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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 1/ मन्त्र 16
    ऋषिः - आङ्गिरसः शौनहोत्रो भार्गवो गृत्समदः देवता - अग्निः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    ये स्तो॒तृभ्यो॒ गोअ॑ग्रा॒मश्व॑पेशस॒मग्ने॑ रा॒तिमु॑पसृ॒जन्ति॑ सू॒रयः॑। अ॒स्माञ्च॒ तांश्च॒ प्र हि नेषि॒ वस्य॒ आ बृ॒हद्व॑देम वि॒दथे॑ सु॒वीराः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ये । स्तो॒तृऽभ्यः॑ । गोऽअ॑ग्राम् । अश्व॑ऽपेशसम् । अग्ने॑ । रा॒तिम् । उ॒प॒ऽसृ॒जन्ति॑ । सू॒रयः॑ । अ॒स्मान् । च॒ । तान् । च॒ । प्र । हि । नेषि॑ । वस्यः॑ । आ । बृ॒हत् । व॒दे॒म॒ । वि॒दथे॑ । सु॒ऽवीराः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    ये स्तोतृभ्यो गोअग्रामश्वपेशसमग्ने रातिमुपसृजन्ति सूरयः। अस्माञ्च तांश्च प्र हि नेषि वस्य आ बृहद्वदेम विदथे सुवीराः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    ये। स्तोतृऽभ्यः। गोऽअग्राम्। अश्वऽपेशसम्। अग्ने। रातिम्। उपऽसृजन्ति। सूरयः। अस्मान्। च। तान्। च। प्र। हि। नेषि। वस्यः। आ। बृहत्। वदेम। विदथे। सुऽवीराः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 16
    अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 6
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे अग्ने त्वं ये सूरयः स्तोतृभ्यो गोअग्रामश्वपेशसं रातिमुपसृजन्ति ताँश्चास्मांश्च वस्य आप्रणेषि हि सुवीरा वयं विदथे बृहद्वदेम ॥१६॥

    पदार्थः

    (ये) धार्मिका विद्यार्थिनः (स्तोतृभ्यः) सकलविद्याध्यापकेभ्यो विद्वद्भयः (गोअग्राम्) गावइन्द्रियाण्यग्रसराणि यस्यां ताम् (अश्वपेशसम्) शीघ्रगन्तृ पेशो रूपमिव रूपं यस्यां ताम् (अग्ने) विद्वन् (रातिम्) विद्यादानक्रियाम् (उपसृजन्ति) ददते (सूरयः) विद्याजिज्ञासवो मनुष्याः (अस्मान्) (च) (तान्) (च) (प्र) (हि) खलु (नेषि) नयसि (वस्यः) अत्युत्तमं वासःस्थानम् (आ) (बृहत्) महत् (वदेम) (विदथे) विद्यासंग्रामे (सुवीराः) उत्तमैः शौर्यादिगुणैरुपेताः॥१६॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या यथा विद्वांसः सर्वोत्तमं विद्यादानं दत्वाऽस्मानन्याँश्च विदुषः कुर्वन्ति तथाऽस्माभिरपि ते सदा प्रसादनीयाः ॥१६॥। अत्राग्निदृष्टान्तेन विद्वद्विद्यार्थिकृत्यवर्णनादेतदर्थस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिरस्तीति वेदितव्यम् ॥ इति द्वितीयमण्डले प्रथमं सूक्तमेकोनविंशो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) विद्वान् ! आप (ये) जो (सूरयः) विद्या ज्ञान चाहते हुए जन (स्तोतृभ्यः) समस्त विद्या के अध्यापक विद्वानों के लिए (गोअग्राम्) जिसमें इन्द्रिय अग्रगन्ता हों (अश्वपेशसम्) उस शीघ्रगामी प्राणी के समान रूपवाली (रातिम्) विद्यादान क्रिया को (उपसृजन्ति) देते हैं। (तान् च) उनको और (अस्माञ्च) हम लोगों को भी (वस्यः) अत्युत्तम निवासस्थान (आप्रनेषिहि) अच्छे प्रकार उत्तमता से प्राप्त करते हो इसी से (सुवीराः) उत्तम शूरतादि गुणों से युक्त हम लोग (विदथे) विवाद संग्राम में (बृहत्) बहुत (वदेम) कहें ॥१६॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो ! जैसे विद्वान् सर्वोत्तम विद्यादान देके हमको तथा औरों को विद्वान् करते हैं, वैसे हमको भी चाहिये कि उनको सदा प्रसन्न करें ॥१६॥ इस सूक्त में अग्नि के दृष्टान्त से विद्वान् और विद्यार्थियों के कृत्य का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की पिछिले सूक्तार्थ के साथ संगति समझनी चाहिये ॥ यह दूसरे मण्डल में प्रथम सूक्त और उन्नीसवाँ वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    यजमान व ऋत्विजों को स्वर्गप्राप्ति

