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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 1 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 1/ मन्त्र 14
    ऋषिः - आङ्गिरसः शौनहोत्रो भार्गवो गृत्समदः देवता - अग्निः छन्दः - भुरिक्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    त्वे अ॑ग्ने॒ विश्वे॑ अ॒मृता॑सो अ॒द्रुह॑ आ॒सा दे॒वा ह॒विर॑द॒न्त्याहु॑तम्। त्वया॒ मर्ता॑सः स्वदन्त आसु॒तिं त्वं गर्भो॑ वी॒रुधां॑ जज्ञिषे॒ शुचिः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वे इति॑ । अ॒ग्ने॒ । विश्वे॑ । अ॒मृता॑सः । अ॒द्रुहः॑ । आ॒सा । दे॒वाः । ह॒विः । अ॒द॒न्ति॒ । आऽहु॑तम् । त्वया॑ । मर्ता॑सः । स्व॒द॒न्ते॒ । आ॒ऽसु॒तिम् । त्वम् । गर्भः॑ । वी॒रुधा॑म् । ज॒ज्ञि॒षे॒ । शुचिः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वे अग्ने विश्वे अमृतासो अद्रुह आसा देवा हविरदन्त्याहुतम्। त्वया मर्तासः स्वदन्त आसुतिं त्वं गर्भो वीरुधां जज्ञिषे शुचिः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वे इति। अग्ने। विश्वे। अमृतासः। अद्रुहः। आसा। देवाः। हविः। अदन्ति। आऽहुतम्। त्वया। मर्तासः। स्वदन्ते। आऽसुतिम्। त्वम्। गर्भः। वीरुधाम्। जज्ञिषे। शुचिः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 1; मन्त्र » 14
    अष्टक » 2; अध्याय » 5; वर्ग » 19; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे अग्ने त्वे सत्यद्रुहो विश्वेऽमृतासो देवा आहुत मासा हविरदन्ति येन त्वयासा स्वदन्तो मर्त्तास आसुतिं भजन्ते यस्त्वं वीरुधां गर्भोऽग्निवद्गर्भो भूत्वा शुचिस्सन् जज्ञिषे तं त्वां विद्याप्राप्तय आश्रयन्ति ॥१४॥

    पदार्थः

    (त्वे) त्वयि (अग्ने) अग्निवत् स्वप्रकाशक (विश्वे) सर्वे (अमृतासः) स्वस्वरूपेण जन्ममरणरहिता जीवात्मानः (अद्रुहः) त्यक्तद्रोहाः (आसा) मुखेन। अत्र छान्दसो वर्णलोप इति न लोपः। (देवाः) विद्वांसः (हविः) (अदन्ति) (आहुतम्) (त्वया) (मर्त्तासः) शरीरयोगेन जन्ममरणसहिताः (स्वदन्ते) सुष्ठु भुञ्जानाः (आसुतिम्) समन्ताज्जन्मभावम् (त्वम्) (गर्भः) कुक्षिस्थः (वीरुधाम्) लतावृक्षादीनां मध्ये (जज्ञिषे) जायसे (शुचिः) पवित्रः ॥१४॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। यथा सर्वे जीवा विद्यमानेऽग्नौ सति जीवितुं भोक्तुं चार्हन्ति तथाऽऽप्तेष्वध्यापकेषु सत्सु पवित्रा रागद्वेषरहिता भूत्वा ऐहिकं पारमार्थिकं सुखं प्राप्य मुक्तावानन्दिता जन्मान्तरसंस्कारे पवित्रा जायन्ते ॥१४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के समान प्रकाशमान ! आप (त्वे) तुम्हारे होते (अद्रुहः) द्रोह छोड़े हुए (विश्वे) सब (अमृतासः) अपने-अपने रूप से जन्म-मरण रहित जीवात्मा जिनके वे (देवाः) विद्वान् जन (आहुतम्) प्राप्त होने योग्य पदार्थ को (आसा) मुख से (हविः) जो कि विद्वानों के खाने योग्य है (अदन्ति) खाते हैं तथा जिन (त्वया) आपकी प्रेरणा से (स्वदन्ते) सुन्दरता से भोजन करते हुए (मर्त्तासः) शरीर के योग से जन्म-मरण सहित मनुष्य (आसुतिम्) जन्मयोग अर्थात् विद्या जन्म का संयोग सेवते हैं। जो (त्वम्) आप (वीरुधाम्) लता वृक्षादिकों के बीच (गर्भः) गर्भरूप अग्नि जैसे वैसे हो कर (शुचिः) पवित्र होते हुए (जज्ञिषे) प्रसिद्ध होते हैं। उन आपका विद्या की प्राप्ति के लिये लोग आश्रय करते हैं ॥१४॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जैसे सब जीव विद्यमान अग्नि के होते जीने और भोजन करने को योग्य होते हैं, वैसे शास्त्रज्ञ धर्मात्मा पढ़ानेवालों के होते पवित्र राग-द्वेष रहित सांसारिक और पारमार्थिक सुख को प्राप्त हुए मुक्ति के बीच आनन्द करते हुए जन्मान्तर संस्कार में पवित्र होते हैं ॥१४॥

