ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 17/ मन्त्र 5
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - विराट्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
येभिः॒ सूर्य॑मु॒षसं॑ मन्दसा॒नोऽवा॑स॒योऽप॑ दृ॒ळ्हानि॒ दर्द्र॑त्। म॒हामद्रिं॒ परि॒ गा इ॑न्द्र॒ सन्तं॑ नु॒त्था अच्यु॑तं॒ सद॑सः॒ परि॒ स्वात् ॥५॥
स्वर सहित पद पाठयेभिः॑ । सूर्य॑म् । उ॒षस॑म् । म॒न्द॒सा॒नः । अवा॑सयः । अप॑ । दृ॒ळ्हानि॑ । दर्द्र॑त् । म॒हाम् । अद्रि॑म् । परि॑ । गाः । इ॒न्द्र॒ । सन्त॑म् । नु॒त्थाः । अच्यु॑तम् । सद॑सः । परि॑ । स्वात् ॥
स्वर रहित मन्त्र
येभिः सूर्यमुषसं मन्दसानोऽवासयोऽप दृळ्हानि दर्द्रत्। महामद्रिं परि गा इन्द्र सन्तं नुत्था अच्युतं सदसः परि स्वात् ॥५॥
स्वर रहित पद पाठयेभिः। सूर्यम्। उषसम्। मन्दसानः। अवासयः। अप। दृळ्हानि। दर्द्रत्। महाम्। अद्रिम्। परि। गाः। इन्द्र। सन्तम्। नुत्थाः। अच्युतम्। सदसः। परि। स्वात् ॥५॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 17; मन्त्र » 5
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
Acknowledgment
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 5
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! मन्दसानस्त्वं येभिस्सूर्य्यमुषसमिव गाः पर्यवासयः। दृळ्हान्यपदर्द्रत् तेभिर्महामद्रिमिव सन्तमच्युतं स्वात् सदसः परि नुत्थाः ॥५॥
पदार्थः
(येभिः) (सूर्य्यम्) (उषसम्) प्रभातम् (मन्दसानः) कामयमानः (अवासयः) वासयेः (अप) (दृळ्हानि) (दर्द्रत्) दृणीहि (महाम्) महान्तम् (अद्रिम्) मेघम् (परि) सर्वतः (गाः) पृथिवीः (इन्द्र) परमैश्वर्य्ययुक्त राजन् (सन्तम्) वर्त्तमानम् (नुत्थाः) प्रेरयेः (अच्युतम्) नाशरहितम् (सदसः) सभायाः (परि) (स्वात्) स्वकीयात् ॥५॥
भावार्थः
स एव राजा श्रेष्ठो भवति यो दुष्टान् विदार्य्य श्रेष्ठानां सभया सर्वाः प्रजाः शास्ति ॥५॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) अत्यन्त ऐश्वर्य से युक्त राजन् ! (मन्दसानः) कामना करते हुए आप (येभिः) जिन से (सूर्य्यम्) सूर्य्य और (उषसम्) प्रातर्वेला को जैसे वैसे (गाः) पृथिवियों को (परि, अवासयः) सब प्रकार बसाइये तथा (दृळ्हानि) दृढ़ पदार्थों को (अप, दर्द्रत्) पुष्ट करिये उनसे (महाम्) बड़े (अद्रिम्) मेघ के समान (सन्तम्) वर्त्तमान (अच्युतम्) नाश से रहित को (स्वात्) अपने से (सदसः) सभा से (परि) चारों ओर (नुत्थाः) प्रेरित करिये ॥५॥
भावार्थ
वही राजा श्रेष्ठ होता है, जो दुष्टों को विदीर्ण करके श्रेष्ठों की सभा से सम्पूर्ण प्रजाओं का शासन करता है ॥५॥
विषय
उषावत् सूर्य के तुल्य राजा प्रजा का अभ्युदय ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! जिस प्रकार उदय होकर अपने तेजस्वी रूप को और उषा को प्रकट करता, दृढ़ अन्धकारों को दूर करता, पृथिवियों पर बड़े मेघ को प्रेरित करता है वा विद्युत् को फेंकता है उसी प्रकार ( मन्दसान: ) स्वयं प्रसन्न एवं प्रजा की कामना करता हुआ, ( येभिः ) जिन उपायों से ( सूर्यम् ) सूर्यवत् तेजस्वी पुरुष को और ( उषसम् ) उषा के समान कान्तियुक्त, वा कामनावान् प्रजा वा शत्रु देहकारी सेना को ( अवासयः ) अपने राष्ट्र में बसावे, और ( दृढ़ानि ) दृढ़ शत्रु-सैन्यों को ( अपदर्द्रत् ) दूर करने में समर्थ होता है, उन ही उपायों से तू ( महाम् ) बड़े गुणों में महान्, ( सन्तं ) सज्जन (अद्रिम् ) निर्भय, मेघवत् प्रजा पर कृपालु, न विदीर्ण होने