ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 14/ मन्त्र 10
अध्व॑र्यवः॒ पय॒सोध॒र्यथा॒ गोः सोमे॑भिरीं पृणता भो॒जमिन्द्र॑म्। वेदा॒हम॑स्य॒ निभृ॑तं म ए॒तद्दित्स॑न्तं॒ भूयो॑ यज॒तश्चि॑केत॥
स्वर सहित पद पाठअध्व॑र्यवः । पय॑सा । ऊधः॑ । यथा॑ । गोः । सोमे॑भिः । ई॒म् । पृ॒ण॒त॒ । भो॒जम् । इन्द्र॑म् । वेद॑ । अ॒हम् । अ॒स्य॒ । निऽभृ॑तम् । मे॒ । ए॒तत् । दित्स॑न्तम् । भूयः॑ । य॒ज॒तः । चि॒के॒त॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अध्वर्यवः पयसोधर्यथा गोः सोमेभिरीं पृणता भोजमिन्द्रम्। वेदाहमस्य निभृतं म एतद्दित्सन्तं भूयो यजतश्चिकेत॥
स्वर रहित पद पाठअध्वर्यवः। पयसा। ऊधः। यथा। गोः। सोमेभिः। ईम्। पृणत। भोजम्। इन्द्रम्। वेद। अहम्। अस्य। निऽभृतम्। मे। एतत्। दित्सन्तम्। भूयः। यजतः। चिकेत॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 14; मन्त्र » 10
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
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अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे अध्वर्यवो यूयं यथा गोः पयसोधस्तथा सोमेभिरीं पीत्वा पृणत यथा भोजमिन्द्रमहं वेदाऽस्य निभृतं जानीयां तथा यूयं विजानीत यं म एतद्दित्सन्तं यजतश्च यथाहं वेद तथैतं भूयो यश्चिकेत तं पृणत ॥१०॥
पदार्थः
(अध्वर्यवः) महौषधिनिष्पादकाः (पयसा) दुग्धेन (ऊधः) स्तनाधारः (यथा) (गोः) धेनोः (सोमेभिः) सोमाद्योषधिभीर्भक्षिताभिः (ईम्) जलम् (पृणत) तृप्यत। अत्रापि दीर्घः (भोजम्) भोक्तारम् (इन्द्रम्) ऐश्वर्यवन्तम् (वेद) जानीयाम् (अहम्) (अस्य) (निभृतम्) निश्चितपोषणम् (मे) मम (एतत्) (दित्सन्तम्) दातुमिच्छन्तम् (भूयः) बहु (यजतः) सङ्गतान् (चिकेत) विजानीयात् ॥१०॥
भावार्थः
अत्रोपमावाचकलुप्तोपमालङ्कारौ। मनुष्या यथा गावो घासादिकं जग्ध्वा दुग्धं जनयन्ति तथा महौषधीनां सङ्ग्रहं कृत्वा श्रेष्ठान्यौषधानि निष्पादयेयुः ॥१०॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (अध्वर्यवः) बड़ी-२ ओषधियों के सिद्ध करनेवाले जनो तुम (यथा) जैसे (गोः) गौ के (पयसा) दूध से (ऊधः) ऐन भरा होता है वैसे (सोमेभिः) खाई हुई सोमादि ओषधियों के साथ (ईम्) जल को पी के (पृणत) तृप्त होओ जैसे (भोजम्) भोजन करनेवाले (इन्द्रम्) ऐश्वर्यवान् को (अहम्) मैं (वेद) जानूँ (अस्य) इसकी (निभृतम्) निश्चित पुष्टि को जानूँ वैसे तुम जानो जिस (मे) मेरे (एतत्) इस पूर्वोक्त पदार्थ के (दित्सन्तम्) देनेवाले का (यजतः) संग करते हुए जनों को जैसे मैं जानूँ वैसे इस विषय को (भूयः) बार-२ जो (चिकेत) जाने उसको तृप्त करो ॥१०॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमा और वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। मनुष्य जैसे गौयें घास आदि को खा कर दूध उत्पन्न करती हैं, वैसे महौषधियों का संग्रह कर श्रेष्ठ औषधियों को सिद्ध करें ॥१०॥
विषय
सोम की पोषणशक्ति
पदार्थ
१. (अध्वर्यवः) = हे यज्ञशील लोगो! (यथा) = जैसे (गोः ऊधः) = गौ के ऊधस् को (पयसा) = दूध से पूरित करते हैं उसी प्रकार इस (भोजम्) = पालन करनेवाले (इन्द्रम्) = प्रभु को (ईम्) = निश्चय से (सोमेभिः) = सोमों से-सोमकणों से- (पृणता) = पूरित करो। जितना जितना हम सोम का रक्षण करते हैं उतना उतना ही प्रभु को प्रीणित करने वाले बनते हैं । २. (अहम्) = मैं (अस्य) = इस सोम के (मे एतत्) = मेरे इस (निभृतम्) = निश्चय से भरण व पोषण रूप कर्म को वेद जानता हूँ । शरीर में धारण किया हुआ सोम निश्चय से हमारा पोषण करता है और हमें रोगादि से बचाता है। ३. (यजतः) = यष्टव्य उपासना योग्य प्रभु (दित्सन्तम्) = दान की इच्छावाले पुरुष को (भूयः) = खूब चिकेत=जानता है, अर्थात् उसका बहुत ही ध्यान करता है। यह दान की वृत्तिवाला पुरुष भोगों में न फंसकर सोमरक्षण करनेवाला होता है और अतएव प्रभु का प्रिय होता है ।
