ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 1/ मन्त्र 3
ऋषिः - आङ्गिरसः शौनहोत्रो भार्गवो गृत्समदः
देवता - अग्निः
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
त्वम॑ग्न॒ इन्द्रो॑ वृष॒भः स॒ताम॑सि॒ त्वं विष्णु॑रुरुगा॒यो न॑म॒स्यः॑ । त्वं ब्र॒ह्मा र॑यि॒विद्ब्र॑ह्मणस्पते॒ त्वं वि॑धर्तः सचसे॒ पुरं॑ध्या॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । अ॒ग्ने॒ । इन्द्रः॑ । वृ॒ष॒भः । स॒ताम् । अ॒सि॒ । त्वम् । विष्णुः॑ । उ॒रु॒ऽगा॒यः । न॒म॒स्यः॑ । त्वम् । ब्र॒ह्मा । र॒यि॒ऽवित् । ब्र॒ह्म॒णः॒ । प॒ते॒ । त्वम् । वि॒ध॒र्त॒रिति॑ विऽधर्तः । स॒च॒से॒ । पुर॑म्ऽध्या ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वमग्न इन्द्रो वृषभः सतामसि त्वं विष्णुरुरुगायो नमस्यः । त्वं ब्रह्मा रयिविद्ब्रह्मणस्पते त्वं विधर्तः सचसे पुरंध्या॥
स्वर रहित पद पाठत्वम्। अग्ने। इन्द्रः। वृषभः। सताम्। असि। त्वम्। विष्णुः। उरुऽगायः। नमस्यः। त्वम्। ब्रह्मा। रयिऽवित्। ब्रह्मणः। पते। त्वम्। विधर्तरिति विऽधर्तः। सचसे। पुरम्ऽध्या॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 3
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 17; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे अग्ने इन्द्रो वृषभस्त्वं सतां नमस्योऽसि विष्णुस्त्वं सतामुरुगायोऽसि हे ब्रह्मणस्पते यस्त्वं रयिविद्ब्रह्माऽसि। हे विधर्त्तस्त्वं पुरन्ध्या सचसे ॥३॥
पदार्थः
(त्वम्) (अग्ने) सूर्य्यवद्वर्त्तमान (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् (वृषभः) दुष्टसामर्थ्यहन्ता (सताम्) सत्पुरुषाणां मध्ये (असि) (त्वम्) (विष्णुः) जगदीश्वरवत् (उरुगायः) बहुभिः स्तुतः (नमस्यः) सत्कर्त्तुमर्हः (त्वम्) (ब्रह्मा) अखिलवेदाऽध्येता (रयिवित्) पदार्थविद्यायुक्तः (ब्रह्मणस्पते) वेदविद्याप्रचारक (त्वम्) (विधर्त्तः) यो विविधान् शुभान् गुणान् धरति तत्सम्बुद्वौ (सचसे) सह वर्त्तसे (पुरन्ध्या) पुरं पूर्णां विद्यां ध्यायति या तया सह ॥३॥
भावार्थः
यो मनुष्यो ब्रह्मचर्येणाऽप्तानां विदुषां सकाशात् प्राप्तविद्याशिक्ष ईश्वरवत्सर्वोपकारतया प्राप्तप्रशंसासत्कारः प्रत्यहं प्रज्ञया सर्वान् शुभगुणकर्मस्वभावान् धरति सोऽलंविद्यो भवति ॥३॥
हिन्दी (4)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (अग्ने) सूर्य के समान वर्त्तमान ! (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान् (वृषभः) दुष्टों के सामर्थ्य को विनाशनेवाले (त्वम्) आप (सताम्) सत्पुरुषों के बीच (नमस्यः)सत्कार करने योग्य (असि) हैं, (विष्णु) जगदीश्वर के समान (त्वम्) आप सज्जनों में (उरुगायः) बहुतों से कीर्त्तन किये हुए हैं। हे (ब्रह्मणस्पते) वेदविद्या का प्रचार करनेवाले ! जो (त्वम्) आप (रयिवित्) पदार्थविद्या के जानने (ब्रह्मा) समस्त वेद के पढ़नेवाले हैं। हे (विधर्त्तः) जो नाना प्रकार के शुभ गुणों को धारण करनेवाले (त्वम्) आप (पुरन्ध्या) पूर्ण विद्या के धारण करनेवाली स्त्री उसके साथ (सचसे) सम्बन्ध करते हैं ॥३॥
भावार्थ
जो मनुष्य ब्रह्मचर्य से आप्त विद्वानों के समीप से विद्या शिक्षा को प्राप्त हुआ ईश्वर के समान उपकारदृष्टि से प्रशंसा और सत्कार को प्राप्त हुआ प्रतिदिन उत्तम बुद्धि से समस्त शुभ गुण, कर्म और स्वभावों को धारण करता है, वह सम्पूर्ण विद्यावान् होता है ॥३॥
पदार्थ
