ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 93/ मन्त्र 11
ऋषिः - तान्वः पार्थ्यः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - न्यङ्कुसारिणीबृहती
स्वरः - मध्यमः
ए॒तं शंस॑मिन्द्रास्म॒युष्ट्वं कूचि॒त्सन्तं॑ सहसावन्न॒भिष्ट॑ये । सदा॑ पाह्य॒भिष्ट॑ये मे॒दतां॑ वे॒दता॑ वसो ॥
स्वर सहित पद पाठए॒तम् । शंस॑म् । इ॒न्द्र॒ । अ॒स्म॒ऽयुः । त्वम् । कूऽचि॑त् । सन्त॑म् । स॒ह॒सा॒ऽव॒न् । अ॒भिष्ट॑ये । सदा॑ । पा॒हि॒ । अ॒भिष्ट॑ये । मे॒दता॑म् । वे॒दता॑ । व॒सो॒ इति॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
एतं शंसमिन्द्रास्मयुष्ट्वं कूचित्सन्तं सहसावन्नभिष्टये । सदा पाह्यभिष्टये मेदतां वेदता वसो ॥
स्वर रहित पद पाठएतम् । शंसम् । इन्द्र । अस्मऽयुः । त्वम् । कूऽचित् । सन्तम् । सहसाऽवन् । अभिष्टये । सदा । पाहि । अभिष्टये । मेदताम् । वेदता । वसो इति ॥ १०.९३.११
ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 93; मन्त्र » 11
अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 28; मन्त्र » 1
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अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 28; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
हिन्दी (3)
पदार्थ
(इन्द्र सहसावन्) हे ऐश्वर्यवन् बलवन् परमात्मन् ! (त्वं-अस्मयुः) तू हमको चाहता हुआ (एतं कूचित् सन्तम्) कहीं भी होते हुए इस मुझ (शंसम्) स्तोता को (अभिष्टये) अभीष्ट सिद्धि के लिए (सदा अभिष्टये पाहि) सदा आभिभुख्य से अध्यात्मयज्ञ के लिए सुरक्षित रख (वसो) हे बसानेवाले परमात्मन् ! (मेदताम्) स्नेह करनेवालों के मध्य में वर्त्तमान मुझको (वेदता) बोध दे ॥११॥
भावार्थ
परमात्मा हमें चाहता है, हमारे कल्याण के लिए कहीं भी स्तुति करनेवाले मनुष्य को उसकी सांसारिक अभीष्ट सिद्धि के लिए और सदा अध्यात्मयज्ञ के लिए रक्षा करता है। परमात्मा से जो स्नेह करनेवाले हैं, उनमें से प्रत्येक को वह बोध देता है ॥११॥
विषय
प्रभु से ज्ञान की प्राप्ति
पदार्थ
[१] हे (सहसावन्) = इन्द्र-शक्ति के पुञ्ज परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (अस्मयुः) = हमारे हित की कामनावाले (त्वम्) = आप (कूचित् सन्तम्) = कहीं ही होनेवाले, अर्थात् एक आध व्यक्ति को ही प्राप्त होनेवाले (एतम्) = इस (शंशम्) = ज्ञान को (अभिष्टये) = हमारे इष्ट की सिद्धि के लिए सदा (पाहि) = हमेशा सुरक्षित करिये । सामान्यतः संसार में सभी अज्ञानी ही बने रहते हैं । कोई व्यक्ति ही ज्ञान को प्राप्त करता है । इस ज्ञान को प्राप्त करके ही हम अन्तिम लक्ष्य तक पहुँच पाते हैं। यह ज्ञान ही वस्तुतः हमें वह शक्ति प्राप्त कराता है जिससे कि हम वासनाओं का संहार कर पाते हैं । हम 'सहसावान्' बनते हैं। यह ज्ञान ही परमैश्वर्य है, हमें यह 'इन्द्र' बनाता है। [२] हे (वसो) = ज्ञान को देकर हमारे निवास को उत्तम बनानेवाले प्रभो ! (अभिष्टये) = इष्ट प्राप्ति के लिए (मेदताम्) = स्नेह करनेवालों का (वेदता) = आप ध्यान करिये। आपकी कृपा दृष्टि हम स्नेह करनेवालों पर सदा बनी रहे । आपकी कृपा से ही हमारे सब अभीष्ट पूर्ण होंगे।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु हमें ज्ञान प्राप्त कराएँ जिससे हम भी प्रभु की तरह 'सहसावान् व इन्द्र' बन पाएँ। सबके प्रति स्नेह करते हुए हम प्रभु की कृपा के पात्र हों ।
विषय
प्रभु से रक्षा की प्रार्थना।
भावार्थ
हे (इन्द्र) ऐश्वर्य के देने हारे प्रभो ! हे (सहसावन्) बलशालिन् ! (त्वम् अस्मयुः) तू हमें चाहता हुआ, हमारा स्वामी (शंसम्) किसी भी स्थान पर रहते हुए इस स्तुति करने हारे भक्त (अभिष्टये कूचित सन्तं एतं सदा पाहि) उसकी अभीष्ट सिद्धि के लिये निरन्तर रक्षा कर। हे (बसो) सब में बसने वाले सर्वव्यापक, (मेदताम् अभिष्टये) स्नेह करने वालों के बीच में भी अपने स्तोताओं को अभीष्ट सिद्धि के लिये तू (सदा वेदत) सदा जान।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषिस्तान्वः पार्थ्यः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:- १ विराट् पक्तिः। ४ पादनिचृत् पङ्क्तिः। ५ आर्चीभुरिक् पङ्क्तिः। ६, ७, १०, १४ निचृत् पङ्क्तिः। ८ आस्तारपङ्क्तिः। ९ अक्षरैः पङ्क्तिः। १२ आर्ची पङ्क्तिः। २, १३ आर्चीभुरिगनुष्टुप्। ३ पादनिचृदनुष्टुप्। ११ न्यङ्कुसारिणी बृहती। १५ पादनिचृद् बृहती। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्द्र सहसावन्) हे ऐश्वर्यवन् बलवन् परमात्मन् ! (त्वं-अस्मयुः) त्वमस्मान् कामयमानः सन् (एतं कूचित् सन्तं शंसम्) क्वचित् सन्तमिमं मां शंसकं स्तोतारम् (अभिष्टये) अभीष्टसिद्धये (सदा-अभिष्टये पाहि) सदा-आभिमुख्यतोऽध्यात्मेष्टयेऽध्यात्मयज्ञाय “अभिष्टिः अभितः सर्वत इष्टव्यो यज्ञः यस्य सः “छान्दस इकारलोपः” [यजु० २०।३८ दयानन्दः] रक्ष (वसो मेदतां वेदता) हे वासयितः परमात्मन् ! स्नेहं कुर्वतां मध्ये वर्त्तमानं मां त्वां बुध्यस्व ॥११॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord omnipotent, you are our father, mother, protector and all, pray accept this celebrant all time wherever he be, protect him for his good, promote him for his cherished happiness and well being. Pray take on the seeker, enlighten the lover, save me, O shelter home of the world.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा आम्हाला प्रेम व स्नेह देतो. आमच्या कल्याणासाठी स्तुती करणाऱ्या माणसाला त्याच्या सांसारिक अभीष्ट सिद्धीसाठी व सदैव अध्यात्मयज्ञासाठी त्यांचे रक्षण करतो. परमात्म्याला जे स्नेह करणारे आहेत. त्यांच्यापैकी प्रत्येकाला तो बोध करतो. ॥११॥
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