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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 14/ मन्त्र 4
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अध्व॑र्यवो॒ य उर॑णं ज॒घान॒ नव॑ च॒ख्वांसं॑ नव॒तिं च॑ बा॒हून्। यो अर्बु॑द॒मव॑ नी॒चा ब॑बा॒धे तमिन्द्रं॒ सोम॑स्य भृ॒थे हि॑नोत॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अध्व॑र्यवः । यः । उर॑णम् । ज॒घान॑ । नव॑ । च॒ख्वांस॑म् । न॒व॒तिम् । च॒ । बा॒हून् । यः । अर्बु॑दम् । अव॑ । नी॒चा । ब॒बा॒धे । तम् । इन्द्र॑म् । सोम॑स्य । भृ॒थे । हि॒नो॒त॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अध्वर्यवो य उरणं जघान नव चख्वांसं नवतिं च बाहून्। यो अर्बुदमव नीचा बबाधे तमिन्द्रं सोमस्य भृथे हिनोत॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अध्वर्यवः। यः। उरणम्। जघान। नव। चख्वांसम्। नवतिम्। च। बाहून्। यः। अर्बुदम्। अव। नीचा। बबाधे। तम्। इन्द्रम्। सोमस्य। भृथे। हिनोत॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 14; मन्त्र » 4
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह।

    अन्वयः

    हे अध्वर्ययो विद्वांसो यूयं य उरणं चख्वांसं जघान नवनवतिं बाहूँश्च जघान योऽर्बुदं नीचावबबाधे तमिन्द्रं सोमस्य भृथे हिनोत ॥४॥

    पदार्थः

    (अध्वर्यवः) सर्वस्य प्रियाचरणाः (यः) जनः (उरणम्) आच्छादकम् (जघान) हन्यात् (नव) (चख्वांसम्) प्रतिघातम् (नवतिम्) (च) (बाहून्) बाहुवत्सहायिनः (यः) (अर्बुदम्) एतत्सङ्ख्याकम् (अव) (नीचा) नीचकर्मकर्तॄन् (बबाधे) बाधते (तम्) (इन्द्रम्) विद्युतमिव सेनेशम् (सोमस्य) ऐश्वर्यस्य (भृथे) धारणे (हिनोत) प्रेरयत ॥४॥

    भावार्थः

    हे सेनास्थजना युष्माभिरनेकेषां दुष्टानां ससहायानां नीचकर्मकारिणां जनानां हन्ता राज्यैश्वर्यस्य भर्त्ता सेनेशः कर्त्तव्यः ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को अगले उपदेश में कहा है।

    पदार्थ

    हे (अध्वर्यवः) सबके प्रियाचरणों को करनेवाले विद्वानो तुम (यः) जो जन (उरणम्) आच्छादन करनेवाले (चख्वांसम्) मारनेवाले के प्रति मारनेवाले को (जघान) मारे और (नव, नवतिम्) न्यन्यानवे (बाहून्) बाहुओं के समान सहाय करनेवालों को (च) भी मारे (यः) जो (अर्बुदम्) दशक्रोड़ (नीचा) नीचों को (अव, बबाधे) विलोता है (तम्) उस (इन्द्रम्) बिजुली के समान सेनापति को (सोमस्य) ऐश्वर्य के (भृथे) धारण करने में (हिनोत) प्रेरणा देओ ॥४॥

    भावार्थ

    हे सेनास्थ मनुष्यो तुमको जो कि अनेकों सहाय युक्त दुष्ट करनेवाले दुराचारियों का मारने और राज्यैश्वर्य का पुष्ट करनेवाला हो, वह सेनापति करना चाहिये ॥४॥