पदार्थ = हे ( अग्ने ) = सर्वव्यापक ज्ञानस्वरूप ज्ञानप्रदाता परमात्मन् ! ( त्वम् इन्द्रः ) = आप सारे ऐश्वर्य के स्वामी और ( सताम् वृषभः ) = श्रेष्ठ पुरुषों पर सुख की वर्षा करनेवाले ( उरुगाय: ) = बहुत स्तुति के योग्य ( नमस्य: ) = नमस्कार करने योग्य ( विष्णुः ) = सर्वत्र व्यापक हो। हे ( ब्रह्मणः पते ) = सारे ब्रह्माण्ड के और वेदों के रक्षक ( त्वं विधर्त्तः ) = आप ही जगत् के धारण करनेवाले हैं। ( पुरन्ध्या सचसे ) = अपनी बड़ी बुद्धि से मिलते और प्यार करते हैं, ( त्वं रयिविद् ब्रह्मा ) = आप ही धनवाले ब्रह्मा हैं।
भावार्थ
भावार्थ = परमात्मन् ! आपके अनेक शुभ नाम हैं। जैसे अग्नि, इन्द्र, वृषभ, विष्णु, ब्रह्मा, ब्रह्मणस्पति आदि। ये सब नाम सार्थक हैं, निरर्थक एक भी नहीं प्रभु अपने प्रेमी भक्तों पर सुख की वृष्टिकर्त्ता और सबके वन्दनीय और स्तुत्य आप ही हो। जितने महानुभाव ऋषि-मुनि हुए हैं, वे सब आपके भक्त गुण गाते-गाते कल्याण को प्राप्त हुए। आप अपनी उदार बुद्धि से अपने भक्तों को सदा मिलते और प्यार करते हैं ।
विषय
इन्द्र-विष्णु- ब्रह्मा-विधर्ता
पदार्थ
१. हे (अग्ने) = परमात्मन्! (त्वम्) = आप (इन्द्रः) = परमैश्वर्यशाली हैं, (सताम्) = सज्जनों के (वृषभः) = सब सुखों के वर्षण करनेवाले (असि) हैं । २. (त्वम्) = आप ही (विष्णुः) = सर्वव्यापक हैं, (उरुगाय:) = ख़ूब गायन के योग्य व स्तुत्य हैं, (नमस्य:) = नमस्कार के योग्य हैं । ३. हे (ब्रह्मणस्पते) = ज्ञान के स्वामिन् प्रभो! (त्वम्) = आप (ब्रह्मा) = सब गुणों के दृष्टिकोण से बढ़े हुए हैं, सब गुणों की वस्तुतः चरमसीमा ही हैं। (रयिविद्) = सम्पूर्ण धनों के प्राप्त करानेवाले हैं। ४. हे (विधर्त:) = सबके धारण करनेवाले प्रभो ! (त्वम्) = आप (पुरन्ध्या) = पालक व पूरक बुद्धि से (सचसे) = समवेत होते हैं। सम्पूर्ण बुद्धि के आप स्वामी हैं। ५. मन्त्र के चार स्तुतिवाक्यों से स्तोता यह प्रेरणा प्राप्त करता है कि [क] ऐश्वर्यवान् व शक्तिशाली बनकर वह सज्जनों का रक्षक बने [ख] व्यापक मनोवृत्तिवाला बनकर प्रशंसनीय जीवनवाला हो [ग] ज्ञानी बनकर वास्तविक ऐश्वर्य को प्राप्त करे [घ] बुद्धि का सम्पादन करके धारणात्मक कर्मों में प्रवृत्त हो ।
भावार्थ
भावार्थ- हम अपने पिता प्रभु की तरह 'इन्द्र-विष्णु-ब्रह्मा व विधर्ता' बनने का प्रयत्न करें।
विषय
उनके कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे (अग्ने) सूर्य के समान प्रकाशमान ? ( त्वम् ) तू (इन्द्रः) ऐश्वर्यवान्, (वृषभः) बलवान् सब उत्तम सुखों को देने हारा, ( सताम् नमस्यः ) समस्त सत्पुरुषों के बीच नमस्कार और पूजा करने योग्य है । ( त्वं ) तू (विष्णुः) व्यापक सामर्थ्यवान्, ( उरुगायः ) बहुतों से स्तुति किया जाय । (त्वं ) तू (ब्रह्मा) मुख्य २ कार्य करने हारा, वेदों का विद्वान् ( रयिवित् ) सब पदार्थों का जानने हारा है । हे ( ब्रह्मणः पते ) वेद, महान् राष्ट्र, अन्न धन आदि के पालक ! हे (विधर्त्तः) विविध धर्मों और उत्तम गुणों, विविध उपायों से राष्ट्र के धारण करने हारे ! तू ( पुरन्ध्या ) पूर्ण विद्या और पुर, राष्ट्र को धारण करने वाली बुद्धि और राजनीति के साथ, स्त्री के साथ गृहपति के समान रहता हुआ ( सचसे ) बलवान्, समवाय बना कर रह । ( २ ) परमेश्वर ब्रह्म अर्थात् वेद का पालक और ब्रह्माण्ड को धारण करने वाली शक्ति से युक्त है । वह स्वयं ‘ब्रह्मा’ सब से महान्; ऐश्वर्यवान्, व्यापक, सर्वस्तुतियोग्य सबका उपास्य है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
आङ्गिरसः शौनहोत्रो भार्गवो गृत्समद ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१ पङ्क्तिः । ९ भुरिक् पक्तिः । १३ स्वराट् पङ्क्तिः । २, १५ विराड् जगती । १६ निचृज्जगती । ३, ५, ८, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ६, ११, १२, १४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ७ विराट् त्रिष्टुप् । षोडशर्चं सूक्तम ॥
