ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 1/ मन्त्र 13
ऋषिः - आङ्गिरसः शौनहोत्रो भार्गवो गृत्समदः
देवता - अग्निः
छन्दः - स्वराट्पङ्क्ति
स्वरः - पञ्चमः
त्वाम॑ग्न आदि॒त्यास॑ आ॒स्यं१॒॑त्वां जि॒ह्वां शुच॑यश्चक्रिरे कवे। त्वां रा॑ति॒षाचो॑ अध्व॒रेषु॑ सश्चिरे॒ त्वे दे॒वा ह॒विर॑द॒न्त्याहु॑तम्॥
स्वर सहित पद पाठत्वाम् । अ॒ग्ने॒ । आदि॒त्यासः॑ । आ॒स्य॑म् । त्वाम् । जि॒ह्वाम् । शुच॑यः । च॒क्रि॒रे॒ । क॒वे॒ । त्वाम् । रा॒ति॒ऽसाचः॑ । अ॒ध्व॒रेषु॑ । स॒श्चि॒रे॒ । त्वे इति॑ । दे॒वाः । ह॒विः । अ॒द॒न्ति॒ । आऽहु॑तम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वामग्न आदित्यास आस्यं१त्वां जिह्वां शुचयश्चक्रिरे कवे। त्वां रातिषाचो अध्वरेषु सश्चिरे त्वे देवा हविरदन्त्याहुतम्॥
स्वर रहित पद पाठत्वाम्। अग्ने। आदित्यासः। आस्यम्। त्वाम्। जिह्वाम्। शुचयः। चक्रिरे। कवे। त्वाम्। रातिऽसाचः। अध्वरेषु। सश्चिरे। त्वे इति। देवाः। हविः। अदन्ति। आऽहुतम्॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 13
अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
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अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे कवेऽग्ने सूर्यमादित्यास इव यं त्वामास्यं शुचयस्त्वां जिह्वामिव चक्रिरेऽध्वरेषु रातिषाचस्त्वां सश्चिरे यस्मिन् त्वे वर्त्तमाना देवा आहुतं हविरदन्ति स त्वमस्माकमध्यापको भव ॥१३॥
पदार्थः
(त्वाम्) (अग्ने) अग्निवद्वर्त्तमान आप्त विद्वन् (आदित्यासः) द्वादश मासाइव विद्यार्थिनः (आस्यम्) मुखमिव प्रमुखम् (त्वाम्) (जिह्वाम्) वाणीम् (शुचयः) पवित्राः (चक्रिरे) कुर्वन्ति (कवे) सकलसाङोगपाङ्गवेदवित् (त्वाम्) (रातिषाचः) दानं सेवमानाः (अध्वेरेषु) अहिंसनीयेषु व्यवहारेषु (सश्चिरे) समवयन्ति (त्वे) त्वयि (देवाः) विद्वांसः (हविः) अत्तुमर्हम् (अदन्ति) आहुतम् समन्ताद्गृहीतम् ॥१३॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा संवत्सरमाश्रित्य मासा मुखमाश्रित्य देहपुष्टिर्जिह्वां समाश्रित्य रसविज्ञानं यज्ञं प्राप्य विद्वत्सत्कार उत्तममन्नं प्राप्य रुचिश्च जायते तथाप्तानध्यापकानाश्रित्य मनुष्याः शुभगुणलक्षणा जायन्ते ॥१३॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है ।
पदार्थ
हे (कवे) समस्त साङ्गोपाङ्ग वेद के जाननेवाले (अग्ने) अग्नि के समान वर्त्तमान विद्वन् ! (आदित्यासः) बारह महीना जैसे सूर्य्य को वैसे विद्यार्थी जन जिन (त्वाम्) आपको (आस्यम्) मुख के समान अग्रगन्ता और (शुचयः) पवित्र शुद्धात्मा जन (त्वाम्) आपको (जिह्वाम्) वाणीरूप (चक्रिरे) कर रहे मान रहे हैं। तथा (अध्वरेषु) न नष्ट करने योग्य व्यवहारों में (रातिषाचः) दान के सेवनेवाले जन (त्वाम्) आपको (सश्चिरे) सम्यक् प्रकार से मिलते हैं। (त्वे) तुम्हारे होते (देवाः) विद्वान् जन ! (आहुतम्) सब ओर से ग्रहण किये हुए (हविः) भक्षण करने योग्य पदार्थ को (अदन्ति) खाते हैं। सो आप हमारे अध्यापक हूजिये ॥१३॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे संवत्सर का आश्रय लेकर महीने मुख का आश्रय लेकर शरीर की पुष्टि जिह्वा के आश्रय से रस का विज्ञान यज्ञ को प्राप्त हो विद्वानों के सत्कार और उत्तम अन्न को पाकर रुचि होती है, वैसे आप्तशास्त्रज्ञ धर्मात्मा विद्वानों को प्राप्त होकर मनुष्य शुभगुणलक्षणयुक्त होते हैं ॥१३॥
विषय
प्रभु ही हमारे आस्य व जिह्वा हैं
पदार्थ
१. (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (त्वाम्) = आपको ही (आदित्यासः) = सब गुणो का आदान करनेवाले देव (आस्यं चक्रिरे) = अपना मुख बनाते हैं । हे कवे क्रान्तप्रज्ञ प्रभो ! (त्वाम्) = आपको ही (शुचयः) = ये (पवित्रान्त:) = करणवाले देव (जिह्वां चक्रिरे) = अपनी जिह्वा बनाते हैं। आपको ही अपना मुख, आपको ही अपनी जिह्वा समझते हैं, अर्थात् इन खानपान की क्रियाओं को भी आपकी शक्ति से ही होता हुआ जानते हैं । २. (रातिषाच:) = दान से मेलवाले, अर्थात् सदा दान देनेवाले लोग (अध्वरेषु) = यज्ञों में (त्वाम्) = आपका ही (सश्चिरे) = सेवन करते हैं। (त्वे) = आप में ही (आहुतम्) = आहुति रूपेण डाली गयी (हविः) = हवि को (देवाः) = देव (अदन्ति) = खाते हैं। जब मनुष्य त्याग की वृत्तिवाला होता है तो यज्ञ को अपना पाता है। इन यज्ञों के द्वारा वह प्रभु का उपासन करता है। यज्ञ भी तो प्रभु द्वारा ही हो पाते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ – वस्तुतः खानपान आदि भौतिक क्रियाओं और यज्ञादि अध्यात्म क्रियाएँ प्रभु- शक्ति से ही हुआ करती हैं ।
