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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 17/ मन्त्र 11
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    वर्धा॒न्यं विश्वे॑ म॒रुतः॑ स॒जोषाः॒ पच॑च्छ॒तं म॑हि॒षाँ इ॑न्द्र॒ तुभ्य॑म्। पू॒षा विष्णु॒स्त्रीणि॒ सरां॑सि धावन्वृत्र॒हणं॑ मदि॒रमं॒शुम॑स्मै ॥११॥

    स्वर सहित पद पाठ

    वर्धा॑न् । यम् । विश्वे॑ । म॒रुतः॑ । स॒ऽजोषाः॑ । पच॑त् । श॒तम् । म॒हि॒षान् । इ॒न्द्र॒ । तुभ्य॑म् । पू॒षा । विष्णुः॑ । त्रीणि॑ । सरां॑सि । धा॒व॒न् । वृ॒त्र॒ऽहन॑म् । म॒दि॒रम् । अं॒शुम् । अ॒स्मै॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    वर्धान्यं विश्वे मरुतः सजोषाः पचच्छतं महिषाँ इन्द्र तुभ्यम्। पूषा विष्णुस्त्रीणि सरांसि धावन्वृत्रहणं मदिरमंशुमस्मै ॥११॥

    स्वर रहित पद पाठ

    वर्धान्। यम्। विश्वे। मरुतः। सऽजोषाः। पचत्। शतम्। महिषान्। इन्द्र। तुभ्यम्। पूषा। विष्णुः। त्रीणि। सरांसि। धावन्। वृत्रऽहनम्। मदिरम्। अंशुम्। अस्मै ॥११॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 17; मन्त्र » 11
    अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 3; मन्त्र » 1
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनस्तमेव विषयमाह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! सजोषा विश्वे मरुतो यं त्वां वर्धान् यः पूषा धावन् विष्णुस्त्रीणि सरांसि व्याप्नोति तथा धावन्नस्मै मदिरमंशुं वृत्रहणमिव शत्रून् हन्ति यस्तुभ्यं शतं महिषान् ददाति यश्च परोकारार्थं पचत्तं यूयं विजानीत ॥११॥

    पदार्थः

    (वर्धान्) वर्धयेरन् (यम्) (विश्वे) सर्वे (मरुतः) मनुष्याः (सजोषाः) समानप्रीतिसेविनः (पचत्) पचेत् (शतम्) शतसङ्ख्याकान् (महिषान्) महतः। महिष इति महन्नाम। (निघं०३.३) (इन्द्र) सूर्य्य इव वर्त्तमान राजन् (तुभ्यम्) (पूषा) पुष्टिकर्त्ता (विष्णुः) व्यापको विद्युद्रूपः (त्रीणि) (सरांसि) सरन्ति येषु तान्यन्तरिक्षादीनि (धावन्) धावन् सन् (वृत्रहणम्) यो वृत्रं मेघं सूर्य्य इव शत्रून् हन्ति (मदिरम्) हर्षकरम् (अंशुम्) विभक्तम् (अस्मै) ॥११॥

    भावार्थः

    यथा प्रजाजना राजानं राज्यं च वर्धयेयुस्तथा राजैतान् सततं वर्धयेत् ॥११॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर उसी विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) सूर्य्य के समान वर्त्तमान राजन् ! (सजोषाः) तुल्य प्रीति के सेवनेवाले (विश्वे) सम्पूर्ण (मरुतः) मनुष्य (यम्) जिन आपकी (वर्धान्) वृद्धि करें और जो (पूषा) पुष्टि करनेवाला (धावन्) दौड़ता हुआ (विष्णुः) व्यापक बिजुलीरूप (त्रीणि) तीन (सरांसि) चलते हैं जिनमें उन अन्तरिक्ष आदिकों को व्याप्त होता है, वैसे दौड़ते हुए (अस्मै) इसके लिये (मदिरम्) आनन्द करनेवाले (अंशुम्) विभक्त (वृत्रहणम्) मेघ को जैसे सूर्य्य, वैसे शत्रुओं का मारता है और जो (तुभ्यम्) आपके लिये (शतम्) सौ (महिषान्) बड़े पदार्थों को देता है और जो परोपकार के लिये (पचत्) पाक करे, उसको आप लोग जानिये ॥११॥

    भावार्थ

    जैसे प्रजाजन राजा और राज्य को बढ़ावें, वैसे राजा इनकी निरन्तर वृद्धि करे ॥११॥

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    विषय

    सूर्यवत् राजा के दो कार्य १. अन्नवत् शत्रुपाक, २. सरोवरपूरक मेघवत् राष्ट्र के ज्ञानी बली, धनी तीनों प्रजावर्गों का समृद्धि योग ।

