ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 17/ मन्त्र 12
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
आ क्षोदो॒ महि॑ वृ॒तं न॒दीनां॒ परि॑ष्ठितमसृज ऊ॒र्मिम॒पाम्। तासा॒मनु॑ प्र॒वत॑ इन्द्र॒ पन्थां॒ प्रार्द॑यो॒ नीची॑र॒पसः॑ समु॒द्रम् ॥१२॥
स्वर सहित पद पाठआ । क्षोदः॑ । महि॑ । वृ॒तम् । न॒दीना॑म् । परि॑ऽस्थितम् । अ॒सृ॒जः॒ । ऊ॒र्मिम् । अ॒पाम् । तासा॑म् । अनु॑ । प्र॒ऽवतः॑ । इ॒न्द्र॒ । पन्था॑म् । प्र । आ॒र्द॒यः॒ । नीचीः॑ । अ॒पसः॑ । स॒मु॒द्रम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
आ क्षोदो महि वृतं नदीनां परिष्ठितमसृज ऊर्मिमपाम्। तासामनु प्रवत इन्द्र पन्थां प्रार्दयो नीचीरपसः समुद्रम् ॥१२॥
स्वर रहित पद पाठआ। क्षोदः। महि। वृतम्। नदीनाम्। परिऽस्थितम्। असृजः। ऊर्मिम्। अपाम्। तासाम्। अनु। प्रऽवतः। इन्द्र। पन्थाम्। प्र। आर्दयः। नीचीः। अपसः। समुद्रम् ॥१२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 17; मन्त्र » 12
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
अब राजादयः किं कुर्य्युरित्याह ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! यथा सूर्य्यो नदीनां महि वृतं परिष्ठितं क्षोदोऽपामूर्मिं चाऽसृजस्तासां प्रवतोऽनु पन्थामपसो नीचीः समुद्रं प्राऽऽर्दयस्तथा त्वं सेनां प्रजां च सुखं नीत्वा शत्रूनधोगतिं नय ॥१२॥
पदार्थः
(आ) (क्षोदः) उदकम्। क्षोद इत्युदकनाम। (निघं०१.१२) (महि) महत् (वृतम्) स्वीकृतम् (नदीनाम्) (परिष्ठितम्) परितः सर्वतः स्थितम् (असृजः) सृजति (ऊर्मिम्) तरङ्गम् (अपाम्) जलानाम् (तासाम्) (अनु) (प्रवतः) निम्नोद्देशात् (इन्द्र) सूर्य्य इव राजन् (पन्थाम्) (प्र) (आर्दय) आर्दयति नयति (नीचीः) निम्ने देशे वर्त्तमानाः भूमीः (अपसः) कर्म्मणः (समुद्रम्) अन्तरिक्षं महोदधिं वा ॥१२॥
भावार्थः
अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। ये राजादयो जनाः सूर्यवद्वर्त्तन्ते ते प्रजापालनं शत्रुनिवारणं च कर्तुं शक्नुवन्ति ॥१२॥
हिन्दी (3)
विषय
अब राजा आदि क्या करें, इस विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) सूर्य्य के समान वर्त्तमान राजन् ! जैसे सूर्य्य (नदीनाम्) नदियों के (महि) बड़े (वृतम्) स्वीकार किये गये (परिष्ठितम्) सब ओर से वर्त्तमान (क्षोदः) जल की और (अपाम्) जलों की (ऊर्मिम्) तरंग को (असृजः) उत्पन्न करता (तासाम्) उनके (प्रवतः) नीचे स्थान से (अनु) पश्चात् (पन्थाम्) मार्ग को (अपसः) कर्म्म की (नीचीः) निचली भूमियों को और (समुद्रम्) अन्तरिक्ष वा बड़े समुद्र को (प्र, आ, आर्दयः) प्राप्त कराता है, वैसे आप सेना और प्रजा को सुख प्राप्त करा के शत्रुओं को नीची दशा को प्राप्त कराइये ॥१२॥
भावार्थ
इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है। जो राजा आदि जन सूर्य्य के सदृश वर्त्तमान हैं, वे प्रजापालन और शत्रु के निवारण करने को समर्थ होते हैं ॥१२॥
विषय
मेघस्थ जलवत् बल का प्रयोग और प्रजाजन का सन्मार्ग पर ले चलना ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! शत्रुनाशक राजन् ! जिस प्रकार सूर्य ( नदीनां ) नदियों के (अपां ) जलों के ( ऊर्मिम् ) ऊपर गये अंश को ( महिः क्षोदः ) बड़े भारी अति क्षुद्र २ कणिका रूप में विद्यमान ( वृतं ) मेघ से आच्छादित और (परि स्थितम् ) आकाश में सर्वत्र व्याप्त ( असृजः ) करता है, और वही ( प्रवतः अनु ) नीचे के देशों की ओर ( तासां पन्थाम् ) उन जलों का मार्ग कर देता है और ( समुद्रम् प्रति अपसः नीचीः प्र अर्दयः ) समुद्र के प्रति उनके वेगों को नीचे की ओर ही वेग से कर देता है वही जल बहकर फिर समुद्र में मिल जाते हैं उसी प्रकार ( नदीनाम् अपाम् ) समृद्धिशाली आप्त प्रजाओं के महि बड़े