ऋग्वेद - मण्डल 5/ सूक्त 51/ मन्त्र 3
विप्रे॑भिर्विप्र सन्त्य प्रात॒र्याव॑भि॒रा ग॑हि। दे॒वेभिः॒ सोम॑पीतये ॥३॥
स्वर सहित पद पाठविप्रे॑भिः । वि॒प्र॒ । स॒न्त्य॒ । प्रा॒त॒र्याव॑ऽभिः । आ । ग॒हि॒ । दे॒वेभिः॑ । सोम॑ऽपीतये ॥
स्वर रहित मन्त्र
विप्रेभिर्विप्र सन्त्य प्रातर्यावभिरा गहि। देवेभिः सोमपीतये ॥३॥
स्वर रहित पद पाठविप्रेभिः। विप्र। सन्त्य। प्रातर्यावऽभिः। आ। गहि। देवेभिः। सोमऽपीतये ॥३॥
ऋग्वेद - मण्डल » 5; सूक्त » 51; मन्त्र » 3
अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
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अष्टक » 4; अध्याय » 3; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
विद्वद्भिस्सह विद्वान् किङ्कुर्य्यादित्याह ॥
अन्वयः
हे सन्त्य विप्र ! त्वं प्रातर्यावभिर्देवेभिर्विप्रेभिस्सह सोमपीतय आ गहि ॥३॥
पदार्थः
(विप्रेभिः) मेधाविभिः (विप्र) मेधाविन् (सन्त्य) सन्तौ वर्त्तमानो साधो (प्रातर्यावभिः) ये प्रातर्यान्ति तैः (आ) (गहि) आगच्छ (देवेभिः) विद्वद्भिस्सह (सोमपीतये) सोमस्य पानाय ॥३॥
भावार्थः
यदा विद्वद्भिस्सह विदुषां सङ्गो जायते तदैश्वर्य्यस्य प्रादुर्भावो भवति ॥३॥
हिन्दी (3)
विषय
विद्वानों के साथ विद्वान् क्या करे, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (सन्त्य) वर्त्तमान में श्रेष्ठ (विप्र) बुद्धिमान् ! आप (प्रातर्यावभिः) प्रातःकाल में जानेवाले (देवेभिः) विद्वानों के और (विप्रेभिः) बुद्धिमानों के साथ (सोमपीतये) सोमलता नामक ओषधि के रस के पान के लिये (आ, गहि) प्राप्त हूजिये ॥३॥
भावार्थ
जब विद्वानों के साथ विद्वानों का सङ्ग होता है, तब ऐश्वर्य्य का प्रादुर्भाव होता है ॥३॥
विषय
विद्वान् का कर्त्तव्य ।
भावार्थ
भा०—हे (विप्र ) विविध विद्याओं और ऐश्वर्यों से स्वयं पूर्ण और अन्यों को पूर्ण करने हारे ! हे ( सन्त्य ) विवेक, प्रीतिपूर्वक विभाग, दान और वर्तमान व्यवहार में कुशल ! तू ( सोम-पीतये ) ऐश्वर्य को पालन और उपभोग के लिये ( प्रातः-यावभिः विप्रेभिः ) प्रातः सबसे पूर्व उद्देश्य पर पहुंचने वाले, धनादि पूरक, उत्तम मतिमान् पुरुषों सहित ( आ गहि ) हमें प्राप्त हो ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
स्वस्त्यात्रेय ऋषिः ॥ विश्वेदेवा देवताः ॥ छन्द:-१ गायत्री । २, ३, ४ निचृद् गायत्री । ५, ८, ९, १० निचृदुष्णिक् । ६ उष्णिक् । ७ विराडुष्णिक् ११ निचृत्त्रिष्टुप । १२ त्रिष्टुप । १३ पंक्तिः । १४, १५ अनुष्टुप् ।।
विषय
विप्र-सन्त्य
पदार्थ
[१] प्रभु कहते हैं कि- हे (विप्र) = अपना विशेषरूप से पूरण करनेवाले सन्त्य सम्भजन में उत्तम पुरुष! तू (प्रातः यावभिः) = प्रातः काल से ही कर्त्तव्यकर्मों में गतिवाले (विप्रेभिः) = ज्ञानी अपना पूरण करनेवाले (देवेभिः) = देव वृत्तिवाले पुरुषों के साथ (सोमपीतये) = सोम के रक्षण के लिये (आगहि) = हमारे समीप आनेवाला हो। [२] सोमरक्षण के लिये आवश्यक है कि [क] हमारे में न्यूनताओं को दूर करने की भावना हो, [ख] प्रभु भक्ति की ओर हमारा झुकाव हो, [ग] क्रियाशील, ज्ञानी पुरुषों के साथ हमारा संग हो ।
भावार्थ
भावार्थ- हम सोमरक्षण के लिये कटिबद्ध हों। विप्र बनें, सन्त्य बनें तथा देवों के संगवाले हों।
मराठी (1)
भावार्थ
जेव्हा विद्वानांबरोबर विद्वानांची संगती होते तेव्हा ऐश्वर्याचा प्रादुर्भाव होतो. ॥ ३ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
O vipra, vibrant scholar, eminent sage of the present age, come with other scholars, with the knowledge and freshness of the morning light and breeze which stir and radiate with the dawn. Come with the divines for a drink of the soma we have distilled.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should a learned person do with other enlightened persons is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O good and wise enlightened person! come with the wise men in the morning to drink the Soma juice and for the protection of prosperity.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
When there is association of the highly learned persons with other similar enlightened men, the prosperity arises there.
Translator's Notes
Though the word सोमपीतये has been interpreted in the Sanskrit commentary as सोमस्य पानाय । = For drinking Soma juice, in the purport ऐश्वर्यस्य प्रादुर्भावो भवति । = these words denote that Dayananda takes also ऐश्वर्यम् or prosperity also its meaning षु प्रसवैश्वर्ययो: । (स्वाः ) पानाय रक्षणाय ।
Foot Notes
(विप्र ) मेधाविन् । विप्र इति मेधाविनाम् । (NG 3, 15)। = Very wise. (देवेभि:) विद्वद्भिस्सह । विद्वांसो हि देवा: ( Stph 3, 7, 3, 10)। = With the enlightened persons.
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