वाले, दृढ़, (अच्युतम् ) धर्मं से और मार्ग से च्युत न होने वाले, ब्राह्मण वर्ग और क्षात्र, शस्त्र बल को ( गाः परि ) भूमियों पर, सब ओर (स्वात् सदसः परि) अपने राजभवन या राजधानी से दूर २ तक (नुत्थाः) भेजा कर। जिससे वह सर्वत्र ज्ञान का प्रसार और राष्ट्र की वृद्धि किया करें । इति प्रथमो वर्गः ॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः -१ , २, ३, ४, ११ त्रिष्टुप् । ५, ६, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ७, ९, १०, १२, १४ निचृत्त्रिष्टुप् । १३ स्वराट् पंक्ति: । १५ आच् र्युष्णिक् ।।
विषय
सूर्य उषसं अवासयः
पदार्थ
[१] (येभिः) = जिन सोमकणों के द्वारा (मन्दसान:) = आनन्द का अनुभव करता हुआ तू (सूर्यम्) = ज्ञान के सूर्य को तथा (उषसम्) = दोषदहन को (अवासयः) = अपने में बसाता है। (दृढानि) = दृढ़ शत्रु के दुर्गों का (अपदर्द्रत्) = विदारण करता है । [२] (गाः परिसन्तम्) = इन्द्रियों के चारों ओर होते हुए, अर्थात् इन्द्रियों को घेर लेनेवाले (महाम्) = महान् (अद्रिम्) = अविद्या पर्वत को (नुत्था:) = तू परे ढकेलता है। उस अविद्या पर्वत को तू परे ढकेलता है, जो कि (स्वात् सदसः परि अच्युतम्) = अपने स्थान से बड़ी कठिनता से हिलाया जाता है, अर्थात् बड़ा दृढ़ है।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण से [क] आनन्द की प्राप्ति होती है, [ख] ज्ञानसूर्य का उदय होता है,[ग] दोषों का दहन होता है, [घ] अविद्या पर्वत हिल जाते हैं, [ङ] शत्रुओं के दृढ़ दुर्गों का विदारण हो जाता है।
मराठी (1)
भावार्थ
जो दुष्टांचा नाश करून श्रेष्ठांच्या सभेद्वारे सर्व प्रजेवर शासन करतो तोच राजा श्रेष्ठ असतो. ॥ ५ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, lord ruler of the world, by the powers and forces with which you place the sun in orbit and rouse the dawn on course, and vest them both in light and splendour, and with which you break the strongest mountain asunder, by the same power and force, O lord of love and bliss, from your own assembly seat, inspire and strengthen the great inexhaustible human energy, generous as cloud of showers, across the earth to rise and shine.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The duties of men are described.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O prosperous king! desiring the welfare of all, you arrange inhabitation of the people like the sun and the dawn (vigorous and charming) on the land and cast down even firmly. With these means, you urge established wicked people, even an unshakable or imperishable person like a great cloud to do beneficial acts under the instructions of the Assembly in the interest of the public at large.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
He is the best king who destroys the wicked and rules over his subjects through the assembly of the best people.
Foot Notes
(मन्दसानः) कामयमानाः । मदि-स्तुति मोदमदस्वप्त-कान्तिगतिषु (भ्वा० ) अत्र कान्त्यर्थः । कान्ति:-कामना = Desiring (the welfare of all ). (अद्रिम् ) मेघम् । अद्रिरिति मेघनाम (NG 1, 10 ) = Cloud. (दर्द्रत्) दुणीहि । दु-विदारणे ( व्रया० ) = Smite down.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal