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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 1/ मन्त्र 8
    ऋषिः - आङ्गिरसः शौनहोत्रो भार्गवो गृत्समदः देवता - अग्निः छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्वाम॑ग्ने॒ दम॒ आ वि॒श्पतिं॒ विश॒स्त्वां राजा॑नं सुवि॒दत्र॑मृञ्जते। त्वं विश्वा॑नि स्वनीक पत्यसे॒ त्वं स॒हस्रा॑णि श॒ता दश॒ प्रति॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वाम् । अ॒ग्ने॒ । दमे॑ । आ । वि॒श्पति॑म् । विशः॑ । त्वाम् । राजा॑नम् । सु॒ऽवि॒दत्र॑म् । ऋ॒ञ्ज॒ते॒ । त्वम् । विश्वा॑नि । सु॒ऽअ॒नी॒क॒ । प॒त्य॒से॒ । त्वम् । स॒हस्रा॑णि । श॒ता । दश॑ । प्रति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वामग्ने दम आ विश्पतिं विशस्त्वां राजानं सुविदत्रमृञ्जते। त्वं विश्वानि स्वनीक पत्यसे त्वं सहस्राणि शता दश प्रति॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वाम्। अग्ने। दमे। आ। विश्पतिम्। विशः। त्वाम्। राजानम्। सुऽविदत्रम्। ऋञ्जते। त्वम्। विश्वानि। सुऽअनीक। पत्यसे। त्वम्। सहस्राणि। शता। दश। प्रति॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 8
    अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 18; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे अग्ने विश्पतिं त्वां विशो दमे आ ञ्जते सुविदत्रं त्वां राजानमृञ्जते। हे स्वनीक त्वं विश्वानि पत्यसे त्वं सहस्राणि शता दश प्रति पत्यसे ॥८॥

    पदार्थः

    (त्वाम्) (अग्ने) अग्निरिव (दमे) निजगृहे (आ) समन्तात् (विश्पतिम्) प्रजापालकम् (विशः) प्रजाः (त्वाम्) (राजानम्) स्वस्वामिनम् (सुविदत्रम्) सुष्ठुदातारम् (ञ्जते) प्रसाध्नुवन्ति। अत्र व्यत्ययेनात्मनेपदमेकवचनञ्च ञ्जतिः प्रसाधनकर्मा० निघं० २। ११ (त्वम्) (विश्वानि) सर्वाणि (स्वनीक) शोभनमनीकं सेना यस्य तत्सम्बुद्धौ (पत्यसे) पतिभावमाचरसि (त्वम्) (सहस्राणि) (शता) शतानि (दश) (प्रति) ॥८॥

    भावार्थः

    स एव राजा भवितुर्महति यं सर्वाः प्रजाः स्वीकुर्य्युः। स एव सैनापत्यमर्हति यो दशभिः शतैः सहस्रैश्च वीरैः सह योद्धुं शक्नोति ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के समान प्रतापवान् (विश्पतिम्) प्रजा की पालना करनेवाले ! (त्वाम्) (आपको) (विशः) प्रजाजन (दमे) निज घर में (आञ्जते) सब और से प्रसिद्ध करते हैं अर्थात् प्रजापति मानते हैं। और (सुविदत्रम्) सुन्दर देनेवाले (त्वाम्) (आपको) (राजानम्) अपना स्वामी प्रसिद्ध करते हैं। हे (स्वनीक) सुन्दर सेना रखनेवाले ! (त्वम्) आप (विश्वानि) समस्त पदार्थों को (पत्यसे) पतिभाव को प्राप्त होते हैं। और (त्वम्) आप (सहस्राणि) (सहस्रों) (शता) सैकड़ों और (दश) दहाइयों के (प्रति) प्रति पतिभाव को प्राप्त होते हैं ॥८॥

    भावार्थ

    वही राजा होने योग्य है, जिसको समस्त प्रजाजन स्वीकार करें। वही सेनापति होने को योग्य है, जो दश वा सौ वा सहस्र वीरों के साथ युद्ध कर सकता है ॥८॥