    भावार्थ

    ( यं ) जिसको ( विश्वे मरुतः ) सब वीर एवं प्रजा के पुरुषः ( सजोषाः ) समान रूप से प्रीतियुक्त होकर (वर्धान्) बढ़ाते हैं (पूषा ) सबका पोषक सूर्य, पृथिवी, हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! (तुभ्यम् ) तेरे लिये (शतं ) सौ, सैकड़ों, अनेक, ( महिषान् ) बड़े, और श्रेष्ठ भोग्य अन्न, फल पदार्थों के देने वाले, वृक्षों, और खेतों को ( पचत् ) परिपक्व करता है, और ( विष्णुः ) व्यापक (धावन् ) निरन्तर वेग से चलने हारा वायु ( त्रीणि सरांसि ) तीनों जाने योग्य लोकों को ( धावन् ) दौड़ता या जाता या उनको पवित्र करता हुआ, ( अस्मै ) इस उचित राज्य के नायक ( वृत्रहणम् ) विघ्नकारी शत्रुओं के नाशक, ( मदिरम् ) हर्षजनक ( अंशुम् ) तेज को भी प्रदान करता है ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः -१ , २, ३, ४, ११ त्रिष्टुप् । ५, ६, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ७, ९, १०, १२, १४ निचृत्त्रिष्टुप् । १३ स्वराट् पंक्ति: । १५ आच् र्युष्णिक् ।।

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    विषय

    शतं महिषान् पचत्

    पदार्थ

    [१] (यम्) = जिस परमात्मा को (सजोषाः) = परस्पर प्रीतिवाले होते हुए (मरुतः) = मनुष्य (वर्धान्) = स्तोत्रों के द्वारा बढ़ाते हैं । हे इन्द्र परमैश्वर्यशालिन् प्रभो! (तुभ्यम्) = तेरी प्राप्ति के लिये ही उपासक (शतम्) = शतवर्ष पर्यन्त, अर्थात् आजीवन (महिषान्) = [ प्राणा वै महिषा: श० ७।४।५ ] प्राणों को (अपचत्) = परिपक्व करता है, प्राणायाम के द्वारा प्राणों का परिपाक करता है । [२] (पूषा) = अपना उचित रूप में पोषण करनेवाला व्यक्ति, (विष्णुः) = व्यापक मनोवृत्तिवाला होता हुआ (त्रीणि सरांसि) = तीनों ज्ञान सरोवरों को, प्रकृति का ज्ञान, जीव का ज्ञान तथा परमात्मा का ज्ञान इन तीनों को (धावन्) = [धावु गतिशुद्धयोः] शुद्ध करता हुआ (अस्मै) = इस प्रभु की प्राप्ति के लिए (अंशुम्) = सोम को (धावन्) = प्राप्त करता है, जो सोम (वृत्रहणम्) = वासनाओं को विनष्ट करनेवाला है तथा (मदिरम्) = उल्लास का जनक है। प्रभु प्राप्ति के लिये आवश्यक है कि - पूषा व विष्णु बनें, [ख] प्रकृति, जीव व परमात्मा का ज्ञान प्राप्त करें, [ग] सोम का रक्षण करें। पूर्वार्ध में कहा था कि उस प्रभु की प्राप्ति के लिए हम, [घ] प्रभु-स्तवन करें, [ङ] प्राणसाधना को सदा करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु प्राप्ति के लिए 'स्तवन, प्राणसाधना, ज्ञान व सोमरक्षण' साधन बनते हैं। हम पुष्ट व उदार बनकर प्रभु को पाते हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जशी प्रजा राजाला व राज्याला वाढविते तशी राजाने त्यांची निरंतर वृद्धी करावी. ॥ ११ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Indra, O potent spirit of the cosmos, let all vibrant creative and constructive forces of nature and humanity join in unison and exalt you, ruler of the world, ripening and maturing a hundred mighty gifts of vitality in your service. May Vishnu, omnipresent sustaining power of universal nourishment, ever active on the move, fill the three oceans of earth, heaven and the middle regions with life giving nectar of bliss and excitement for this Indra to break down the cloud of darkness, evil and want.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    The men's duties are elaborated.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O king! you are full of splendor like the sun. May all men love and serve one another and strengthen you. You should know (study) the electricity which is giver of nourishment and pervasive. It pervades firmament, earth and heaven all the three worlds, when running (in motion). You being active or running should slay your enemy as the sun smites down the cloud. You should know and be grateful to the person who gives you hundreds of big stuffs and who cooks for the benefit of others giving them the delightful aud foe-destroying Soma juice also.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    As the people strengthen the king and the State, helping in its development by all legitimate means, so the king also should make them grow more and more.

    Translator's Notes

    It is erroneous, rather so mischievous, when Prof. Wilson and Griffith translated the second stanza as 'May Pushan and Vishnu dress for you a hundred buffaloes' (Wilson) and 'He dressed a hundred buffaloes, O Indra, for you' (Griffith). Rishi Dayananda Sarasvati on the basis of the Vedic Lexicon Nighantu 3, 3 said that महिष means महान i.e. great. Is it even conceivable that a hundred buffaloes can be dressed for any one however mighty he may be? What those great one hundred things are—is a matter of research.

    Foot Notes

    (महिषान्) महतः । महिष इति महम्नाम (NG 3, 3)= Great. (विष्णुः) व्यापको विद्युद्रुपः । = Pervading electricity.

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