भावार्थ
भावार्थ - शरीर में रक्षित सोम शरीर का उचित भरण करता है। 'सोमो रक्षति रक्षितः' ।
विषय
शत्रु दमन, प्रजाजनों और राजपुरुषों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( अध्वर्यवः ) प्रजा पालन रूप यज्ञ की इच्छा करने हारे शासक विद्वान् पुरुषो ! ( यथा ) जिस प्रकार ( पयसा ) दूध से (गोः) गौ का ( ऊधः ) उथान पूर्ण रहता है उसी प्रकार ( सौमेभिः ) ऐश्वर्यो से ( ईम् ) सब प्रकार ( भोजम् ) पृथिवी के भोक्ता और पालक ( इन्द्रम् ) शत्रु और दुष्ट पुरुषों के नाशक राजा को ( पृणत ) खूब पूर्ण करो । ( मे ) मुझ ( अस्य ) इस राष्ट्र प्रजाजन के ( निभृतम् ) भरण पोषण के सामर्थ्य को ( अहम् ) मैं राष्ट्र और प्रजा जन ही (वेद) जाने और प्राप्त करे । ( यजतः ) दान का पात्र, पुरुष भी ( एतत् ) इस ( दित्सन्तं ) देने वाले को ( चिकेत ) जाने । करादि देने वाली प्रजा स्वयं अपने सामर्थ्य को जाने कि वह कितना राजा को दे सकती है और राजा भी इस बात को ध्यान में रखे कि प्रजा कितना दे सकती है । अर्थात् प्रजा की आर्थिक दानशक्ति कितनी है । दानशक्ति अधिक होने पर यह राजा को खूब पुष्ट करे, और दरिद्र होने पर राजा भी प्रजा को पीड़ित न करे ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः–१, ३, ४, ९, १०, १२ त्रिष्टुप् । २, ६,८ निचृत् त्रिष्टुप् । ७ विराट् त्रिष्टुप् । ५ निचृत्पङ्क्तिः । ११ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमा व वाचकलुप्तोपमालंकार आहेत. जशा गायी तृण वगैरे खाऊन दूध उत्पन्न करतात तसे माणसांनी महौषधींचा संग्रह करून श्रेष्ठ औषधींना सिद्ध करावे. ॥ १० ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
High priests of the yajna of white revolution and herbal essences, let the streams of soma flow for health and joy and surfeit Indra, the mighty order of humanity. Let the order overflow with food and drink like the cow’s udders with milk. I know him and the wealth he holds for me. Join him, let everyone know and serve him for his creation and generosity, and let all carry on the effort in unison.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The importance of industries (small) is highlighted.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men! you prepare great medicines, which are taken with the milk of cow, juices of ripe herbal plants and with water. As one feels delighted with satisfaction at having his meals, with the same keenness I should know our great and prosperous Ruler. I seek confirmation of this truth, so that I may enjoy company of donors repeatedly.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Here are two similes. The way cows produce milk on eating the grass and cereals, same way one should collect wonderful drugs and prepare effective medicines out of it.
Foot Notes
(अध्वर्यव:) महौषधिनिष्पादका: = Those who prepare effective medicines. In the last several mantras, the meaning of ADHVARYUS has been interpreted in different contexts. (ऊध:) स्तनाधार:।= Udders. (प्रणत) तृयत = To be satisfied. (निभृतम्) निश्चितपोषणाम् = Positively nourishing. (दित्सन्तम् ) दातुमिच्छन्तम् । = Desirous of giving away.
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