ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 51/ मन्त्र 11
ऋषिः - स्वस्त्यात्रेयः
देवता - विश्वेदेवा:
छन्दः - निचृदुष्णिक्
स्वरः - ऋषभः
स्व॒स्ति नो॑ मिमीताम॒श्विना॒ भगः॑ स्व॒स्ति दे॒व्यदि॑तिरन॒र्वणः॑। स्व॒स्ति पू॒षा असु॑रो दधातु नः स्व॒स्ति द्यावा॑पृथि॒वी सु॑चे॒तुना॑ ॥११॥
स्वर सहित पद पाठस्व॒स्ति । नः॒ । मि॒मी॒ता॒म् । अ॒श्विना॑ । भगः॑ । स्व॒स्ति । दे॒वी । अदि॑तिः । अ॒न॒र्वणः॑ । स्व॒स्ति । पू॒षा । असु॑रः । द॒धा॒तु॒ । नः॒ । स्व॒स्ति । द्यावा॑पृथि॒वी इति॑ । सु॒ऽचे॒तुना॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
स्वस्ति नो मिमीतामश्विना भगः स्वस्ति देव्यदितिरनर्वणः। स्वस्ति पूषा असुरो दधातु नः स्वस्ति द्यावापृथिवी सुचेतुना ॥११॥
स्वर रहित पद पाठस्वस्ति। नः। मिमीताम्। अश्विना। भगः। स्वस्ति। देवी। अदितिः। अनर्वणः। स्वस्ति। पूषा। असुरः। दधातु। नः। स्वस्ति। द्यावापृथिवी इति। सुऽचेतुना ॥११॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 51; मन्त्र » 11
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 7; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्विद्वद्विषयमाह ॥
अन्वयः
हे मनुष्या ! यथाश्विनानर्वणः स्वस्ति मिमीतां भगो नः स्वस्ति देव्यदितिर्विद्या नः स्वस्ति सुचेतुना द्यावापृथिवी नः स्वस्ति पूषाऽसुरो नः स्वस्ति दधातु तथा युष्मभ्यमपि ते दधतु ॥११॥
पदार्थः
(स्वस्ति) सुखम् (नः) अस्मभ्यम् (मिमीताम्) सृजेथाम् (अश्विना) अध्यापकोपदेशकौ (भगः) ऐश्वर्य्यकर्त्ता वायुः (स्वस्ति) (देवी) देदीप्यमाना (अदितिः) अखण्डिता (अनर्वणः) अनश्वस्य (स्वस्ति) (पूषा) पुष्टिकरो दुग्धादिः (असुरः) मेघः (दधातु) (नः) अस्मभ्यम् (स्वस्ति) (द्यावापृथिवी) प्रकाशभूमी (सुचेतुना) सुष्ठु विज्ञापनेन ॥११॥
भावार्थः
ये मनुष्याः पदार्थविद्यया यान् पदार्थान् उपयुञ्जीरन् त एभ्य उपकारं ग्रहीतुं शक्नुयुः ॥११॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर विद्वद्विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे मनुष्यो ! जैसे (अश्विना) अध्यापक और उपदेशक जन (अनर्वणः) अश्वरहित का (स्वस्ति) सुख (मिमीताम्) रचें और (भगः) ऐश्वर्य्य को करनेवाला वायु (नः) हम लोगों के लिये (स्वस्ति) सुख (देवी) प्रकाशित (अदितिः) अखण्डविद्या (नः) हम लोगों के लिये (स्वस्ति) सुख (सुचेतुना) उत्तम विज्ञापन से (द्यावापृथिवी) प्रकाश और भूमि हम लोगों के लिये (स्वस्ति) सुख और (पूषा) पुष्टि करनेवाला दुग्धादि पदार्थ और (असुरः) मेघ हम लोगों के लिये सुख को (दधातु) धारण करे, वैसे आप लोगों के लिये भी वे सुख को धारण करें ॥११॥
भावार्थ
जो मनुष्य पदार्थविद्या से जिन पदार्थों को उपयुक्त करें अर्थात् काम में लावें, वे इनसे उपकार ग्रहण करने को समर्थ होवें ॥११॥
विषय
राजा के कल्याण की प्रार्थना ।
भावार्थ
भा०- ( अश्विना ) अध्यापक, उपदेशक, स्त्री और पुरुष, दिन और रात, सूर्य और चन्द्र और प्राण और अपान वे दो दो, (नः स्वस्ति मिमीताम् ) हमें सुख दें, हमारा कल्याण करें। ( भगः स्वस्ति ) ऐश्वर्य, और उसका स्वामी, और सेवन करने योग्य वायु हमें सुख दे । (देवी अदितिः) सूर्य, सूर्यवत् तेजस्वी पुरुष और अखण्ड शासक राजा ( अनर्वणः ) अप्रतिम होकर (स्वस्ति) हमारा कल्याण करें। ( पूषा असुरः ) पुष्टिकारक प्राण, जीवन देने वाला अन्न और मेघ ( नः स्वस्ति दधातु ) हमारा कल्याण करे । ( द्यावापृथिवी ) सूर्य और पृथिवी, पिता और माता दोनों (सचेतुना ) उत्तमः प्रकाश चेतना और ज्ञान से हमारा ( स्वस्ति ) कल्याण करें ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
स्वस्त्यात्रेय ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द:-१ गायत्री । २, ३, ४ निचृद् गायत्री । ५, ८, ९, १० निचृदुष्णिक् । ६ उष्णिक् । ७ विराडुष्णिक् ११ निचृत्त्रिष्टुप । १२ त्रिष्टुप । १३ पंक्तिः । १४, १५ अनुष्टुप् ।।
विषय
स्वस्ति द्यावापृथिवी सुचेतुना