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = परमात्मन्! ये (सूरयः) = जो ज्ञानी यज्ञशील पुरुष (स्तोतृभ्यः) = प्रभुस्तवन करनेवाले स्तोताओं के लिए (गोअग्राम्) = गौवों की है प्रधानता जिसमें (अश्वपेशसम्) = अश्वों के सौन्दर्यवाली (रातिम्) = राति को-दक्षिणा को (उपसृजन्ति) = देते हैं, अर्थात् जब यजमान स्तोताओं को उत्तम गौ या घोड़ों को प्राप्त कराते हैं तो उस समय (अस्मान् च तांश्च) = हम यजमानों को और उन ऋत्विजों को (हि) = निश्चय से (वस्यः) = उत्कृष्ट वसु की ओर-स्वर्गरूप उत्कृष्ट निवासस्थान की ओर (प्रनेषि) = ले चलते हैं। प्रभु यज्ञशील पुरुषों को स्वर्ग प्राप्त कराते हैं । २. हे प्रभो ! हम (सुवीराः) = उत्तम वीर बनकर (विदथे) = ज्ञानयज्ञों में (बृहद्वदेम) = खूब ही आपका स्तवन करें। प्रभुस्तवन करते हुए हम यज्ञिय जीवनवाले हों।

    भावार्थ

    भावार्थ - हमारा जीवन यज्ञमय हो । ज्ञानयज्ञों में हम प्रभु का स्तवन करनेवाले हों । सम्पूर्ण सूक्त प्रभु की व्यापक महिमा का प्रतिपादन कर रहा है। अगला सूक्त भी प्रभुस्तवन के उपदेश से ही प्रारम्भ होता है ।

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    विषय

    उनके कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( ये ) जो ( सूरयः ) विद्या जल से स्नान करने के इच्छुक विद्यार्थी जन, और विद्वान् पुरुष ( स्तोतृभ्यः ) स्तोता, नाना विद्याओं को उपदेश करने वाले विद्वानों के हित (गो-अग्राम्) अपनी उत्तम वाणी वा चक्षु आदि इन्द्रियों को आगे किये, सावधान, ( अश्वपेशसम् ) आशुगामी मन के उत्तम रूप वाली, मनन क्रिया से युक्त, (रातिम्) चित्त वृत्ति का दान (उपसृजन्ति) गुरुओं के अति समीप आकर करते हैं उनके प्रति सब कुछ समर्पण करते हैं और जो विद्वान् ( सूरयः ) ऐश्वर्यवान् पुरुष ( स्तोतृभ्यः ) विद्वानों को ( गो अग्राम् ) उत्तम सत्कार युक्त वाणी को आगे रखकर ( अश्वपेशसम् ) अश्व अर्थात् राजसी सम्पति का ( रातिम् उपसृजन्ति ) दान करते हैं। या जो यजमान दानी उत्तम विद्वान् भूमि, गौ, अश्व, आदि रूप दान करते हैं, हे ( अग्ने ) विद्वन् ! प्रभो ! ( अस्मान् च ) हमें और ( तान् च ) उन प्रतिग्रह देने और लेने वाले दोनों को ( हि ) निश्चय से ( वस्यः ) उत्तम ऐश्वर्य, आवास आदि, ( प्र नेषी ) प्रदान कर । हम सब ( सुवीराः ) उत्तम वीर्यवान् वीर पुत्र आदि से सम्पन्न होकर ( विदथे ) ज्ञानयज्ञ, अध्ययन, अध्यापन और संग्राम और यज्ञ के अवसर में भी ( वृहत् ) बड़े महत्त्व पूर्ण, वृद्धिकारी वचन और वेदमन्त्र रूप वृहती वेद वाणी का भी ( आ वदेम ) कहें, उच्चारण करें । अभ्यास करें और उपदेश करें । एकोनविंशो वर्गः ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आङ्गिरसः शौनहोत्रो भार्गवो गृत्समद ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१ पङ्क्तिः । ९ भुरिक् पक्तिः । १३ स्वराट् पङ्क्तिः । २, १५ विराड् जगती । १६ निचृज्जगती । ३, ५, ८, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ६, ११, १२, १४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ७ विराट् त्रिष्टुप् । षोडशर्चं सूक्तम ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो ! जसे विद्वान सर्वोत्तम विद्यादान करून आम्हाला व इतरांना विद्वान करतात तसे आम्हीही त्यांना सदैव प्रसन्न ठेवावे. ॥ १६ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, lord of light and life, to the brave and brilliant people who are keen for knowledge and come with receptive organs of perception and dynamic, responsive and brilliant intelligence with gifts of cows and leading horses to the masters of knowledge and singers of hymns, to these seekers, teachers and to us all, we pray, bring a peaceful and happy home for settlement so that we all, blest with the courage and knowledge of truth, sing in praise of your great gifts of light and generosity in our yajnic programmes.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    In the praise of scholars.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    The scholars achieve knowledge of controlling their senses. They are kind to their admirers. They spread knowledge quickly like a horse and provide good accommodation, merits and debating faculties among us. We should praise them greatly.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Like the scholars who impart knowledge and teach, we should also please them with our behavior and actions.

    Foot Notes

    (गोअग्राम् ) गाव इन्द्रियाव्यग्रसराणि यस्यां ताम् = Those who move their senses forward with a balance. (रातिम्) विद्यादानक्रियाम् = To process of teaching.

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