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ऋग्वेद मण्डल - 2 के सूक्त 14 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 2/ सूक्त 14/ मन्त्र 3
    ऋषिः - गृत्समदः शौनकः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अध्व॑र्यवो॒ यो दृभी॑कं ज॒घान॒ यो गा उ॒दाज॒दप॒ हि ब॒लं वः। तस्मा॑ ए॒तम॒न्तरि॑क्षे॒ न वात॒मिन्द्रं॒ सोमै॒रोर्णु॑त॒ जूर्न वस्त्रैः॑॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अध्व॑र्यवः । यः । दृभी॑कम् । ज॒घान॑ । यः । गाः । उ॒त्ऽआज॑त् । अप॑ । हि । व॒लम् । वरिति॒ वः । तस्मै॑ । ए॒तम् । अ॒न्तरि॑क्षे । न । वात॑म् । इन्द्र॑म् । सोमैः॒ । आ । ऊ॒र्णु॒त॒ । जूः । न । वस्त्रैः॑ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अध्वर्यवो यो दृभीकं जघान यो गा उदाजदप हि बलं वः। तस्मा एतमन्तरिक्षे न वातमिन्द्रं सोमैरोर्णुत जूर्न वस्त्रैः॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अध्वर्यवः। यः। दृभीकम्। जघान। यः। गाः। उत्ऽआजत्। अप। हि। बलम्। वरिति वः। तस्मै। एतम्। अन्तरिक्षे। न। वातम्। इन्द्रम्। सोमैः। आ। ऊर्णुत। जूः। न। वस्त्रैः॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 2; सूक्त » 14; मन्त्र » 3
    अष्टक » 2; अध्याय » 6; वर्ग » 13; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राजविषयमाह।

    अन्वयः

    हे अध्वर्यवो यो दृभीकं जघान कं यो गा उदाजद् बलमप वस्तस्मै ह्येतमन्तरिक्षे वातन्नेन्द्रं वस्त्रैर्जूर्न सोमैरोर्णुत ॥३॥

    पदार्थः

    (अध्वर्यवः) यज्ञसम्पादकाः (यः) (दृभीकम्) भयकरम् (जघान) हन्यात् (यः) (गोः) धेनूः (उदाजत्) विक्षिपेद्धन्यात् (अप) (हि) (बलम्) (वः) वृणोति (तस्मै) (एतम्) यज्ञम् (अन्तरिक्षे) (न) इव (वातम्) वायुम् (इन्द्रम्) मेघानां धारकम् (सोमैः) ओषधिरसैरैश्वर्यैर्वा (आ) (ऊर्णुत) आच्छादयत (जूः) जीर्णावस्थां प्राप्तः (न) इव (वस्त्रैः) वासोभिः ॥३॥

    भावार्थः

    अत्रोपमालङ्कारः। ये राजपुरुषा भयानकान् गोहत्याकर्त्तॄन् घ्नन्ति, उत्तमान् रक्षन्ति ते निर्भया जायन्ते ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब राज विषय को अगले मन्त्र में कहा है।

    पदार्थ

    हे (अध्वर्यवः) यज्ञ संपादन करनेवाले जनो ! (यः) जो (दृभीकम्) भयङ्कर प्राणी को (जघान) मारता है किसको कि (यः) जो (गाः) गौओं को (उदाजत्) विविध प्रकार से फेंके अर्थात् उठाय उठाय पटके मारे और (बलम्) बल को (अप,वः) अपवारण करे रोके (तस्मै) उसके लिये (हि) ही (एतम्) इस यज्ञ को (अन्तरिक्षे) अन्तरिक्ष में (वातम्) पवन के (न) समान वा (इन्द्रम्) मेघों की धारणा करनेवाले सूर्य को (वस्त्रैः) वस्त्रों से (जूः) बुड्ढे के (न) समान (सोमैः) ओषधियों वा ऐश्वर्यों से (आ, ऊर्णुत) आच्छादित करो अर्थात् अपने यज्ञधूम से सूर्य को ढाँपो ॥३॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में उपमालङ्कार है। जो राजपुरुष भयानक गोहत्या करनेवालों को मारते हैं और उत्तमों की रक्षा करते हैं, वे निर्भय होते हैं ॥३॥

