ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 1/ मन्त्र 9
ऋषिः - आङ्गिरसः शौनहोत्रो भार्गवो गृत्समदः
देवता - अग्निः
छन्दः - भुरिक्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
त्वाम॑ग्ने पि॒तर॑मि॒ष्टिभि॒र्नर॒स्त्वां भ्रा॒त्राय॒ शम्या॑ तनू॒रुच॑म्। त्वं पु॒त्रो भ॑वसि॒ यस्तेऽवि॑ध॒त्त्वं सखा॑ सु॒शेवः॑ पास्या॒धृषः॑॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । अ॒ग्ने॒ । पि॒तर॑म् । इ॒ष्टिऽभिः॑ । नरः॑ । त्वाम् । भ्रा॒त्राय॑ । शम्या॑ । त॒नू॒ऽरुच॑म् । त्वम् । पु॒त्रः । भ॒व॒सि॒ । यः । ते॒ । अवि॑धत् । त्वम् । सखा॑ । सु॒ऽशेवः॑ । पा॒सि॒ । आ॒ऽधृषः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वामग्ने पितरमिष्टिभिर्नरस्त्वां भ्रात्राय शम्या तनूरुचम्। त्वं पुत्रो भवसि यस्तेऽविधत्त्वं सखा सुशेवः पास्याधृषः॥
स्वर रहित पद पाठत्वाम्। अग्ने। पितरम्। इष्टिऽभिः। नरः। त्वाम्। भ्रात्राय। शम्या। तनूऽरुचम्। त्वम्। पुत्रः। भवसि। यः। ते। अविधत्। त्वम्। सखा। सुऽशेवः। पासि। आऽधृषः॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 9
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजशिष्यविषयमाह।
अन्वयः
हे अग्ने यस्त्वं पुत्रो भवसि यस्ते सुखमविधत्। यः सुशेवः सखा त्वमाधृषः पासि तं त्वां तनूरुचं तं त्वां पितरमिष्टिभिरग्निरिव वर्त्तमानं भ्रात्राय शम्या नरः पान्तु ॥९॥
पदार्थः
(त्वाम्) (अग्ने) अग्निरिव वर्त्तमान राजन् (पितरम्) पालकम् (इष्टिभिः) होमैरिव सत्कारैः (नरः) मनुष्याः (त्वाम्) (भ्रात्राय) बन्धुभावाय (शम्या) कर्मणा (तनूरुचम्) तन्वो रोचन्ते यस्मै तम् (पुत्रः) पुरु दुःखाद्रक्षकः (भवसि) (यः) (ते) तव (अविधत्) विधत्ते (त्वम्) (सखा) (सुशेवः) सुष्ठु सुखप्रदः (पासि) (आधृषः) समन्ताद्धर्षणं कुर्वतः ॥९॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा होमादिना सुसेवितोऽग्नी रक्षको भवति तथा भ्रातरः सखायः पुत्रा भ्रातॄन्मित्राणि पितॄंश्च सेवन्ताम् ॥९॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजशिष्य विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (अग्ने) अग्नि के वर्त्तमान राजन् ! (यः) जो (त्वम्) आप (पुत्रः) बहुत दुखः से रक्षा करनेवाले (भवसि) होते हैं जो (ते) आपके सुख का (अविधत्) विधान करता है जो (सुशेवः) सुन्दर सुख देनेवाले (सखा) मित्र (त्वम्) आप (आधृषः) सब और से धृष्टता करनेवाले जनों को (पासि) पालते हो उन (त्वाम्) आप (तनूरुचम्) तनूरुच् अर्थात् जिनके लिये शरीर प्रकाशित होते वा उन (त्वाम्) आप (पितरम्) पालनेवाले वा (इष्टिभिः) हवनों के समान सत्कारों से अग्नि के तुल्य वर्त्तमान को (भ्रात्राय) भाईपने के लिये (शम्या) कर्म के साथ (नरः) मनुष्य पालें ॥९॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे होम आदि से अच्छा सेवन किया हुआ अग्नि रक्षा करनेवाला होता है, वैसे भ्राता मित्र पुत्रजन अपने भ्राता मित्र और पितृयों को सेवें ॥९॥
विषय
पिता, भ्राता व पुत्र
पदार्थ
१. हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (नरः) = उन्नति पथ पर चलनेवाले मनुष्य (पितरं त्वाम्) = सबके पालक आपको (इष्टिभिः) = यज्ञों से [विधन्ति] पूजते हैं । वस्तुतः प्रभु यज्ञों के द्वारा ही हमारा रक्षण करते हैं। प्रभु ने वेद के द्वारा इन यज्ञों का उपदेश देकर हमारे रक्षण की व्यवस्था की है। २. (तनूरुचम्) = हमारे शरीरों को दीप्ति प्रदान करनेवाले (त्वाम्) = आपको (शम्या) = कर्मों के द्वारा (भ्रात्राय) = भ्रातृत्व के लिए-भरण व पोषण के लिए पूजते हैं। वस्तुतः कर्मों में लगे रहना ही भरण का सर्वोत्तम साधन है। ३. (यः) = जो (ते) = आपका (अविधत्) = पूजन करता है, उसके लिए (त्वम्) = आप (पुत्रः) =' पुनाति त्रायते' पवित्र करनेवाले व रक्षा करनेवाले भवसि होते हैं। प्रभु पूजन ही पवित्रता व रक्षा का मूल साधन है। ४. (त्वम्) = आप (सखा) = उपासक के मित्र होते हुए (सुशेवः) = उत्तम सुखों के देनेवाले हैं और (आधृषः) = समन्तात् शत्रुओं के घर्षण करनेवाले होकर (पासि) = उस उपासक का रक्षण करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु 'पिता- भ्राता व पुत्र' हैं ।
