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ऋग्वेद मण्डल - 6 के सूक्त 17 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 17/ मन्त्र 3
    ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः देवता - इन्द्र: छन्दः - त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    ए॒वा पा॑हि प्र॒त्नथा॒ मन्द॑तु त्वा श्रु॒धि ब्रह्म॑ वावृ॒धस्वो॒त गी॒र्भिः। आ॒विः सूर्यं॑ कृणु॒हि पी॑पि॒हीषो॑ ज॒हि शत्रूँ॑र॒भि गा इ॑न्द्र तृन्धि ॥३॥

    स्वर सहित पद पाठ

    ए॒व । पा॒हि॒ । प्र॒त्नऽथा॑ । मन्द॑तु । त्वा॒ । श्रु॒धि । ब्रह्म॑ । व॒वृ॒धस्व॑ । उ॒त । गीः॒ऽभिः । आ॒विः । सूर्य॑म् । कृ॒णु॒हि । पी॒पि॒हीषः॑ । ज॒हि । शत्रू॑न् । अ॒भि । गाः । इ॒न्द्र॒ । तृ॒न्धि॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    एवा पाहि प्रत्नथा मन्दतु त्वा श्रुधि ब्रह्म वावृधस्वोत गीर्भिः। आविः सूर्यं कृणुहि पीपिहीषो जहि शत्रूँरभि गा इन्द्र तृन्धि ॥३॥

    स्वर रहित पद पाठ

    एव। पाहि। प्रत्नऽथा। मन्दतु। त्वा। श्रुधि। ब्रह्म। ववृधस्व। उत। गीःऽभिः। आविः। सूर्यम्। कृणुहि। पीपिहीषः। जहि। शत्रून्। अभि। गाः। इन्द्र। तृन्धि ॥३॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 17; मन्त्र » 3
    अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 3
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्यैः किं कर्त्तव्यमित्याह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! प्रत्नथा त्वं ब्रह्म पाहि यद्ब्रह्म त्वा मन्दतु यत्त्वं श्रुधि तेन वावृधस्वोत गीर्भिः सूर्य्यमाविष्कृणुहीषः पीपीहि शत्रूनभि तृन्धि दोषान् जहि गा एवा प्राप्नुहि ॥३॥

    पदार्थः

    (एवा) अत्र निपातस्य चेति दीर्घः। (पाहि) (प्रत्नथा) प्रत्नः प्राचीन इव (मन्दतु) प्रशंसतु (त्वा) त्वाम् (श्रुधि) शृणु (ब्रह्म) वेदम् (वावृधस्व) वृद्धो भव (उत) अपि (गीर्भिः) (आविः) प्राकट्ये (सूर्य्यम्) परमेश्वरम् (कृणुहि) कुरु (पीपिहि) पिब (इषः) अन्नम् (जहि) (शत्रून्) (अभि) (गाः) पृथिवीः (इन्द्र) दुष्टविदारक (तृन्धि) हिन्धि ॥३॥

    भावार्थः

    ये श्रद्धया परमेश्वरमुपास्य विद्यार्थिनां परीक्षां कुर्वन्ति ते जगत्प्रिया भवन्ति ॥३॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्यों को क्या करना चाहिये, इस विषय को कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) दुष्टों के नाश करनेवाले ! (प्रत्नथा) प्राचीन जन जैसे वैसे आप (ब्रह्म) वेद की (पाहि) रक्षा कीजिये और जो वेद (त्वा) आपकी (मन्दतु) प्रशंसा करे, उसको आप (श्रुधि) सुनिये उससे (वावृधस्व) बढ़िये और (उत) भी (गीर्भिः) वाणियों से (सूर्य्यम्) परमेश्वर का (आविः) प्राकट्य (कृणुहि) करिये तथा (इषः) अन्न का (पीपिहि) पान करिये और (शत्रून्) शत्रुओं का (अभि, तृन्धि) सब प्रकार से नाश करिये और दोषों का (जहि) त्याग करिये और (गाः) पृथिवियों को (एवा) ही प्राप्त हूजिये ॥३॥

    भावार्थ

    जो श्रद्धा से परमेश्वर की उपासना करके विद्यार्थियों की परीक्षा करते हैं, वे जगत् के प्रिय होते हैं ॥३॥

