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ऋग्वेद मण्डल - 10 के सूक्त 93 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 10/ सूक्त 93/ मन्त्र 12
    ऋषिः - तान्वः पार्थ्यः देवता - विश्वेदेवा: छन्दः - आर्चीपङ्क्ति स्वरः - पञ्चमः

    ए॒तं मे॒ स्तोमं॑ त॒ना न सूर्ये॑ द्यु॒तद्या॑मानं वावृधन्त नृ॒णाम् । सं॒वन॑नं॒ नाश्व्यं॒ तष्टे॒वान॑पच्युतम् ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒तम् । मे॒ । स्तोम॑म् । त॒ना । न । सूर्ये॑ । द्यु॒तत्ऽया॑मानम् । व॒वृ॒ध॒न्त॒ । नृ॒णाम् । स॒म्ऽवन॑नम् । न । अस्व्य॑म् । तष्टा॑ऽइव । अन॑पऽच्युतम् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एतं मे स्तोमं तना न सूर्ये द्युतद्यामानं वावृधन्त नृणाम् । संवननं नाश्व्यं तष्टेवानपच्युतम् ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एतम् । मे । स्तोमम् । तना । न । सूर्ये । द्युतत्ऽयामानम् । ववृधन्त । नृणाम् । सम्ऽवननम् । न । अस्व्यम् । तष्टाऽइव । अनपऽच्युतम् ॥ १०.९३.१२

    ऋग्वेद - मण्डल » 10; सूक्त » 93; मन्त्र » 12
    अष्टक » 8; अध्याय » 4; वर्ग » 28; मन्त्र » 2
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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (मे) मेरे (एतं स्तोमम्) इस स्तुतिसमूह को विद्वान् जन बढ़ावें, प्रोत्साहित करें-पुष्ट करें (सूर्यो तना न) सूर्य में विस्तृत रश्मियाँ जैसे (द्युतद्यामानम्) दीप्तिमान् मार्गयुक्त ज्योतिर्मण्डल को बढ़ाती हैं (नृणां संवननं न अश्व्यम्) मनुष्यों का सम्भजनीय अश्वयोग्य रथ जैसे (अनपच्युतम्) अपच्युतिरहित (तष्टा-इव) शिल्पी रथकार से रचा होता है ॥१२॥

    भावार्थ

    परमात्मा के प्रति स्तुति करनेवाले स्तुतिसमूह को निन्दित दृष्टि से न देखें, किन्तु उसे प्रोत्साहन दें, बढ़ावें। सूर्य की किरणें जैसे सूर्यमण्डल को बढ़ाती हैं या जैसे रथकार शिल्पी घोड़े के उपयुक्त रथ को चलने योग्य बनाता है, अलंकृत करता है, वैसे विद्वान् जन अपने प्रशंसित वचनों से बढ़ावा दें, अलंकृत करें ॥१२॥

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    विषय

    दीप्तगमन का साधन 'स्तोम'

    पदार्थ

    [१] (एतम्) = इस (मे) = मेरे से किये जानेवाले (स्तोमम्) = स्तुति समूह को सब देव (वावृधन्त) = बढ़ानेवाले हों। उस प्रकार बढ़ानेवाले हों (न) = जैसे कि (सूर्ये) = सूर्य में (तना) = रश्मिजाल को सूर्य में जैसे रश्मियाँ विस्तृत हो रही हैं इसी प्रकार मेरे जीवन में प्रभु के स्तोत्र विस्तृत हों, मैं निरन्तर प्रभु का स्तवन करनेवाला बनूँ। यह स्तोम द्(युतद्यामानम्) = दीप्तगमनवाला हो, इसके द्वारा मुझे मार्ग भली-भाँति दिखे। मेरे जीवनमार्ग को यह रोशन करनेवाला हो । प्रभु को सर्वज्ञ रूप में स्मरण करता हुआ मैं भी ज्ञान में रुचिवाला बनूँ । प्रभु को दयालु रूप में देखता हुआ मैं भी दया करनेवाला बनूँ। [२] यह स्तोम (नृणां संवननम्) = मनुष्यों का सम्यक् सेवनीय है [वन संभक्तौ] अथवा यह मनुष्यों को विजयी बनानेवाला है [वन् = win] विजय का यह साधन है । यह स्तोम क्या है, यह तो विजय के साधन के समान है । [३] (इव) = जैसे (तष्टा) = बढ़ई (अनपद्युतम्) = अपच्युत न होनेवाले दृढ तथा अश्वम् = अश्वों के लिए उत्तम रथ को बनाता है इसी प्रकार हम स्तोम को बनानेवाले हों। यह हमारा स्तोम भी च्युतिरहित हो, स्तुति विच्छिन्न न हो जाए तथा यह स्तुति हमारे इन्द्रिय रूप अश्वों को उत्तम बनानेवाली हो ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु का स्तवन मुझे अन्तः शत्रुओं से संघर्ष में विजयी बनाता है ।