भारी ( वृतं ) सुरक्षित और ( ऊर्मिम् ) उन्नत, और ( परि स्थितम् ) सब ओर विराजते ( क्षोदः ) बल को ( असृजः ) प्राप्त कर । और ( प्रवतः अनु ) उत्तम उद्देश्यों के प्रति हे ( इन्द्र ) राजन् ! ( तासाम् पन्थाम् असृजः ) उन प्रजाओं को मार्ग बना तथा ( समुद्रम् प्रति ) समुद्र के समान महान् अखिलाश्रय, परमेश्वर के प्रति उनके ( अपसः प्रार्दशयः ) कर्मों को प्रेरित कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः -१ , २, ३, ४, ११ त्रिष्टुप् । ५, ६, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ७, ९, १०, १२, १४ निचृत्त्रिष्टुप् । १३ स्वराट् पंक्ति: । १५ आच् र्युष्णिक् ।।
विषय
ऊर्मि-समुद्र [प्रकाश व उल्लास]
पदार्थ
[१] हे इन्द्र शत्रुओं का विद्रावण करनेवाले प्रभो ! (नदीनाम्) = स्तोताओं के (महि क्षोदः) = इस महनीय रेतः कणरूप जल को (वृतम्) = शरीर में ही घिरा हुआ तथा (परिष्ठितम्)-शरीर में चारों ओर स्थित (आ असृजः) = सर्वथा करते हैं। इसे आप अपाम् प्रजाओं का [आपो प्रा इति प्रोक्ताः] (ऊर्मिम्) = [light] प्रकाश [असृजः] बनाते हैं। ये रेतः कण ज्ञानाग्नि का ईंधन बनकर उनके जीवन को उज्ज्वल करते हैं। [२] (तासाम्) = उन रेतः कणरूप जलों का (प्रवतः अनु) - [ height, elevation] उन्नति के अनुसार (पन्थाम्) = मार्ग को करते हैं, अर्थात् हे प्रभो! आप ही इन रेतः कणों को शरीर में ऊर्ध्वगतिवाला करते हैं। इन (नीचीः अपसः) = [अप: = अपसः] निम्न मार्ग की ओर जानेवाले रेतःकणों को (समुद्रं प्रार्दय:) = [स-मुद्] आनन्दयुक्त हृदय के प्रति प्रेरित करते हैं, अर्थात् शरीर में इनकी ऊर्ध्वगति करके, इनके द्वारा ही वस्तुतः हृदयों को उल्लासयुक्त करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु कृपा से उपासक के शरीर में रेतः कणरूप जलों की शरीर में ही स्थिति व ऊर्ध्वगति होती है। इस प्रकार ये रेतः कण प्रकाश [ऊर्मि] व आनन्द [समुद्रम्] का कारण बनते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जे राजे इत्यादी लोक सूर्याप्रमाणे असतात ते प्रजापालन व शत्रू निवारण करण्यास समर्थ असतात. ॥ १२ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
Indra, ruling power of the world, creates the great flood of the rivers collected and controlled all round and releases the waves of the waters to flow. Accordingly he prepares the paths of water movement downward and lets the waters join the sea (thereby completing the natural cycle of water energy across the three oceans).
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
What should the king and others do is told.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O sun-like king ! as the sun sets free the rushing waves of waters of the floods greatly swelled encompassed and obstructed. It turns their deep slope, courses downwards, towards the firmament or ocean, so you should direct your army and subjects rightly making them happy and crush down your foes.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
Those kings and officers of the States who are full of splendor like the sun, can protect their people and crush down all 'enemies.
Foot Notes
(क्षोदः) उदकम् । क्षोद इत्युदकनाम (NG 1, 12) (इन्द्र) सूर्य इव राजन् । अथ यः स इन्द्रोऽसौ स आदित्य: ( Stph 8, 5, 3, 2) अत्र इन्द्रः सूर्य इवौ प्रतापी तेजस्वी च राजा = O king who is full of splendor like the sun. (आर्दयः) आर्दयति नयति । अर्द-गत याचने च (भ्वा०) = Takes.
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