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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 93 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 93/ मन्त्र 5
    ऋषिः - तान्वः पार्थ्यः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - भुरिगार्चीपङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    उ॒त नो॒ नक्त॑म॒पां वृ॑षण्वसू॒ सूर्या॒मासा॒ सद॑नाय सध॒न्या॑ । सचा॒ यत्साद्ये॑षा॒महि॑र्बु॒ध्नेषु॑ बु॒ध्न्य॑: ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    उ॒त । नः॒ । नक्त॑म् । अ॒पाम् । वृ॒ष॒ण्व॒सू॒ इति॑ वृषण्ऽवसू । सूर्या॒मासा॑ । सद॑नाय । स॒ऽध॒न्या॑ । सचा॑ । यत् । सादि॑ । ए॒षा॒म् । अहिः॑ । बु॒ध्नेषु॑ । बु॒ध्न्यः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    उत नो नक्तमपां वृषण्वसू सूर्यामासा सदनाय सधन्या । सचा यत्साद्येषामहिर्बुध्नेषु बुध्न्य: ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    उत । नः । नक्तम् । अपाम् । वृषण्वसू इति वृषण्ऽवसू । सूर्यामासा । सदनाय । सऽधन्या । सचा । यत् । सादि । एषाम् । अहिः । बुध्नेषु । बुध्न्यः ॥ १०.९३.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 93; मन्त्र » 5
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 26; मन्त्र » 5
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (अपाम्) आप्त जनों या प्राणों के (वृषण्वसू) स्वयं सुखवर्षक और बसानेवाले (सधन्या) समान ज्ञानधनवाले (सूर्यामासा) सूर्य और चन्द्रमा के समान (उत नक्तम्) रात्रि में भी दिन में भी-दिनरात में (नः) हमारे स्वज्ञानप्रकाशक द्वारा रक्षक विद्वान् अध्यापक और उपदेशक (सदनाय) सदन में-घर में (एषां बुध्नेषु) इन विद्वानों के बोधस्थानों में (अहिः-बुध्न्यः) आनेवाला बोध करानेयोग्य जन (यत् सचा सादि) जो शीघ्र बैठे ॥५॥

    भावार्थ

    ज्ञानधनवाले अध्यापक और उपदेशक विद्वानों के बोधस्थानों में जो रहते हैं, वे सुख के वर्षक और बसानेवाले दिनरात प्राप्त होते रहें, बोध देने योग्य पात्र को बोध देते रहें ॥५॥

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    विषय

    सूर्य व चन्द्र [ उग्रता व शान्ति ] - तेज व क्षमा

    पदार्थ

    [१] गत मन्त्र में देवों के लक्षण दिये गये हैं। देवों की यह भी विशेषता होती है कि वे अपने में 'तेजस्विता व क्षमा' इन दोनों ही तत्त्वों का समन्वय करते हैं। सूर्य से वे उग्रता व तेजस्विता का पाठ पढ़ते हैं, तो चन्द्रमा से वे शान्ति व क्षमा को सीखते हैं। दोनों ही आवश्यक हैं। 'कोई कम और कोई अधिक आवश्यक हो' ऐसी बात नहीं है। ये (सधन्या) = समान धन हैं । यहाँ मन्त्र में 'दिवा नक्तं' के स्थान में केवल 'नक्तं' का पाठ है, जैसे 'सत्यभामा' 'भामा' है। (उत) = और (न:) = हमारे में (नक्तम्) = दिन-रात (अपां वृषण्वसू) = प्रजाओं के लिए धन का वर्षण करनेवाले (सूर्यामासा) = सूर्य प्रकाश और चन्द्र आह्लाद (सधन्या) = समान धनवाले होते हुए, अर्थात् एक समान मनुष्य को धन्य बनानेवाले, इतना ही नहीं, परस्पर मिलकर मनुष्य को धन्य बनानेवाले (सदनाय) = निवास के लिए हों। हमारे में जैसे सूर्य का निवास हो, उसी प्रकार चन्द्रमा का । हम तेजस्विता व क्षमा दोनों को धारण करें। हम केवल उग्र ही उग्र न हों, केवल शान्त ही शान्त न हों । उग्रता व शान्ति का अपने में समन्वय करें। [२] (यत् एषाम्) = जब इन दोनों के जीवनों में (सचा) = इन सूर्य और चन्द्र का मेल होता है तो (अहिर्बुध्नेषु) = अहीन आधारवाले, न नष्ट होनेवाले, प्रकृति जीव व परमात्मा में (बुध्न्यः) = सर्वोत्तम आधारभूत प्रभु (सादि) = स्थित होते हैं । हम अपने जीवनों में सूर्य व चन्द्र का मेल करें, तो हमें अवश्य प्रभु की प्राप्ति होगी, यहाँ 'नित्यो नित्यानां' की तरह ही 'अहिर्बुध्नेषु बुध्न्यः ' ये शब्द प्रयुक्त हुए हैं। वे प्रभु अक्षरों में भी अक्षर अथवा 'परम अक्षर' हैं। [३] सूर्य हमारे में 'चक्षु' रूप से रहता है और चन्द्रमा 'मन' के रूप में हम चक्षु आदि इन्द्रियों को सशक्त व निर्मल बनाएँ और मन को सदा प्रसादयुक्त रखने का प्रयत्न करें। यही प्रभु प्राप्ति का मार्ग है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम सूर्य की तरह तेजस्वी हों, चन्द्रमा की तरह शान्त व आह्लादमय तभी हमें प्रभु का आधार प्राप्त होगा ।