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    विषय

    सूर्य के प्रकाश के तुल्य प्रभु-विषयक ज्ञान बढ़े। रथ के तुल्य हमारा शरीर दृढ़ हो।

    भावार्थ

    हे विद्वान् लोगो ! (सूर्ये तना न) सूर्य में जिस प्रकार रश्मियें विस्तृत प्रकाशमय ज्योति को विस्तारित करती हैं इसी प्रकार (सूर्ये) सब के सञ्चालक प्रभु के निमित्त (मे) मेरे (द्युतत्-यामानम्) चमकते मार्ग वाले, (एतम् स्तोमम्) इस स्तुति वचन को (वावृधन्त) बढ़ाओ बलशाली करो, अथवा मेरे लिये उस प्रभु की स्तुति वचनों का उपदेश करो। और (तष्टा इव) जिस प्रकार शिल्पी (नृणां संवननंः) शत्रु मनुष्यों को मारने वाले (अश्वं) शीघ्रगामी अश्वों से चलने वाले, (अनपच्युतं) न टूटने फिसलने वाले, रथ को बढ़ा कर बनाता है, उसी प्रकार वे विद्वान् लोग (नृणां संवननं) मनुष्यों में विभक्त करने योग्य, उनके सेवनीय, (अश्व्यं) अश्वों, इन्द्रियों से युक्त (अनपच्युतम्) दृढ़ शरीर वा स्तुति वचन की वृद्धि करें।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषिस्तान्वः पार्थ्यः। विश्वेदेवा देवताः॥ छन्द:- १ विराट् पक्तिः। ४ पादनिचृत् पङ्क्तिः। ५ आर्चीभुरिक् पङ्क्तिः। ६, ७, १०, १४ निचृत् पङ्क्तिः। ८ आस्तारपङ्क्तिः। ९ अक्षरैः पङ्क्तिः। १२ आर्ची पङ्क्तिः। २, १३ आर्चीभुरिगनुष्टुप्। ३ पादनिचृदनुष्टुप्। ११ न्यङ्कुसारिणी बृहती। १५ पादनिचृद् बृहती। पञ्चदशर्चं सूक्तम्॥

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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (मे) मम (एतं स्तोमम्) इमं स्तुतिसमूहं (ववृधन्त) विद्वांसो वर्धयन्तु प्रोत्साहयन्तु-पोषयन्तु (सूर्ये तना न द्युतद्यामानम्) सूर्ये विस्तृता रश्मयो यथा दीप्यमानमार्गयुक्तं ज्योतिर्मण्डलं वर्धयन्ति (नृणां संवननं न-अश्व्यम्) मनुष्याणां सम्भजनीयमश्वार्हं रथं यथा (अनपच्युतम्) अपच्युतिरहितं (तष्टा-इव) शिल्पिना रथकारेणेव रचितं भवति ॥१२॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    May the singers of divinity and celebrants of humanity exalt and extend this my song of divine adoration and united human celebration like radiant rays of the sun spreading light or a craftsman launching an infallible automotive fast chariot on boundless ways.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्म्याची स्तुती करणाऱ्या स्तुतिसमूहाला निंदित दृष्टीने पाहू नये तर त्यांना प्रोत्साहन द्यावे, वाढवावे. सूर्याची किरणे जशी सूर्यमंडलाची वृद्धी करतात किंवा जसे रथकार शिल्पी घोड्यांना रथासाठी चालण्यायोग्य बनवितो, अलंकृत करतो. तसे विद्वानांनी आपल्या प्रशंसित वचनांनी सर्वांचा विकास करून त्यांना अलंकृत करावे. ॥१२॥

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