ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 14/ मन्त्र 7
ऋषिः - गृत्समदः शौनकः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
अध्व॑र्यवो॒ यः श॒तमा स॒हस्रं॒ भूम्या॑ उ॒पस्थेऽव॑पज्जघ॒न्वान्। कुत्स॑स्या॒योर॑तिथि॒ग्वस्य॑ वी॒रान्न्यावृ॑ण॒ग्भर॑ता॒ सोम॑मस्मै॥
स्वर सहित पद पाठअध्व॑र्यवः । यः । श॒तम् । आ । स॒हस्र॑म् । भूम्याः॑ । उ॒पऽस्थे॑ । अव॑पत् । ज॒घ॒न्वान् । कुत्स॑स्य । आ॒योः । अ॒ति॒थि॒ऽग्वस्य॑ । वी॒रान् । नि । अवृ॑णक् । भर॑त॒ । सोम॑म् । अ॒स्मै॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अध्वर्यवो यः शतमा सहस्रं भूम्या उपस्थेऽवपज्जघन्वान्। कुत्सस्यायोरतिथिग्वस्य वीरान्न्यावृणग्भरता सोममस्मै॥
स्वर रहित पद पाठअध्वर्यवः। यः। शतम्। आ। सहस्रम्। भूम्याः। उपऽस्थे। अवपत्। जघन्वान्। कुत्सस्य। आयोः। अतिथिऽग्वस्य। वीरान्। नि। अवृणक्। भरत। सोमम्। अस्मै॥
ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 14; मन्त्र » 7
अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 14; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह।
अन्वयः
हे अध्वर्ययो यूयं यः सूर्यइव भूम्या उपस्थे शतं सहस्रभावपद्दुष्टाञ्जघन्वानतिथिग्वस्यायोः कुत्सस्य वीरान्यवृणगस्मै सोमं भरत ॥७॥
पदार्थः
(अध्वर्यवः) (यः) (शतम्) (आ) (सहस्रम्) असङ्ख्यम् (भूम्याः) (उपस्थे) (अवपत्) वपति (जघन्वान्) हन्ति (कुत्सस्य) अवक्षेप्तुः (आयोः) प्राप्तस्य (अतिथिग्वस्य) अतिथीन् गच्छतः (वीरान्) शत्रुबलव्यापकान् (नि) नितराम् (अवृणक्) वृणक्ति (भरत) पुष्णीत। अत्रापि दीर्घः (सोमम्) (अस्मै) ॥७॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे मनुष्या यथा सूर्येण हतो मेघोऽसङ्ख्यान्बिन्दून्वर्षति तथा ये शत्रुसैन्यस्योपरि शस्त्रास्त्राणि वर्षयेयुस्ते विजयमाप्नुयुः ॥७॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है।
पदार्थ
हे (अध्वर्यवः) युद्ध यज्ञरूप की सिद्धि करनेवाले जनो तुम (यः) जो सूर्य के समान (भूम्याः) भूमि के (उपस्थे) ऊपर (शतम्) सैकड़ों वा (सहस्रम्) सहस्रों वीरों को (आ, अवपत्) बोता अर्थात् गिरा देता दुष्टों को (जघन्वान्) मारता वा (अतिथिग्वस्य) अतिथियों को प्राप्त होनेवाले (आयोः) और प्राप्त हुए (कुत्सस्य) बाण आदि फेंकनेवाले प्रजापति के (वीरान्) शत्रु बलों से व्याप्त होते वीरों को (नि, अवृणक्) निरन्तर वर्जता है (अस्मै) इसके लिये (सोमम्) ऐश्वर्य को (भरत) पुष्ट करो ॥७॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। हे मनुष्यो जैसे रूप से छिन्न भिन्न हुआ मेघ असंख्य बिन्दुओं को वर्षाता है, वैसे जो शत्रु सेना पर शस्त्रों को वर्षावे, वह विजय को प्राप्त होवे ॥७॥
विषय
कुत्स- आयु तथा अतिथिग्व के शत्रुओं का नाश
पदार्थ
१. हे (अध्वर्यवः) = हिंसारहित यज्ञात्मक कर्मों को अपने साथ जोड़नेवाले मन व इन्द्रियो ! (यः) = जो प्रभु (शतम्) = सैकड़ों (सहस्रम्) = व हजारों आसुरभावों को (भूम्याः उपस्थे) = पृथ्वी की गोद में (अवपत्) = [अपातयत्] गिरा देता है, अर्थात् नष्ट कर देता है, वे प्रभु ही (जघन्वान्) = सब शत्रुओं का नाश करनेवाले हैं। २. (कुत्सस्य) = कामादि का संहार करनेवाले 'कुत्स' के (आयोः) = निरन्तर गतिशील और अतएव क्रोध, ईर्ष्या आदि के शिकार न होनेवाले पुरुष के तथा (अतिथिग्वस्य) = अतिथियों के प्रति जानेवाले- उनका सत्कार करनेवाले और अतएव लोभ से ऊपर उठे हुए पुरुष के (वीरान्) = [वि+ईर] प्रबल आक्रमण करनेवाले 'काम-क्रोध-लोभ' रूप शत्रुओं को न्यावृणक् विनष्ट करते हैं (अस्मै) = इस प्रभु के लिए (सोमम्) = भरत सोम को– वीर्यशक्ति को अपने में धारण करो। धारित हुए-हुए प्रभु ही कुत्स के काम को नष्ट करते हैं, आपके क्रोध को तथा अतिथिग्व के लोभ को वे समाप्त करते हैं ।