विषय
उनके कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे (अग्ने) ज्ञानस्वरूप ! हे प्रकाशस्वरूप प्रभो ! हे राजन् ! (नरः) लोग (इष्टिभिः) यज्ञों और सत्कारों से (त्वां) तुझको ( पितरम् ) पालक माता पिता जानकर तेरी सेवा करते हैं । ( तनूरुचम् त्वां ) अग्नि के समान प्रत्येक देह में कान्ति स्वरूप तेरी (शम्या) उत्तम कर्मानुष्ठान से ( भ्रात्राय ) भाई के समान बन्धुता उत्पन्न करने के लिये सेवा करते हैं । (यः ते अविधत्) जो तेरी अच्छी प्रकार से सेवा करता है तू उसका ( पुत्रः भवसि ) पुत्र के समान, बहुतों का पालक, आश्रय, प्रिय और सहायक हो जाता है। (त्वं सखा) तू ही सखा (सुशेवः) तू ही उत्तम सुख देने वाला, होकर (आधृषः) तिरस्कार और बलात्कार करने वालों से उसकी (पासि) रक्षा करता, उसे बचाता है। और राजा देह में तेजस्वी या विस्तृत राष्ट्र में शोभायमान होने से ‘तनूरुच’ है ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
आङ्गिरसः शौनहोत्रो भार्गवो गृत्समद ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१ पङ्क्तिः । ९ भुरिक् पक्तिः । १३ स्वराट् पङ्क्तिः । २, १५ विराड् जगती । १६ निचृज्जगती । ३, ५, ८, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ६, ११, १२, १४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ७ विराट् त्रिष्टुप् । षोडशर्चं सूक्तम ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसा होमातील अग्नी रक्षण करतो, तसे बंधू, मित्र, पुत्रांनी आपल्या बंधू, मित्र, पितरांचा स्वीकार करावा. ॥ ९ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, lord of light and glory, ruler of the world, people come to you as father, sustainer and protector, and they do honour and homage to you with yajnic acts of creation and development. They come to you as brother with love and peace at heart for the sake of friendship and fraternity as they see in you the glow of health and grace of the body politic. You act as son of the mother earth and her people as saviour from want and suffering and protector against lawless bullies and destructive terrorists. O lord of law and power, friend of humanity, noble giver of peace and prosperity, whoever honours and obeys you and the law, you save, protect and advance in freedom, peace and prosperity against all fear and evil.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The theme of rulers is mentioned.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O Agni ! you protect us like-fire and are our ruler One who sets his happiness in accordance with your dictates, you become friendly to him. Those who violate your rules, you punish them. The gentlemen should treat their brothern under protective cover and should respect them with gifts. This is possible only through your actions.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Here is a simile. As fire in the Yajna protects all, the same way friends sons and brothers should behave with mutual love.
Foot Notes
(भ्रात्नाय ) बन्धुभावाय = For spirit of brotherhood. (आद्यृष:) समन्ताद्धर्षणं कुर्वतः = Protecting from all sides.
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