ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 1/ मन्त्र 12
ऋषिः - आङ्गिरसः शौनहोत्रो भार्गवो गृत्समदः
देवता - अग्निः
छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
त्वम॑ग्ने॒ सुभृ॑त उत्त॒मं वय॒स्तव॑ स्पा॒र्हे वर्ण॒ आ सं॒दृशि॒ श्रियः॑। त्वं वाजः॑ प्र॒तर॑णो बृ॒हन्न॑सि॒ त्वं र॒यिर्ब॑हु॒लो वि॒श्वत॑स्पृ॒थुः॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । अ॒ग्ने॒ । सुऽभृ॑तः । उ॒त्ऽत॒मम् । वयः॑ । तव॑ । स्पा॒र्हे । वर्णे॑ । आ । स॒म्ऽदृशि॑ । श्रियः॑ । त्वम् । वाजः॑ । प्र॒ऽतर॑णः । बृ॒हन् । अ॒सि॒ । त्वम् । र॒यिः । ब॒हु॒लः । वि॒श्वतः॑ । पृ॒थुः ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमग्ने सुभृत उत्तमं वयस्तव स्पार्हे वर्ण आ संदृशि श्रियः। त्वं वाजः प्रतरणो बृहन्नसि त्वं रयिर्बहुलो विश्वतस्पृथुः॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। अग्ने। सुऽभृतः। उत्ऽतमम्। वयः। तव। स्पार्हे। वर्णे। आ। सम्ऽदृशि। श्रियः। त्वम्। वाजः। प्रऽतरणः। बृहन्। असि। त्वम्। रयिः। बहुलः। विश्वतः। पृथुः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 12
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
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अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे अग्ने यस्त्वं रयिर्बहुलो विश्वतस्पृथुः सुभृतः प्रतरणो बृहन्नसि यस्त्वं वाजोऽसि यस्य तव स्पार्हे संदृशि वर्ण उत्तमं वय आ श्रियश्च वर्त्तन्ते स त्वमध्यापको भव ॥१२॥
पदार्थः
(त्वम्) (अग्ने) विद्युदिव बलिष्ठ (सुभृतः) शोभनं कर्म भृतं येन सः (उत्तमम्) श्रेष्ठम् (वयः) कमनीयं जीवनम् (तव) (स्पार्हे) अभीप्सनीये (वर्णे) शुक्लादिगुणे (आ) (संदृशि) सम्यग्द्रष्टव्ये (श्रियः) लक्ष्मीः (त्वम्) (वाजः) ज्ञानवान् (प्रतरणः) यः प्रकृष्टतया दुःखानि तरति (बृहन्) वर्द्धमानः (असि) (त्वम्) (रयिः) द्रव्यरूपः (बहुलः) बहूनि सुखानि लाति (विश्वतः) सर्वतः (पृथुः) विस्तीर्णः ॥१२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा विद्वांसो गुणकर्मस्वभावतो विद्युतं विदित्वा कार्येषु संप्रयुज्य श्रीमन्तो भवन्ति ब्रह्मचर्येण दीर्घायुषश्च जायन्ते तथा सर्वैर्विद्यायुक्तैर्मनुष्यैर्भवितव्यम् ॥१२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (अग्ने) बिजुली के समान बलीजन जो (त्वम्) आप (रयिः) द्रव्यरूप (बहुलः) बहुत सुखों के ग्रहण करनेहारे (विश्वतः) सबसे (पृथुः) विस्तार को प्राप्त (सुभृतः) उत्तम कर्म जिन्होंने धारण किया (प्रतरणः) कठिनता से दुःखों के पार होते और (बृहन्) बढ़ते हुए (असि) हैं। जो (त्वम्) आप (वाजः) ज्ञानवान् हैं। जिन (तव) आपके (स्पार्हे) इच्छा करने और (संदृशि) अच्छे-प्रकार देखने योग्य (वर्णे) वर्ण में (उत्तमम्) उत्तम (वयः) मनोहर जीवन (आ श्रियः) और सब ओर से लक्ष्मी वर्त्तमान है। सो (त्वम्) आप अध्यापक हूजिये ॥१२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे विद्वान् जन गुण कर्म स्वभाव से बिजुली को जान और कार्य्यों में उसका अच्छे प्रकार प्रयोग कर श्रीमान् होते हैं और ब्रह्मचर्य से दीर्घायु होते हैं, वैसे सब विद्यायुक्त मनुष्यों को होना चाहिये ॥१२॥
विषय
उत्तमं वयः-श्रियः-वाजः-रयिः
पदार्थ
१. हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (त्वम्) = आप (सुभृतः) = उत्तमता से धारण किये हुए होने पर (उत्तमं वयः) = उत्कृष्ट जीवन होते हैं। आपको धारण करने पर हम उत्कृष्ट जीवनवाले बनते हैं । २. (तव) = आपके (स्पार्हे) = स्पृहणीय (सन्दॄशि) = दर्शनीय (वर्णे) = वर्ण में (श्रियः आ) = सब लक्ष्मियाँ आश्रय पाकर रहती हैं। प्रभु 'आदित्यवर्णम्' हैं, इस आदित्य के समान चमकते वर्ण में सब लक्ष्मियों का निवास है। अथवा 'वर्णे' का अर्थ है- वर्णन गुणस्तवन । प्रभु के गुणस्तवन में सब लक्ष्मियों का निवास है। प्रभु के स्तोता को सब लक्ष्मियाँ प्राप्त होती हैं । (त्वम्) = आप ही (वाज:) = वह बल (असि) = हैं, जो कि (प्रतरण:) = हमें सब शत्रुओं से तरानेवाला है-सब शत्रुओं को जीतने की क्षमता प्रदान करता है तथा (बृहन्) = वृद्धि का कारणभूत है। ४. (त्वम्) = आप ही (रयिः) = वह धन हैं, जो कि (बहुल:) = बहुत पदार्थों को प्राप्त करानेवाला है और (विश्वतः पृथुः) = सब दृष्टिकोणों से विस्तारवाला है। आप से दिया हुआ धन हमारी आवश्यकताओं का पूरण करता हुआ हमारी सब शक्तियों का विस्तार करता है।