ता॒म् । उ॒रु॒ऽगा॒यम् । अ॒द्य । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    देवान्वसिष्ठो अमृतान्ववन्दे ये विश्वा भुवनाभि प्रतस्थुः । ते नो रासन्तामुरुगायमद्य यूयं पात स्वस्तिभि: सदा नः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    देवान् । वसिष्ठः । अमृतान् । ववन्दे । ये । विश्वा । भुवना । अभि । प्रऽतस्थुः । ते । नः । रासन्ताम् । उरुऽगायम् । अद्य । यूयम् । पात । स्वस्तिऽभिः । सदा । नः ॥ १०.६६.१५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 66; मन्त्र » 15
    अष्टक » 8; अध्याय » 2; वर्ग » 14; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (वसिष्ठः) सर्व विषयों में अत्यन्त बसा हुआ (अमृतान् देवान्) जीवन्मुक्त विद्वानों को (ववन्दे) प्रशंसित करता है (ये विश्वा भुवना-अभि प्रतस्थुः) जो जीवन्मुक्त सारे ज्ञानों को अधिकार में रखते हैं (ते) वे (नः) हमारे लिए (अद्य) आज-इस जीवन में (उरुगायं रासन्ताम्) बहुत प्रशंसनीय ज्ञान-परमात्मज्ञान को दें (यूयं स्वस्तिभिः-नः सदा पात) हे विद्वानों ! तुम कल्याणवचनों से हमें सदा सुरक्षित रखो ॥१५॥

    भावार्थ

    नव स्नातक विद्वान् को अपनी विद्यावृद्धि के लिए अन्य ऊँचे विद्वानों, जीवन्मुक्तों से ज्ञानवृद्धि करके आत्मशान्ति प्राप्त करनी चाहिए, जो सबसे उत्कृष्ट वस्तु है ॥१५॥

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    विषय

    ब्रह्मचारी और आचार्य के कर्त्तव्य।

    भावार्थ

    इस मन्त्र की व्याख्या (देखो सू० ६५ मन्त्र १५) इति चतुर्दशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषि वसुकर्णो वासुक्रः॥ विश्वेदेवा देवताः। छन्द:– १, ३, ५–७ जगती। २, १०, १२, १३ निचृज्जगती। ४, ८, ११ विराड् जगती। ९ पाद-निचृज्जगती। १४ आर्ची स्वराड् जगती। १५ विराट् त्रिष्टुप्॥ पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    देव-वन्दन

    पदार्थ

    देखो १०.६५.१५ । सूक्त का प्रारम्भ 'देवों के सम्पर्क में मैं भी दिव्य जीवनवाला बनूँ' इस भावना से होता है, (१) और समाप्ति पर उन्हीं देवों से दैवी सम्पत्ति की याचना है, (१४) अगले सूक्त में 'धी' की प्रार्थना है-

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (वसिष्ठः) सर्वविषयेषु वसितृतमः (अमृतान् देवान्) जीवन्मुक्तान् विदुषः (ववन्दे) अभिवन्दति (ये विश्वा भुवना-अभि प्रतस्थुः) ये जीवन्मुक्ताः सर्वाणि ज्ञानानि-अधिकारेण प्रतिष्ठन्ति (ते) ते खलु (नः) अस्मभ्यम् (अद्य) अस्मिन् काले जीवने (उरुगायं रासन्ताम्) बहुप्रशंसनीयं ज्ञानं परमात्मज्ञानं प्रयच्छतु (यूयं स्वस्तिभिः-नः सदा पात) हे विद्वांसो ! यूयं कल्याणवचनैरस्मान् सदा रक्षत ॥१५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The brilliant sage of the first and highest order adores and celebrates the immortal Vishvedevas who abide in all regions of the world. May they give us universal knowledge and vision of the highest adorable lord divine. O Vishvedevas, pray protect and promote us for all time with all that is good for the total well being of life.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्राचा अर्थ पूर्वीच्या सूक्ताच्या अंतिम मंत्राप्रमाणे आहे. ॥१५॥

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