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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 1/ मन्त्र 15
    ऋषिः - आङ्गिरसः शौनहोत्रो भार्गवो गृत्समदः देवता - अग्निः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    त्वं तान्त्सं च॒ प्रति॑ चासि म॒ज्मनाग्ने॑ सुजात॒ प्र च॑ देव रिच्यसे। पृ॒क्षो यदत्र॑ महि॒ना वि ते॒ भुव॒दनु॒ द्यावा॑पृथि॒वी रोद॑सी उ॒भे॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वम् । तान् । सम् । च॒ । प्रति॑ । च॒ । अ॒सि॒ । म॒ज्मना॑ । अग्ने॑ । सु॒ऽजा॒त॒ । प्र । च॒ । दे॒व॒ । रि॒च्य॒से॒ । पृ॒क्षः । यत् । अत्र॑ । म॒हि॒ना । वि । ते॒ । भुव॑त् । अनु॑ । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । रोद॑सी इति॑ । उ॒भे इति॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वं तान्त्सं च प्रति चासि मज्मनाग्ने सुजात प्र च देव रिच्यसे। पृक्षो यदत्र महिना वि ते भुवदनु द्यावापृथिवी रोदसी उभे॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वम्। तान्। सम्। च। प्रति। च। असि। मज्मना। अग्ने। सुऽजात। प्र। च। देव। रिच्यसे। पृक्षः। यत्। अत्र। महिना। वि। ते। भुवत्। अनु। द्यावापृथिवी इति। रोदसी इति। उभे इति॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 15
    अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे सुजात देवाऽग्ने यस्त्वं मज्मना ताँश्च प्रति च संचासि प्ररिच्यसे च उभे रोदसी द्यावापृथिवी इव महिना यदत्र पृक्षः प्राप्तोऽसि यस्य ते तव विद्याऽनु विभुवत् स च त्वमस्माकमध्यापक उपदेशकश्च भव ॥१५॥

    पदार्थः

    (त्वम्) (तान्) निःश्रेयसाभ्युदयसाधकान्नॄन् (सम्) सङ्घाते (च) (प्रति) प्रतिनिधौ (च) असि (मज्मना) बलेन (अग्ने) विद्युद्वद्व्यतिरिक्त (सुजात) सुष्ठुप्रसिद्धे (प्र) (च) (देव) विद्यादातः (रिच्यसे) पृथग्भवसि (पृक्षः) विद्यासंपर्चनम् (यत्) (अत्र) अस्मिन् संसारे (महिना) महिम्ना (वि) (ते) तव (भुवत्) भवति (अनु) (द्यावापृथिवी) (रोदसी) रोदननिमित्ते (उभे) द्वे ॥१५॥

    भावार्थः

    यथा पावकेऽनेके गुणाः सन्ति तथा विद्वत्सेविषु धर्म्ये प्रवर्त्तमानेष्वधर्मान्निवृत्तेष्विह बहवः शुभगुणा जायन्ते ॥१५॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (सुजात) सुन्दर प्रसिद्धिमान् (देव) विद्या देनेवाले (अग्ने) बिजुली के समान सबसे अलग विद्वान् ! जो (त्वम्) आप (मज्मना) बल से वा पुरुषार्थ से (तान्) उन मनुष्यों को कि जो मोक्ष सुख और सांसारिक सुख साधनेवाले हैं। (प्रतिच) प्रतिनिधि और (सम् च) मिले हुए भी (असि) हैं। (च) और (प्ररिच्यसे) अलग होते हो और (उभे) दोनों (रोदसी) सांसारिक तुच्छ सुख के कारण रोने के निमित्त जो (द्यावापृथिवी) द्यावापृथिवी के समान (महिना) अपने महिमा से (यत्) जो (अत्र) यहाँ (पृक्षः) विद्या सम्बन्ध को भी प्राप्त हो जिन (ते) आपकी विद्या (अनु, वि, भुवत्) अनुकूल विशेषता से होती है। सो आप हमारे अध्यापक और उपदेशक हूजिये ॥१५॥

    भावार्थ

    जैसे अग्नि में अनेक गुण हैं, वैसे विद्वानों की सेवा करने और धर्म में प्रवर्त्तमान होने वाले तथा अधर्म से निवृत्त जनों में इस संसार में बहुत शुभ गुण उत्पन्न होते हैं ॥१५॥