भावार्थ
भावार्थ - प्रभु ही काम-क्रोध-लोभ को नष्ट करते हैं ।
विषय
शत्रु दमन, प्रजाजनों और राजपुरुषों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( अध्वर्यवः ) युद्ध यज्ञ के कर्त्ता और राष्ट्र की हिंसा न चाहने वाले विद्वान् पुरुषो ! ( यः ) जो ( भूम्याः उपस्थे ) भूतल पर स्वयं ( जघन्वान् ) शत्रुहन्ता होकर ( कुत्सस्य ) निन्दित आचरण करने वाले ( अतिथिग्वस्य ) अतिथिवत् अपने से ऊंचे पद पर स्थित पूज्य पुरुषों पर आक्रमण करने वाले ( आयोः ) मनुष्य के अधीन ( शतम् सहस्रं ) सैकड़ों, हजारों ( वीरान् ) वीरों को ( निअवृणक् ) एक दम दूर करे ( अस्मै सोमं भरत ) यह ऐश्वर्य या अभिषेक योग्य पद उसको प्रदान करो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः–१, ३, ४, ९, १०, १२ त्रिष्टुप् । २, ६,८ निचृत् त्रिष्टुप् । ७ विराट् त्रिष्टुप् । ५ निचृत्पङ्क्तिः । ११ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे माणसांनो! जसा सूर्यापासून छिन्नभिन्न झालेला मेघ असंख्य बिंदूंचा वर्षाव करतो, तसे जो शत्रूसेनेवर शस्त्रांचा वर्षाव करतो त्याला विजय प्राप्त होतो. ॥ ७ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
High priests of yajna, bring soma drinks in honour of Indra who sows the seeds and creates a hundred thousand heroes of yajna on the face of the earth, while on the other hand he destroys another hundred thousand warriors of evil and wards off the forces of the opponents of generosity and hospitality.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
Effective steps for security and better administration of the State are stated.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
A trained and capable warrior easily smashes thousands of his enemies in the battle, like a mighty sun. Such a mighty and skilled brave man puts a check on the advances of army formations of the enemy. He kills the wicked foes who intrude suddenly and hits with their weapons. O performers of the battle like Yajna! in order to acquire such power, you strengthen your State and acquire prosperity.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
(सहस्रम् ) असङ्ख्यम् । = Innumerable. (जघन्वान्) हन्ति । = Kills. (अतिथिग्वस्य) अतिथीन् गच्छतः । = Suddenly pouncing. (भरत ) पुष्णीत | = Makes strengthen.
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Here is a simile. As the sun smashes the clouds and thus it rains water in heavy droppings, same way an able ruler should attack his enemies strongly and secure victory.
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