पदार्थ
[१] (नः) = हमारे लिये (अश्विना) = प्राणापान (स्वस्ति) = कल्याण व क्षेम को (मिमीताम्) = निर्मित करें। प्राणायाम द्वारा प्राणसाधना करते हुए हम दोषों को दग्ध करके जीवन को कल्याणमय बनायें। (भगः) = ऐश्वर्य (स्वस्ति) = हमारा कल्याण करे। जीवन-यात्रा की आवश्यक सामग्री को जुटाने में सहायक होता हुआ यह ऐश्वर्य हमारा क्षेम-कारक हो । (देवी अदितिः) = यह प्रकाशमयी स्वास्थ्य की देवता स्वस्ति क्षेम करनेवाली हो । स्वास्थ्य व प्रकाश हमें आनन्द प्राप्त करायें। (अनर्वणः) = [अ प्रति ऋतः] शत्रुओं से आक्रान्त न होनेवाला, वासनारूप शत्रुओं से पराजित न होनेवाला, (असुरः) = शत्रुओं का निरसिता [परे फेंकनेवाला] अथवा प्राणशक्ति का संचार करनेवाला (पूषा) = पोषण का देव (नः) = हमारे लिये (स्वस्ति दधातु) = कल्याण को धारण करे। [२] (द्यावापृथिवीम्) = द्युलोक से पृथिवीलोक तक सब पदार्थ (सुचेतुना) = उत्तम ज्ञान के द्वारा (स्वस्ति) = हमारा कल्याण करनेवाले हों । प्रभु ने वस्तुत: सब पदार्थ हमारे हित के लिये ही बनाये हैं। उनका हमें जब ठीक ज्ञान नहीं होता, तभी उनके अयोग व अतियोग से हम अकल्याण के भागी होते हैं। उन सब पदार्थों का ठीक ज्ञान हमें उनके यथायोग के द्वारा कल्याण प्राप्त करानेवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ- हमारे लिये 'प्राणापान, ऐश्वर्य, स्वास्थ्य व पोषण' सुख को देनेवाले हों। सब पदार्थ ज्ञानपूर्वक यथोपयुक्त हुए हुए कल्याण को करनेवाले हों ।
मराठी (1)
भावार्थ
जी माणसे पदार्थविद्येद्वारे ज्या पदार्थांचा उपयोग करतात ती त्यांचा उपयोग करून घेण्यास समर्थ असतात. ॥ ११ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
May the Ashvins, complementarities of nature and humanity such as teachers and preachers, day and night, sun and moon, prana and apana energies, bring us peace and well-being. May Bhaga, lord of glory, bless us with peace and honour. May the eternal imperishable Mother Nature and indivisible Vedic revelation of omniscience bless the independent scholars with peace and spiritual joy and vision. May the nourishment and showers of the life-giving cloud bring us peace and joy. And may the heaven and earth bless us with peace of mind, joy of knowledge and spiritual illumination.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The attributes and duties of the enlightened persons are told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O men ! as teachers and preachers may give us happiness of a man who has no enemies, as air cause of the great wealth (of health) may give us happiness, as glorious and inviolable Vidya (knowledge or wisdom) may give us happiness through their knowledge, as nourishing milk etc. may give us happiness and as the cloud may give us happiness, in the same manner, may they bestow happiness upon you also.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those men only can derive proper benefit out of all objects, who use them scientifically knowing their attributes.
Foot Notes
(अश्विना ) अध्यापकोपदेशकौ । = Teachers and preachers. (भव:) ऐश्वर्य्यकर्त्ता वायुः । = Pure air which is the cause of the wealth (of health ) (अदितिः) अखण्डिता विद्या | = Inviolable. Wisdom or knowledge, (पूषा) पुष्टिकरी दुग्धादिः । = Nourishing milk etc. (सुचेतुना सुष्ठु विज्ञापनेन । = With knowledge. (अनर्वा) अनर्वा प्रैतीति असपन्त्रेन प्रहीत्येवैतदाह । ( Stph 3, 8, 2, 3 ) । = A horseless man— a man travelling in aeroplane etc. without a horse (power, Ed.)
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