मराठी (1)
भावार्थ
जो माणूस ब्रह्मचर्यपूर्वक आप्तविद्वानांकडून विद्या व शिक्षण प्राप्त करतो, ईश्वराप्रमाणे उपकारबुद्धीने वागतो व प्रशंसा आणि सत्कार प्राप्त करतो, प्रत्येक दिवशी उत्तम बुद्धीने संपूर्ण शुभ गुण, कर्म, स्वभाव धारण करतो तो संपूर्ण विद्यायुक्त असतो. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, self-refulgent lord of light and life, you are Indra, lord of power and glory. You are Vrshabha, mighty and generous among the good and great. You are Vishnu, omnipresent spirit, adorable, worthy of homage by all. You are Brahma, high-priest of the universe who knows the wealth and value of existence. O Brahmanaspati, lord protector, preserver and promoter of knowledge of the Spirit and Nature, you are the treasure-hold of all that exists in the universe, and you abide by all humans and others with your knowledge, power and glory.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The pre-conditions to become a benefactor and admired.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O excellent and beautiful scholar! you enlighten the people fully like a sun. You have taken a vow of truth and are great and glorified physically, spiritually and psychologically. You thrash out the wicked and evils and therefore admirable and friendly to the Pranas (vital breaths). You administer all with justice and protect the noble persons and good conducts.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
In the battlefield you manage nicely and are therefore our ruler. The person receiving meaningful ideas from the scholars and dealing with justice can become an ideal ruler.
Foot Notes
(विष्णु:) जगदीश्वरवत् = Like God. (विधर्त्त) यो विविधान् गुणान् धरति तत्संबुद्धौ = O ruler full of various attributes. (ब्रह्मणस्पते) वेद विद्याप्रचाराक = O preacher of the Vedic knowledge.
बंगाली (1)
পদার্থ
ত্বমগ্ন ইন্দ্রো বৃষভঃ সতামসি ত্বং বিষ্ণুরুরুগায়ো নমস্যঃ ।
ত্বং ব্রহ্মা রয়িবিদ্ ব্রহ্মণস্পতে ত্বং বিধর্তঃ সচসে পুরন্ধ্যা।।২৯।।
(ঋগ্বেদ ২।১।৩)
পদার্থঃ হে (অগ্ন) সর্বব্যাপক জ্ঞান স্বরূপ জ্ঞানপ্রদাতা পরমাত্মা! (ত্বম্ অসি ইন্দ্রঃ) তুমি সমস্ত ঐশ্বর্যের স্বামী এবং (সতাম্ বৃষভঃ) শ্রেষ্ঠ পুরুষের উপর সুখের বর্ষণকারী। (ত্বম্) তুমি (উরুগায়ঃ) সকল প্রশংসার যোগ্য, (নমস্যঃ) নমস্কার করার যোগ্য এবং (বিষ্ণুঃ) সর্বত্র ব্যাপক। হে (ব্রহ্মণঃ পতে) সমস্ত ব্রহ্মাণ্ডের এবং বেদের রক্ষক! (ত্বম্ বিধর্তঃ) তুমিই জগতের ধারণকর্তা। (পুরন্ধ্যা সচসে) তুমি উদার বুদ্ধি দ্বারা প্রাপ্ত হও এবং সকলকে ভালোবাসো, (ত্বম্ রয়িবিদ্ ব্রহ্মা) তুমিই ধনবান ব্রহ্মা।
ভাবার্থ
ভাবার্থঃ হে পরমেশ্বর! তোমার অনেক শুভ নাম। যেমনঃ অগ্নি, ইন্দ্র, বৃষভ, বিষ্ণু, ব্রহ্মা, ব্রহ্মণস্পতি আদি। এই সব নামই পুণ্যময়, নিরর্থক একটিও নয়। তুমি তোমার ভক্তের উপর সুখের বর্ষণকারী এবং সকলের বন্দনীয়। তুমিই একমাত্র স্তুতিযোগ্য। যতজন মহানুভব মুনি ঋষি হয়েছেন, তারা সকলেই তোমার ভক্ত। তোমার গুণগান ও মহিমা কীর্তন করেই তারা পরম পদ প্রাপ্ত হয়েছে। তুমি তোমার উদার প্রেম দ্বারা নিজের ভক্তকে সদা ভালোবাসো ।।২৯।।
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