विषय
उनके कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( अग्ने ) अग्ने ! विद्वन् ! ( आदित्यासः ) अदिति माता पृथिवी के पुत्र प्रजागण, पृथिवी के स्वामी तेजस्वी राजा गण, और ‘अदिति’ अखण्ड ब्रह्म और अविनाशिनी वेद वाणी के उपासक जन ( त्वाम् ) तुझको (आस्यं चक्रिरे ) अपना मुख बना लेते हैं, तुझे अपना प्रमुख, अपना प्रतिनिधि और आदेश देने वाला नियत कर लेते हैं और (शुचयः) शुद्ध चित्त वाले जन, हे ( कवे ) विद्वन् ! मेधाविन् ! ( त्वां जिह्वां चक्रिरे ) तुझे अपनी जिह्वा, अर्थात् वाणी बना लेते हैं । अर्थात् तेरी ही वाणी उनके अभिप्राय को स्पष्ट करे यह उनको अभिमत होता है। राजा लोगों के मुख और वाणी विद्वान् दूत होते हैं । ( रातिषाचः ) दान आदि सत्कर्मों में स्थित लोग भी ( अध्वरेषु ) हिंसादि से रहित प्रजा पालन आदि उत्तम कार्यों में, यज्ञों में अग्नि के समान तेजस्वी ( त्वां ) तुझको ही ( सश्चिरे ) प्राप्त होते हैं और ( देवाः ) विद्वान् लोग ( त्वे ) तेरे अधीन रहकर ही ( आहुतम् ) सब प्रकार से प्राप्त ( हविः ) अन्न धन ऐश्वर्यादि का ही ( अदन्ति ) भोग करते हैं। यज्ञ पक्ष में अग्नि, जल आदि दिव्य पदार्थ अग्नि में आहुति किये पदार्थ को सूक्ष्म रूप से ग्रहण करते हैं । आदित्य की किरणें भी अग्नि ( अर्थात् ताप ) के द्वारा ही जल सुखाने या पी जाने का कार्य करती हैं और उसी के द्वारा (जिह्वा) जलको ले लेने का कार्य करती हैं । वे शुद्ध होने से ‘शुचि’ हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
आङ्गिरसः शौनहोत्रो भार्गवो गृत्समद ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१ पङ्क्तिः । ९ भुरिक् पक्तिः । १३ स्वराट् पङ्क्तिः । २, १५ विराड् जगती । १६ निचृज्जगती । ३, ५, ८, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ६, ११, १२, १४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ७ विराट् त्रिष्टुप् । षोडशर्चं सूक्तम ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे संवत्सराच्या आश्रयाने महिने, मुखाच्या आश्रयाने शरीराची पुष्टी, जिह्वेच्या आश्रयाने रसविज्ञान, यज्ञामुळे विद्वानांचा सत्कार व उत्तम अन्नप्राप्तीने रुची निर्माण होते, तसे शास्त्रज्ञ, धर्मात्मा, विद्वानांच्या आश्रयाने माणसे शुभगुणयुक्त होतात. ॥ १३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Agni, lord of the fire of life, knowledge and vision, poet of nature, humanity and divinity, the Adityas, devotees of light and learning brilliant as the sun in the zodiacs, listen to you as the mouthpiece of omniscience. Pure and innocent souls in search of truth regard you as the very tongue of divine will and vision. Liberal powers of fragrant favours and generosity seek and follow you in yajnas of love and non-violence. And while you are there, bright and blazing, the brilliancies of nature and humanity receive and enjoy the gifts of oblations offered into the fire.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes of a scholar are repeated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O scholar ! you know all the Vedas and their branches, and are powerful like the Agni (fire) and sun. As the sun creates twelve months and six seasons regularly, you are also a spokesman of your student communities. The holy persons accept your versions and speech, seen in the sacrificial and contributory activities. They meet you fairly well and accept only honest offerings. Be ( you ) our teacher.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Here is a simile. The sun creates months and seasons. Likewise, the scholar disseminate true teachings through their speech and Yajna.
Foot Notes
(आदित्यासः) द्वादश मासा इव विद्यार्थिनः = The students comparable with twelve months. (आस्यम्) मुखमिव प्रमुखम् = Spokesman or mouthpiece. (कवे) सकलसाङ्गोपाङ्गवेदवित् = Knowing the Vedas with all branches. (रातिसाच:) दानं सेवमाना: = Accepting donations.
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