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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 93 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 93/ मन्त्र 13
    ऋषिः - तान्वः पार्थ्यः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - भुरिगार्च्यनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    वा॒वर्त॒ येषां॑ रा॒या यु॒क्तैषां॑ हिर॒ण्ययी॑ । ने॒मधि॑ता॒ न पौंस्या॒ वृथे॑व वि॒ष्टान्ता॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    व॒वर्त॑ । येषा॑म् । रा॒या । यु॒क्ता । ए॒षा॒म् । हि॒र॒ण्ययी॑ । ने॒मऽधि॑ता । न । पौंस्या॑ । वृथा॑ऽइव । वि॒ष्टऽअ॑न्ता ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वावर्त येषां राया युक्तैषां हिरण्ययी । नेमधिता न पौंस्या वृथेव विष्टान्ता ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ववर्त । येषाम् । राया । युक्ता । एषाम् । हिरण्ययी । नेमऽधिता । न । पौंस्या । वृथाऽइव । विष्टऽअन्ता ॥ १०.९३.१३

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 93; मन्त्र » 13
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 28; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (येषां-राया) जिनके देने योग्य ज्ञानधन से (युक्ता) प्रेरित (एषां हिरण्ययी) इन-उन की तजोमयी [वावर्त्त] स्तुति होती है (नेमधिता न) संग्राम में जैसे (पौंस्या) बल (वृथा-इव) अनायास ही (विष्टान्ता) परस्पर मिले लक्ष्य के अन्त तक पहुँचानेवाले होते हैं, वैसे स्तुतियों की शृङ्खला लक्ष्य परमात्मा तक प्राप्त होती है ॥१३॥

    भावार्थ

    विद्वानों के ज्ञानोपदेशानुसार की हुई स्तुति निरन्तर परमात्मा को प्राप्त होती है ॥१३॥

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    विषय

    स्तुति-धन- ज्ञान

    पदार्थ

    [१] (येषाम्) = जिन उपासकों की स्तुति (वावर्त) = विशेषरूप से प्रवृत्त होती है, (एषाम्) = इनकी वह स्तुति (राया युक्त) = धन से युक्त होती हुई (हिरण्ययी) = ज्योतिर्मयी होती है, हित रमणीय होती है । स्तुति के साथ धन का मेल होने पर मस्तिष्क में किसी प्रकार की परेशानी नहीं होती और इस प्रकार इन उपासकों को ज्ञान की दीप्ति प्राप्त होती है, यह ज्ञान दीप्ति हितकर होती हुई रमणीय है । 'धन' शारीरिक आवश्यकताओं को पूर्ण करता है, तो 'स्तुति' मानस भोजन बनती है तथा 'ज्ञान' [हिरण्य] मस्तिष्क को उज्ज्वल करता है। [२] (न) = जैसे (नेमधिता) = संग्राम में (पौंस्या) = बल (विष्टान्ता) = [विष् व्याप्तौ ] व्याप्तावसान होते हैं, अन्त तक पहुँचानेवाले होते हैं, हमें विजयी बनाते हैं। इसी प्रकार यह धन व हिरण्य से युक्त स्तुति भी (वृथा इव) = अनायास ही बिना किसी अन्य परिश्रम के विष्टान्त होती है, हमें जीवन के लक्ष्य के अन्त तक पहुँचाती है। [३] धन से पृथ्वीलोक का विजय करते हैं, धन के ठीक प्रयोग से शरीर के स्वास्थ्य को सिद्ध करते हैं। स्तुति के द्वारा हृदयान्तरिक्ष के वैर्मत्य को सिद्ध करते हैं, स्तुति के द्वारा हृदयान्तरिक्ष में उमड़नेवाले वासना मेघों को छिन्न-भिन्न कर पाते हैं। ज्ञान के द्वारा मस्तिष्क रूप द्युलोक को दीप्त करके हम ब्रह्मलोक में पहुँचनेवाले बनते हैं। इस प्रकार धन व ज्ञान से युक्त स्तुति हमारे लिए विष्टान्त बनती है ।

    भावार्थ

    भावार्थ - हमारी स्तुति धन से युक्त होकर हमारे ज्ञान के वर्धन का कारण बने और इस प्रकार हम जीवन के लक्ष्य के अन्त तक पहुँचनेवाले हों ।

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    विषय

    वाणी, उदारता वा अर्थसम्पत् से युक्त हों, पौरुष अविच्छिन्न हो।

    भावार्थ

    (येषाम्) जिसकी स्तुति-उपासना, (राया युक्ता) देने योग्य धन से युक्त हैं, (एषां) उनकी वाणी (हिरण्ययी) हित और रमणीय (ववर्त) होती है। और (नेमधिता) संग्राम में उनके (पौंस्या) बलों के समान जिनके पौरुष क (वृथा इव) अनायास ही यन्त्र घट माला के तुल्य (विष्ट-अन्ता) एक दूसरे से गुथे अन्तों वाले होते हैं। जिस प्रकार यन्त्र-घट माला में रस्सी के छोर एक दूसरे से बद्ध रहते हैं। उसी प्रकार उनके पौरुषों या बलों के आदि अन्त भाग परस्पर सम्बन्ध होते हैं। उनकी वाणी भी दातव्य धन वा सुख से युक्त, अथवा अर्थसम्पन्न, परस्पर, सम्बद्ध, ओजस्विनी होती है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिस्तान्वः पार्थ्यः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:- १ विराट् पक्तिः। ४ पादनिचृत् पङ्क्तिः। ५ आर्चीभुरिक् पङ्क्तिः। ६, ७, १०, १४ निचृत् पङ्क्तिः। ८ आस्तारपङ्क्तिः। ९ अक्षरैः पङ्क्तिः। १२ आर्ची पङ्क्तिः। २, १३ आर्चीभुरिगनुष्टुप्। ३ पादनिचृदनुष्टुप्। ११ न्यङ्कुसारिणी बृहती। १५ पादनिचृद् बृहती। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (येषां राया युक्ता) येषां दातव्येन ज्ञानधनेन प्रेरिता (एषां हिरण्ययी) एतेषां तेषां तेजोमयी [वावर्त=आववर्त] स्तुतिवाग्भवति (नेमधिता न पौंस्या) संग्रामे “नेमधिता संग्रामनाम” [निघ० २।१७] यथा बलानि “पौंस्यानि बलनाम” [निघ० २।९] (वृथा-इव) अनायासेनैव (विष्टान्ता) विष्टान्तानि परस्पराविष्टान्तर्गतानि भवन्ति तथा स्तुतिवाक्शृङ्खला परमात्मगता भवति ॥१३॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    The prayer of devotees whose words are replete with the wealth of conscience and sincerity naturally and spontaneously bears the golden fruit of divine love and salvation, just as the heroic exploits of warriors in battle, united and directed to the same one end, lead to victory and never go waste.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    विद्वानांच्या ज्ञानोपदेशानुसार केलेली स्तुती निरंतर परमात्म्याला प्राप्त होते. ॥१३॥

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