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    विषय

    प्रभु से ही सब अन्न-रस प्राप्त होता है

    पदार्थ

    १. (अग्ने) = परमात्मन् ! (विश्वे) = सारे (अमृतासः) = विषयवासनाओं के पीछे न मरनेवाले (अद्रुहः) = द्रोह की वृत्ति से रहित (देवाः) = दिव्यगुणोंवाले पुरुष (त्वे आहुतम्) = आपमें आहुत की गयी (आसा) = मुख से (अदन्ति) = खाते हैं, सदा त्यागपूर्व अदन करते हैं- यज्ञशेष को खाते (हविः) = हवि को हैं और वस्तुतः यह यज्ञशेष का सेवन ही इनके देवत्व का रहस्य है। २. (मर्तासः) = मनुष्य (त्वया) = आपसे ही (आसुतिम्) = ओषधियों के रस को अथवा पशुओं के दूध को (स्वदन्ते) = आस्वादित करते हैं। (शुचिः) = पूर्ण पवित्र व देदीप्यमान आप ही (वीरुधाम्) = सब लताओं के (गर्भः) = गर्भस्थानीय (जज्ञिषे) = होते हैं। 'पुष्णामि ओषधीः सर्वा सोमो भूत्वा रसात्मकः'=रसात्मक सोम के रूप में होकर आप ही सब ओषधियों का पोषण करते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ - प्रभु ही सब अन्न-रस को प्राप्त करानेवाले हैं। सब ओषधियों का पोषण प्रभु ही करते हैं ।

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    विषय

    उनके कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे (अग्ने) अग्नि के समान प्रकाशवन् ! विद्वन् ! राजन् ! प्रभो ! ( त्वे ) तेरे अधीन रहकर ( विश्वे ) समस्त ( अमृतासः ) अविनाशी, चिरंजीवी, ( अद्रुहः ) परस्पर द्रोह न करते हुए, ( आसा ) तुझ अपने प्रमुख पुरुष के साथ या तुझ द्वारा (आहुतम्) प्राप्त हुए ( हविः ) अन्नादि ग्राह्य उपात्त पदार्थों का ( अदन्ति ) भोग करते हैं । और ( त्वया ) तेरे द्वारा ही ( मर्त्तासः ) सब मनुष्य ( आसुतिं ) ऐश्वर्य का ( स्वदन्त ) भोग करते हैं । ( त्वं ) तू ही ( वीरुधां ) लता वनस्पति आदि के बीच में अग्नि के समान ( वीरुधां गर्भः ) विशेष रूप से, विविध रूप से शत्रु दलों को आक्रमण करने से रोकने वाली तथा (वीरुधां) बलवीर्य धारण करने वाली सेनाओं और प्रजाओं का ( गर्भः ) ग्रहण, स्वीकार और वश करने हारा होकर ( शुचिः ) शुद्ध पवित्र, रूप में ( जज्ञिषे ) प्रकट हो । ( २ ) हे परमेश्वर ! ( त्वया मर्त्तासः आसुतिं स्वदन्तः ) तेरे द्वारा जीवगण व्यवस्थित होकर नाना ऐश्वर्य या ( आसुतिं ) जन्म लेकर जीवन धारण के सुख दुख का भोग करते हैं । (वीरुधां गर्भः) बलवीर्य धारक सूर्यादि के बीच में बल रूप से व्यापक, या विविध रूपों में उत्पन्न होने वाले जीवों में व्यापक, या उनको अपने शरण में लेने हारा है। शेष पूर्ववत्—

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    आङ्गिरसः शौनहोत्रो भार्गवो गृत्समद ऋषिः ॥ अग्निर्देवता ॥ छन्दः—१ पङ्क्तिः । ९ भुरिक् पक्तिः । १३ स्वराट् पङ्क्तिः । २, १५ विराड् जगती । १६ निचृज्जगती । ३, ५, ८, १० निचृत् त्रिष्टुप् । ४, ६, ११, १२, १४ भुरिक् त्रिष्टुप् । ७ विराट् त्रिष्टुप् । षोडशर्चं सूक्तम ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जसे अग्नीमुळे सर्व जीव जगतात, अन्न खातात तसे शास्त्रज्ञ, धर्मात्मा, अध्यापक असतील तर पवित्र रागद्वेषरहित सांसारिक, पारमार्थिक सुख प्राप्त करून मुक्तीमध्ये आनंद भोगता येतो व जन्मजन्मान्तराचे संस्कार पवित्र होतात. ॥ १४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Agni, immortal spirit and vital power of life, by virtue of your presence and action, all the immortal souls and brilliancies of nature, full of love, free from hate and enmity, with their receptive organs receive their share of food through the oblations offered into the fire. By you only, the mortals among humanity receive their drink of soma for immortality. You are the essence and vitality of the herbs and trees, and in them and through them, you manifest and rise ever pure and brilliant.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The duties of scholars referred.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O scholars ! like fire you keep the souls under sacrificial spirit and fearlessness. You eat and speak properly. The human beings after their birth and living a decent life, become reputed and pure like the fire purifies shrubs and plants.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the persons leave and eat with the help of energy, likewise, the learned scholars become pure enjoying a dedicated life, free from malice or enmity.

    Foot Notes

    (अमृतासः) स्वस्वरूपेण जन्ममरणरहिता जीवात्मानः = The souls free from birth and death by their nature. ( मर्तास:) शरीरयोगेन जन्ममरणसहिताः = Persons having no association of physical birth or death.

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