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    विषय

    देह में चन्द्र सूर्यवत् दो प्राणों की गति। उसी प्रकार गृहस्थ में स्त्री पुरुष हों।

    भावार्थ

    (उत) और (यत्) जब (बुध्न्यः अहिः) अन्तरिक्ष मेघ वा सूर्य के तुल्य (बुध्न्यः) ज्ञाननिष्ठ, अमृत, अविनाशी आत्मा (एषाम् बुध्नेषु) इन प्राणों के बीच में (सचा सादि) इन के साथ इन में राजा वा प्रजापति के तुल्य विराजता है, तब (अपां) प्राणों के बीच (वृषण्वसू) बलशाली दो प्राण, (सूर्या मासा) जगत् में चन्द्र सूर्य के तुल्य (सधन्या) एक साथ गति करते हुए (सदनाय) यहां रहने के लिये (नः) हमें (नक्तं) रात्रिकाल में भी (उरुष्यताम्) हमारी रक्षा करें। इति षड्विंशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिस्तान्वः पार्थ्यः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:- १ विराट् पक्तिः। ४ पादनिचृत् पङ्क्तिः। ५ आर्चीभुरिक् पङ्क्तिः। ६, ७, १०, १४ निचृत् पङ्क्तिः। ८ आस्तारपङ्क्तिः। ९ अक्षरैः पङ्क्तिः। १२ आर्ची पङ्क्तिः। २, १३ आर्चीभुरिगनुष्टुप्। ३ पादनिचृदनुष्टुप्। ११ न्यङ्कुसारिणी बृहती। १५ पादनिचृद् बृहती। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (अपां वृषण्वसू) आप्तजनानां प्राणानां वा स्वयं सुखवर्षकौ वासयितारौ च “वृषण्यवसू वर्षकौ वसन्तौ च” [यजु० ११।१३ दयानन्दः] (सधन्या) समानज्ञानधनवन्तौ (सूर्यामासा) सूर्यचन्द्रमसाविव (उत नक्तम्) अहोरात्रयोर्ज्ञानप्रकाशेन (नः) अस्माकं रक्षकौ विद्वांसावध्यापकोपदेशकौ (सदनाय) सदने “सप्तम्यर्थे चतुर्थी व्यत्ययेन” सीदतमति शेषः (एषां बुध्नेषु) एषां बोधस्थानेषु (अहिः-बुध्न्यः) आगन्ता “अहिरयनात्” [निरु० २।१७] बोद्धव्यो जनः (सचा यत् सादि) यत् सद्यः सीदेत् ॥५॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    And those harbingers of rain and wealth, the Ashvins, the sun and moon, auspicious givers of wealth for the home, the clouds of vapour floating in the skies and their auxiliaries which abide in nature, may all these be friendly and bless us with wealth and joy day and night.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे ज्ञानधनयुक्त अध्यापक व उपदेशक विद्वानांकडून बोध घेतात. ते सुखाचे वर्षक असतात. ते रात्रंदिवस सर्वांना प्राप्त व्हावेत. त्यांनी बोध देण्यायोग्य पात्राला बोध करत राहावे. ॥५॥

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