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    विषय

    दृभीकं जघान

    पदार्थ

    १. हे (अध्वर्यवः) = हिंसारहित यज्ञात्मक कर्मों की कामना करते हुए मन व इन्द्रियो! (यः) = जो प्रभु तुम्हारे लिए इस (दृभीकम्) = दृभीक को– [विदारयति, भियं करोति] शक्तियों का विदारण करनेवाले और अतएव भयजनक वासनारूप शत्रु को - (जघान) नष्ट करते हैं। इस वासनारूप शत्रु को नष्ट करके (यः) = जो (गाः) = इन्द्रियरूप गौवों को (उदाजत्) = उत्कृष्ट मार्ग पर गतिवाला करते हैं और (हि) = निश्चय से इस (वलम्) = ज्ञान के आवरणभूत [Veil] वलासुर को (अप वः) = [अपावृणोत्] हिंसित करते हैं। (तस्मा) = उस प्रभु की प्राप्ति के लिए (एतं इन्द्रम्) = इस जितेन्द्रिय पुरुष को (सोमैः) = सोमकणों से (आ ऊर्णुत) = सम्यक् आच्छादित करो। २. प्रभुप्राप्ति के लिए मार्ग यही है कि हम वासना को जीत कर सोम को शरीर में सुरक्षित करें। वस्तुतः शरीर को सोमकणों से इस प्रकार व्याप्त कर दें (न) = जैसे कि (अन्तरिक्षे वातम्) = अन्तरिक्ष में प्रभु वायु को व्याप्त कर देते हैं। इस प्रकार हम सोम से अपने को आच्छादित करें (न) = जैसे कि (जूः) = एक जीर्ण [वृद्ध] पुरुष (वस्त्रैः) = वस्त्रों से अपने को आच्छादित करता है। ये वस्त्र उसे सर्दी व गर्मी से बचाते हैं, इसी प्रकार सोमकण हमें रोगों का शिकार नहीं होने देते। इसलिए जैसे अन्तरिक्ष में वायु सर्वत्र व्याप्त है, इसी प्रकार सोम हमारे शरीर में सर्वत्र व्याप्त हो । यह सब होगा तभी जब हम वासना को जीत पाएँगे। वासना को जीतना प्रभुकृपा से होगा। हमारे लिए तो यह वासना दृभीक है- हमारी शक्तियों का विदारण करती हुई बड़ी भयंकर है।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभुकृपा से हमारी वासना का विनाश होकर सोम का शरीर में ही व्यापन होगा और हम प्रभुदर्शन कर पाएँगे ।

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    विषय

    उत्तम शासन ।

    भावार्थ

    हे ( अध्वर्यवः ) हिंसा रहित प्रजापालन के कार्यों को चाहने वाले विद्वान् पुरुषो ! ( यः ) जो शत्रुहन्ता वीर पुरुष ( दृभीकं ) प्रजा को त्रास देने वाले को ( जधान ) नाश करता है, (यः) जो (गाः) गौओं को गोपाल के समान ( गाः ) भूमियों और प्रजाओं को ( उत् आजत् ) उत्तम मार्ग से चलावे, ( वलं ) नगर, पुर आदि को घेरलेने वाले शत्रु को (अप वः) मेघ को वायु के समान छिन्न भिन्न कर दूर करे । ( तस्मै ) उस पुरुष के लिये अन्तरिक्ष में वायु के समान ( एतम् ) यह समस्त ऐश्वर्य प्रदान करो ( जूः न वस्त्रैः ) उत्तम वस्त्रों से जिस प्रकार वृद्ध या विद्योपदेष्टा गुरु को आदर पूर्वक सुशोभित करते हैं उसी प्रकार ( इन्द्रं ) उस शत्रुधातक, ऐश्वर्यवान् पुरुष को (आ ऊर्णुत) अच्छी प्रकार उत्तम वस्त्रादि से आच्छादित अलंकृत करो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    गृत्समद ऋषिः ॥ इन्द्रो देवता ॥ छन्दः–१, ३, ४, ९, १०, १२ त्रिष्टुप् । २, ६,८ निचृत् त्रिष्टुप् । ७ विराट् त्रिष्टुप् । ५ निचृत्पङ्क्तिः । ११ भुरिक् पङ्क्तिः ॥ द्वादशर्चं सूक्तम् ॥

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात उपमालंकार आहे. जे राजपुरुष गोहत्या करणाऱ्यांना मारतात व उत्तम लोकांचे रक्षण करतात ते निर्भय असतात. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Yajnic leaders of the people, Indra, lord ruler of humanity and the world, is he who, like the brilliant sun, dispels the forces of fear and darkness, develops the cows and animal wealth, preserves and replenishes the earth and her environment, opens up flood-gates of power and energy for you and, like the wind in the sky, drives life onward. Carry on this yajna and the creation of soma-joy and vigour for him, celebrate him like the wind in the sky, felicitate him with drinks of soma and honour him with robes of distinction as you would honour a veteran hero and senior scholar of eminence.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The subject of administration is stated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    Those who annihilate or kill the wild beings and those who hurt cow progeny in more than one ways and misuse their strength, O performers of the Yajnas — ADHVARYUS ! you launch the Yajnas. It purifies the air or makes the pollution ineffective, as the sun thrashes the clouds and a bright person provides clothes and drugs to the needy. The purpose is here to cover the entire sky with the smoke and gases of the Yajnas.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those who punish and kill the tormentors or killers of the cow progeny and provide the protective cover to nice persons, they are always fearless. The above is a simile given.

    Foot Notes

    (द्रभीकम् ) भयंकरम्। = Creating dreadful act. (उदाजत्) विक्षिपेद्धन्यात् । = Hurt or kill. (ऊणूंत ) आच्छादयत। = Covered. (जू:) जीर्णवस्था प्राप्तः = Old men.

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