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    विषय

    उरणं जघान

    पदार्थ

    १. (अध्वर्यवः) = हे हिंसारहित यज्ञात्मक कर्मों की कामना करते हुए मन व इन्द्रियो ! (यः) = जो प्रभु (उरणं जघान) = [Sheepish, foolish, diffident] हमारे जीवन में से मूर्खतापूर्ण कायरता को नष्ट कर देते हैं, जो कायरता (नव नवतिं च) = निन्यानवे (बाहून्) = प्रयत्नों को (चख्वाँसम्) = खोद डालती है। जिस मूर्खतापूर्ण कायरता के कारण हम प्रयत्न करने से संकोच करते रहते हैं- कितने ही करने योग्य कर्मों को करते ही नहीं। प्रभु इस कायरता को नष्ट करते हैं और हमें जीवन में आगे बढ़ने योग्य बनाते हैं । २. (यः) = जो प्रभु (अर्बुदम्) = सूर्य के आवरणभूत मेघ की तरह ज्ञान के आवरणभूत कामवासना रूप मेघ को नीचा (अव बबाधे) = नीचे पीड़ित करते हैं, अर्थात् पाँव तले कुचल देते हैं। (तम् इन्द्रम्) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु को (सोमस्य भृथे) = सोम का-वीर्यशक्ति का भरण करने पर (हिनोत) = अपने में बढ़ाएँगे। जितना-जितना हम सोम का भरण करते हैं उतना उतना हम प्रभु के समीप होते चलते हैं ।

    भावार्थ

    भावार्थ- कायरतापूर्ण संकोच नष्ट करके हम आगे बढ़ने के लिए यत्नशील हों। वासना जीतकर सोम का पान करते हुए हम प्रभु का हृदयों में दर्शन करें।

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    विषय

    शत्रु दमन, प्रजाजनों और राजपुरुषों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( अध्वर्यवः ) प्रजा का हिंसा कार्य न हो ऐसा प्रबन्ध करनेवाले विद्वान् शासक पुरुषो ! ( यः ) जो वीर पुरुष ( उरणम् ) दूसरे के माल को या सत्य को छुपाने, या मेघ के समान प्रतिस्पर्द्धा से मुकावले पर डटने और राष्ट्र पर आक्रमण करने वाले प्रतिद्वन्द्वी और ( चख्वांसं ) प्रतिघात करने वाले या बदला लेने वाले शत्रु को भी नाश करने में समर्थ है, और जो ( नव नवतिं च ) अकेला सौ के बीच में अपने आप एक रहकर भी शेष ९९ ( बाहून् ) शास्त्रधारी हाथों को रण में (जधान) पछाड़ सके । (सः) जो ( अर्बुदम् ) मेघ को वायु या विद्युत् के समान ( अर्बुदम् ) जल के समान शान्त, सब के पान करने या उपभोग करने योग्य प्रजा के नाश करने वाले या ( अर्बुदं) अरबों शत्रुगण को ( नीचा ) नीचे दबाकर ( अब बवाधे ) पीड़ित कर सके ( तम् ) इस ( इन्द्र ) सेनापति को (सोमस्य भृथे ) ऐश्वर्य के धारण और राष्ट्र के पालन करने के लिये (हिनोत) आगे बढ़ाओ । उसको राज्य का सर्वोत्तम पद प्रदान करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः–१, ३, ४, ९, १०, १२ त्रिष्टुप् । २, ६,८ निचृत् त्रिष्टुप् । ७ विराट् त्रिष्टुप् । ५ निचृत्पङ्क्तिः । ११ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    हे सैन्यातील लोकांनो! जो अनेक दुष्टांना, दुराचाऱ्यांना मारणारा व राजैश्वर्य वाढविणारा असतो त्याला सेनापती करा. ॥ ४ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    High priests and participants of the progressive yajna of love and creative advancement, invoke, applaud and advance Indra, leader and commander of humanity, who exposes and punishes the hoarder, eliminates the saboteur, overthrows nine and ninety handed demons, and binds and chains down hundred millions of enemy forces. Honour him and celebrate with oblations of love and offer of soma for the creation of vigour and life’s joy-

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    Some tips about the State administration.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O performers of the Yajnas ! our Commander should be energetic like lightning and glorious. He should be capable to finish off the killers and their abettors numbering even hundreds. He should be able to reform and punish crores of wicked people of the State.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    O soldiers ! your Commander should be one who is capable to annihilate the wickeds and marauders. He should be capable to establish a firm rule.

    Foot Notes

    (उरणम् ) आच्छादकम् = One who is an abettor in committing of the crime. (चष्वांसम्) प्रतिघातम् = One who ambushes the noble and State people. (बाहून्) बाहुवत्सहायिन:। = Helpers like the arms. (अर्बुदम्) एतत्सङ्ख्याकम् । = Numbering billions. (नीचा ) नीचकर्म-कर्तृन् । = Wickeds. (इन्द्रम् ) विद्युतमिव सेनेशम् । = Commander who is energetic like the lightning.

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