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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 17/ मन्त्र 10
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    अध॒ त्वष्टा॑ ते म॒ह उ॑ग्र॒ वज्रं॑ स॒हस्र॑भृष्टिं ववृतच्छ॒ताश्रि॑म्। निका॑मम॒रम॑णसं॒ येन॒ नव॑न्त॒महिं॒ सं पि॑णगृजीषिन् ॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अध॑ । त्वष्टा॑ । ते॒ । म॒हः । उ॒ग्र॒ । वज्र॑म् । स॒हस्र॑ऽभृष्टिम् । व॒वृ॒त॒त् । श॒तऽअ॑श्रिम् । निऽका॑मम् । अ॒रऽम॑नसम् । येन॑ । नव॑न्तम् । अहि॑म् । सम् । पि॒ण॒क् । ऋ॒जी॒षि॒न् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अध त्वष्टा ते मह उग्र वज्रं सहस्रभृष्टिं ववृतच्छताश्रिम्। निकाममरमणसं येन नवन्तमहिं सं पिणगृजीषिन् ॥१०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अध। त्वष्टा। ते। महः। उग्र। वज्रम्। सहस्रऽभृष्टिम्। ववृतत्। शतऽअश्रिम्। निऽकामम्। अरऽमनसम्। येन। नवन्तम्। अहिम्। सम्। पिणक्। ऋजीषिन् ॥१०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 17; मन्त्र » 10
    अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    अथ राजपुरुषाः कथं वर्त्तेरन्नित्याह ॥

    अन्वयः

    हे ऋजीषिन्नुग्र ! ते हस्ते महः सहस्रभृष्टिं शताश्रिं निकाममरमणसं वज्रं धारयाम्यध येन त्वष्टा भवान्नवन्तमहिं सूर्य्य इव सम्पिणक् ववृतत् तं वयमपि धरेम ॥१०॥

    पदार्थः

    (अध) आनन्तर्य्ये (त्वष्टा) छेदकः (ते) तव (महः) महान्तम् (उग्र) तेजस्विन् (वज्रम्) शस्त्रविशेषम् (सहस्रभृष्टिम्) सहस्राणां भृज्जकं छेदकम् (ववृतत्) वर्त्तते (शताश्रिम्) यः शतान्याश्रयति तम् (निकामम्) यो नित्यं कम्यते तम् (अरमणसम्) यस्मिन्न रमन्ते शत्रवस्तम् (येन) (नवन्तम्) स्तुवन्तं नम्रमिव (अहिम्) मेघम् (सम्) (पिणक्) पिनष्टि (ऋजीषिन्) ऋजीषि सरलत्वं यस्यास्ति तत्सम्बुद्धौ ॥१०॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। हे वीरपुरुषा यथा धनुर्वेदविदो वीरपुरुषाः शस्त्राणि धरेयुस्तथा यूयमपि धरत ॥१०॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    अब राजपुरुष कैसा वर्त्ताव करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (ऋजीषिन्) सरल स्वाभाववाले (उग्र) तेजस्विन् ! (ते) आपके हस्त में (महः) बड़े (सहस्रभृष्टिम्) हजारों का छेदन करने और (शताश्रिम्) सैकड़ों का आश्रयण करनेवाले और (निकामम्) नित्य कामना किये जाते (अरमणसम्) जिसमें नहीं रमते हैं शत्रु उस (वज्रम्) शस्त्रविशेष को धारण कराता हूँ (अध) इसके अनन्तर (येन) जिससे (त्वष्टा) छेदन करनेवाले आप (नवन्तम्) स्तुति करते हुए नम्र के सदृश को (अहिम्) मेघ को जैसे सूर्य्य, वैसे (सम्, पिणक्) अच्छे प्रकार पीसते हैं तथा (ववृतत्) वर्त्ताव करते हैं, उन आपको हम लोग भी धारण करें ॥१०॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार हैं। हे वीरपुरुषो ! जैसे धनुर्वेद के जाननेवाले वीरपुरुष शस्त्रों को धारण करें, वैसे आप लोग भी धारण करो ॥१०॥

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    विषय

    राजा के बल के ५ गुण, भयकारी सर्वनाश में समर्थ तीक्ष्ण, सुखद, सर्वाश्रय योग्य

    भावार्थ

    ( अध) और हे (ऋजीषिन् ) ऋजु, सरल, धर्म मार्ग पर अन्यों को चलाने वाले ! और स्वयं भी धर्मानुकूल कामना करने हारे ! ( ते महः ) तेरे महान् ( उग्रं ) भयंकर (सहस्र-भृष्टिं ) हज़ारों को एक ही वार में भून देने वाले, ( शताश्रिम् ) सैकड़ों के ऊपर आश्रित या सैकड़ों को नाश करने वाले, (अरमणसं) शत्रुओं को अच्छा न लगने वाले ( निकामं ) यथेष्ट रूप से ( वज्रं ) शस्त्र बल को ( त्वष्टा ) उत्तम शिल्पी ( ववृतत् ) बनावे । (येन ) जिससे तू (नवन्तम् ) स्तुतिशील अति नम्र ( अहिम् ) शत्रु को, गर्जते मेघ को विद्युत् के समान ( संपिणक् ) अच्छी प्रकार दण्डित करे । इति द्वितीयो वर्गः ॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः -१ , २, ३, ४, ११ त्रिष्टुप् । ५, ६, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ७, ९, १०, १२, १४ निचृत्त्रिष्टुप् । १३ स्वराट् पंक्ति: । १५ आच् र्युष्णिक् ।।

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    विषय

    'सहस्त्रभृष्टि-शताश्रि' वज्र

    पदार्थ

    [१] हे (उग्र) = तेजस्विन् उपासक ! (अध) = अब (त्वष्टा) = वह निर्माता प्रभु (ते) = तेरे लिये (वज्रम्) = वज्र को (ववृतत्) = बनाता है। उस वज्र को जो (महः) = महान् हैं, (सहस्त्रभृष्टिम्) = [भृष्टि=roasting] हजारों शत्रुओं को भून डालनेवाला है और (शताश्रिम्) = सैंकड़ो तेज धारोंवाला है [अश्रिः = the sharp side] [२] (ऋजीषिन्) = ऋजुमार्ग से गति करनेवाले जीव! उस वज्र को प्रभु तेरे लिये बनाते हैं, (येन) = जिससे कि तू (अहिं संपिणक्) = आहन्ता वृत्र को, कामवासना रूप शत्रु को पीस डालता है, नष्ट कर देता है । उस अहि को नष्ट कर देता है जो कि (निकामम्) = निकृष्ट कामनाओंवाला है, सदा हमारा अशुभ चाहनेवाला है। (अरमणसम्) = [अरं अभिगन्तृ मनो यस्य] आक्रमण करने की कामनावाला है तथा (नवन्तम्) = [नु शब्दे] गर्जना करनेवाला है अथवा रुलानेवाला है।

    भावार्थ

    भावार्थ– प्रभु उपासक को वह वज्र प्राप्त कराते हैं, जो सब शत्रुओं को भून डालता है। वस्तुतः क्रियाशीलता ही यह वज्र है ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. हे वीर पुरुषांनो! जसे धनुर्वेद जाणणारे वीर पुरुष शस्त्रे धारण करतात तसे तुम्हीही धारण करा. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O lord of blazing glory, simple, natural and forceful, Tvashta, the cosmic maker of forms, shaped in nature the mighty hundred-angled thousand pointed thunderbolt of your cherished design for relentless strikes by which you break the roaring cloud of darkness for showers of rain in the cycle of seasons.

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