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    विषय

    प्रभु की अद्वितीय शक्ति

    पदार्थ

    १. हे (अग्ने) = अग्रणी प्रभो ! (त्वम्) = आप (मज्मना) = अपने बल से (तान्) = गतमन्त्र में वर्णित उन सब देवों के साथ (सं) = [गच्छसि] = संगत होते हैं । वस्तुतः आपके बल से ही तो वे बलवाले होते हैं। (च) = और आप (प्रति) = सब देवों के बल के प्रतिनिधि असि हो । सब देवों का बल मिलकर एक ओर हो तो आपका बल उन सबके समान होता है। च और इतना ही नहीं, हे सुजात उत्तम विकासवाले (देव) = दिव्यगुणोंवाले प्रभो! आप बल के दृष्टिकोण से प्ररिच्यसे उन सबके बल से अधिक बलवाले हो । उनके सम्मिलित बल से आपका बल अधिक है। उन सबकी शक्तियाँ आपके तेज के अंश के कारण ही हैं । २. हे (अग्ने) = परमात्मन् ! (यद्) = जो (पृक्षः) = अन्न (अत्र) = यहाँ पृथिवीस्थ अग्नि में डाला जाता है वह (ते महिना) = आपकी ही अग्नि में स्थापित भेदक शक्ति से- (उभे) = दोनों (रोदसी) = परस्पर एक-दूसरे को आह्वान-सा करते हुए (द्यावापृथिवी) = द्युलोक और पृथिवीलोक के (अनु विभुवत्) = अनुसार व्याप्त हो जाता है। अग्नि में डाले हुए घृत आदि पदार्थ अदृश्य सूक्ष्मकणों में विभक्त होकर सारे द्युलोक व पृथिवीलोक में व्याप्त हो जाते हैं। यह भी प्रभु की ही महिमा है। प्रभु ने ही पृथ्वीस्थ अग्नि में यह अद्भुत भेदकशक्ति रखी है।

    भावार्थ

    भावार्थ - सब देवों के सम्मिलित बल से भी प्रभु का बल अधिक है। इस पृथ्वीस्थ अग्नि को प्रभु ने ही अद्भुत भेदकशक्ति प्राप्त करायी है।

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    विषय

    उनके कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( अग्ने ) प्रकाशस्वरूप, सब ज्ञानों के प्रकाशक ! ( त्वं ) तू ( तान् ) उन सबके ( सम् असि च ) साथ मिलने पर भी सबके समान है और ( प्रति असि च ) प्रत्येक के भी बराबर है । और ( मज्मना ) बल से हे ( सुजात ) उत्तम गुणों से प्रसिद्ध ! हे ( देव ) दान शील ! तेजस्विन् ! कमनीय ! तू सबसे ( प्र रिच्यसे च ) अधिक बढ़ जाता है। तू सबसे अधिक शक्तिशाली है । ( यत् अत्र) और जो (पृक्षः) पृथ्वी पर अन्न आदि नाना भोग्य पदार्थ विरुद्ध स्वभाव के जनों और पञ्च भूतों का परस्पर सम्पर्क, संगति भी इस लोक में ( ते महिना ) तेरे महान् सामर्थ्य से ही ( वि भुवत् ) विविध रूपों में उत्पन्न होता है । और ( ते अनु ) तेरे ही वश में ( उभे ) ये दोनों ( रोदसी ) सब दुष्टों को रुलाने वाले, एक दूसरे की मर्यादा को सीमित करने वाले और सर्वोपदेशप्रद ( द्यावा पृथिवी ) सूर्य और पृथिवी या सूर्य पृथिवी के समान राजा, प्रजा वर्ग या माता पिता और गुरु शिक्षक वर्ग हैं । वे भी (ते अनु) तेरे ही अधीन तेरे से उतर कर पूज्य हैं। तू सब से अधिक पूज्य है । (२) परमेश्वर उत्तम गुणों और महान कर्मों से प्रसिद्ध होने से ‘सुजात’ है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आङ्गिरसः शौनहोत्रो भार्गवो गृत्समद ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१ पङ्क्तिः । ९ भुरिक् पक्तिः । १३ स्वराट् पङ्क्तिः । २, १५ विराड् जगती । १६ निचृज्जगती । ३, ५, ८, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ६, ११, १२, १४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ७ विराट् त्रिष्टुप् । षोडशर्चं सूक्तम ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जसे अग्नीमध्ये अनेक गुण असतात तसे विद्वानाच्या सेवेत रत असलेल्या व अधर्मापासून निवृत्त असलेल्या माणसांमध्ये अनेक शुभ गुण उत्पन्न होतात. ॥ १५ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, spirit of life in existence, light of the world, brilliant, generous and universally manifestive, by virtue of your power and grandeur, you are immanent and yet transcendent. You are with all forms of existence together and with each one of them separately, and yet you are distinct and superior and rise above them all. Whatever abundance of life and wealth is there, exists here and prospers by virtue of your power and grandeur. Even the heaven and earth and the intermediate regions of the skies are great and generous by virtue of your power and splendour.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of scholars is further developed.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O scholars ! you are reputed and handsome and shine like electricity. With your power and industriousness, you get salvation, happiness and other delights for human beings. You also treat their representatives same way. On contrary, the wicked weep for their misdeeds. With your glory and excellent teaching, we request you to be our teacher.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    The scholars are virtuous like fire. They dissuade people from wrong paths and ingrain virtues.

    Foot Notes

    The scholars are virtuous like fire. They dissuade people from wrong paths and ingrain virtues.

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