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    विषय

    अनन्त तेजःपुञ्ज प्रभु

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (विश्पतिम्) = प्रजाओं के पालक (त्वाम्) = आपको (विशः) = प्रजाएँ (दमे) = इस शरीरगृह में (आऋञ्जते) = प्रसाधित करती हैं (त्वाम्) = उन आपको, जो आप (राजानम्) = सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड के व्यवस्थापक [Regulator] हैं, तथा (सुविदत्रम्) = उत्तम ज्ञान के द्वारा त्राण करनेवाले हैं, अथवा 'सुधन'-[विद् लाभे] वाले हैं । २. हे (स्वनीक) = उत्तम बल व दीप्तिवाले प्रभो ! आप [अनीक Splendour, brilliance, form तेजस्] (विश्वानि) = सम्पूर्ण बलों व दीप्तियों के (पत्यसे) = ईश्वर हैं । (त्वम्) = आप (सहस्राणि) = हज़ारों (शता) = सैकड़ों व दश-दसियों, अथवा 'दशशता सहस्राणि '= १०००००० तेजों के (प्रति) = प्रतिनिधि हो । 'दिवि सूर्यसहस्रस्य भवेद् युगपदुत्थिता- यदि भाः सदृशी सा स्याद् भासस्तस्य महात्मनः' सहस्रशः सूर्यों के तेज के समान प्रभु का तेज है । वस्तुत: सब पिण्डों को प्रभु ही तो दीप्ति प्राप्त करानेवाले हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ – हे प्रभो! आप ही रक्षक हो-सुविदत्र हो- तेज:पुञ्ज हो ।

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    विषय

    उनके कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने ) अग्रणी नायक ! सूर्य के समान तेजस्वी राजन् ! ( विशः ) प्रजाएं ( त्वां ) तुझको ( दमे ) दमन कार्य में ( विश्पतिं ) प्रजा पालक (ऋञ्जते) बनाती हैं । और वे ही ( त्वां ) तुझको (सुविदत्रम् ) उत्तम दानशील, उत्तम प्राप्त ऐश्वर्य का रक्षक, उत्तम ज्ञान का रक्षक ( राजानं ) राजा (ऋञ्जते) बनाती हैं । हे (स्वनीक) सौम्य मुख ! हे उत्तम सैन्य के स्वामिन् ! ( त्वं ) तू (विश्वानि) सब पदार्थों का ( पत्यसे ) स्वामी है । और तू ( सहस्राणि दशशता प्रति ) दस सौ हज़ार अर्थात् दस लाख १००००००, सैन्यों पर भी ( पत्यसे ) स्वामी है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आङ्गिरसः शौनहोत्रो भार्गवो गृत्समद ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१ पङ्क्तिः । ९ भुरिक् पक्तिः । १३ स्वराट् पङ्क्तिः । २, १५ विराड् जगती । १६ निचृज्जगती । ३, ५, ८, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ६, ११, १२, १४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ७ विराट् त्रिष्टुप् । षोडशर्चं सूक्तम ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    ज्याला संपूर्ण प्रजा स्वीकारते तोच राजा होण्यायोग्य असतो, जो दहा, शंभर किंवा हजार वीरांबरोबर युद्ध करू शकतो तोच सेनापती होण्यायोग्य असतो. ॥ ८ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, lord of life, light and power of the world, the people in their home, in individual, familial and social discipline, do honour to you, ruler, sustainer and protector of humanity and generous giver of the wealth of life for all. Gracious lord of power and fighting force for the protection and advancement of humanity, you rule and sustain all alike with love and favour to tens and hundreds and thousands of the units of life and society — wherever they be.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The theme of scientists is further developed.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O fire – like majestic scientist ! you protect the people and therefore they admire you throughout. You are a donor, and therefore are accepted as superior. With your army you become owner of all articles, and immeasurable wealth.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The ruler should be acceptable to the masses of his kingdom. Likewise, a commander should be capable to face the onslaught of ten, hundred even of a thousand warriors.

    Foot Notes

    (विश्वपतिम् ) प्रजापालकम् (ऋजते) प्रसाध्नुवन्ति । ऋजति प्रसाधनकर्मा (N.G. 2-11) = Protector of the people. (स्वनीक) शोभनमनीकं सेना यस्य तत्संबुद्धौ । = Having a brilliant army.

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