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु ही हमें उत्कृष्ट जीवन - श्री शक्ति व धन को प्राप्त कराते हैं।
विषय
उनके कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे (अग्ने) अग्नि के समान तेजस्विन् ! बलवन् ! (त्वं सुभृतः) तू सुख से बालक के समान धारण करने योग्य, एवं अपने आश्रितों का उत्तम रीति से पोषक है । ( तब ) तेरे ( संदृशि ) अच्छी प्रकार दर्शनीय, उत्तम, ( स्पार्हे वर्णे ) चाहने योग्य वरण करने में ही ( उत्तमं वयः ) उत्तम बल और उत्तम ( श्रियः ) शोभाएं और लक्ष्मी ( आ ) प्राप्त होती हैं । ( त्वं ) तू ( वाजः ) ज्ञान और ऐश्वर्य का साधक अथवा ( वाजः प्रतरणः ) संग्रामों से पार तराने वाला, नौका के समान है । तू (बृहन् असि) सदा बढ़ने वाला, और प्रजा को बढ़ाने वाला, महान् है । ( त्वं रयिः ) द्रव्यसम्पदा के समान अपने में सबको रमाने वाला है। तू ( बहुलः ) बहुत से सुख ऐश्वर्य प्राप्त कराने वाला और (विश्वतः-पृथुः ) सब प्रकारों से विस्तृत, महान् और अति विस्तारवान् है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
आङ्गिरसः शौनहोत्रो भार्गवो गृत्समद ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१ पङ्क्तिः । ९ भुरिक् पक्तिः । १३ स्वराट् पङ्क्तिः । २, १५ विराड् जगती । १६ निचृज्जगती । ३, ५, ८, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ६, ११, १२, १४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ७ विराट् त्रिष्टुप् । षोडशर्चं सूक्तम ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे विद्वान लोक गुण, कर्म, स्वभावाने विद्युतला जाणून कार्यात त्याचा चांगल्या प्रकारे प्रयोग करून श्रीमंत होतात व ब्रह्मचर्य पाळून दीर्घायू होतात तसे सर्व विद्यायुक्त माणसांनी बनले पाहिजे. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, lord of glory and magnanimity, you are the highest wielder and upholder of great action. Highest are your lives and roles in performance. Lovely and wondrous are your graces in form and view. Mighty great are you, high your vision and knowledge, a saving ark across the seas of sin and suffering. High and plentiful are you in wealth and knowledge, all round great and greater, in measure immeasurable of all.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The pre-requisites of a scholar are mentioned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O strong man ! powerful like lightning you accept happiness and substances, and thus demolish completely the sorrows of those who perform good deeds. You are knowledgeable and you inculcate happy life and prosperity among your pupils, which others envy.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Here is a simile. The learned people become prosperous with the study of energy and good deeds. They get longevity through Brahmacharya. The others should also emulate.
Foot Notes
(स्पार्हे) अभीप्सनीये = Desirable. (संदृशि ) सम्यग्द्रष्टव्ये = Worthy of seeing. (प्रतरणः) यः प्रकृष्टतया दुःखानि तरति = One who extensively thrashes the sorrows and griefs of noble people.
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