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    विषय

    उसके कर्तव्य ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) शत्रुओं और अज्ञान के नाश करने हारे राजन् ? विद्वन् ! तू ( प्रत्नथा ) पुरातन, ( ब्रह्म ) वेदज्ञान और पूर्वजों के धनों को ( पाहि ) सुरक्षित कर । वह ( त्वा मन्दतु ) तुझे नित्य उपदेश दे, एवं प्रसन्न करे । तू उसका (श्रुधि) श्रवण कर । ( उत ) और (गीर्भिः) वेदवाणियों तथा उपदेष्टा विद्वान् जनों द्वारा ( वावृधस्व ) नित्य बढ़ा कर तू ( सूर्यं आविः कृणुहि ) सूर्य के समान अपने तेजस्वी रूप को प्रकट कर । ( इषः पीपिहि ) अन्नों का पान कर अथवा (इष: ) इष्ट जनों वा अधीन सेनाओं की ( पीपिहि ) वृद्धि कर । ( शत्रून् जहि ) शत्रुओं का नाश कर । ( गाः अभि ) जो अपनी भूमियों पर आक्रमण करें उनको ( तृन्धि ) काट गिरा । ( २ ) विद्वान् जन ज्ञान-वाणियों से बढ़ें, तेजोमय आत्मा का साक्षात् करें, इष्ट वासनाओं को बढ़ावें और बाधक वासना कामादि अन्तः शत्रुओं का नाश करें, आनन्द रसदात्री चित्तभूमियों में स्थित कामादि को समूल काटें ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः -१ , २, ३, ४, ११ त्रिष्टुप् । ५, ६, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ७, ९, १०, १२, १४ निचृत्त्रिष्टुप् । १३ स्वराट् पंक्ति: । १५ आच् र्युष्णिक् ।।

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    विषय

    आवि: सूर्यं कृणुहि

    पदार्थ

    [१] प्रभु जीव को प्रेरणा देते हैं - (एवा) = गतिशीलता के द्वारा [इ गतौ] (पाहि) = तू सोम का रक्षण कर । क्रियाओं में लगे रहने से तू वासनाओं से बचेगा और सोम का रक्षण कर पाएगा। यह सुरक्षित सोम (त्वा प्रत्नथा मन्दतु) = तुझे सदा की तरह आनन्दित करे। सोमरक्षण से आनन्द का अनुभव तो होता ही है। (ब्रह्म श्रुधि) = तू सदा ज्ञान का श्रवण कर। (उत) = और (गीर्भिः) = इन ज्ञान की वाणियों से वावृधस्व वृद्धि को प्राप्त हो । [२] इन ज्ञान की वाणियों के श्रवण से ज्ञान वृद्धि के द्वारा तू (सूर्यं आविः कृणुहि) = अपने जीवन ज्ञान के सूर्य प्रभु को प्रकट कर और (इष:) = प्रेरणाओं की तू (पीपिहि) = बढ़ानेवाला हो, अर्थात् प्रभु प्रेरणा को अधिकाधिक सुननेवाला हो। इस प्रेरणा से प्रेरित हुआ-हुआ तू (शत्रून् जहि) = काम-क्रोध आदि शत्रुओं को विनष्ट कर और (गाः) = इन इन्द्रियों को (अभितृन्धि) = सब वासनाओं से मुक्त करके प्रकाशित कर ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण ही वास्तविक आनन्द की प्राप्ति का साधन है। इसी से प्रभु का प्रकाश प्राप्त होता है और प्रभु प्रेरणा में चलते हुए हम विजयी बनते हैं ।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे श्रद्धेने परमेश्वराची उपासना करून विद्यार्थ्यांची परीक्षा घेतात ते जगात प्रिय होतात. ॥ ३ ॥

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    इंग्लिश (2)

    Meaning

    Thus protect and promote life and humanity as ever before, and let the adventure give you the pride of pleasure. Listen to the Veda, protect the Word of knowledge, and be exalted by our songs of celebration. Uncover the light of the sun, enjoy food and drink, destroy the hostilities, release the speech of humanity to freedom, and unshackle the lands from bondage into liberty.

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    Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]

    What should men do is further told.

    Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]

    O destroyer of the wicked ! like the ancient people, (you) protect the Vedas and hear the Vedas which delight you by giving good admirable teachings and grow harmoniously thereby. By your speech (you) reveal the nature of God who is the Divine Sun-Illuminator and Dispeller of all darkness. Eat good food and drink pure water. Destroy the foes. Destroy or give up all evils and vices, and acquire good lands.

    Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]

    N/A

    Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]

    Those persons become popular in the world who worship God with true (sincere) faith and test the students after teaching them well.

    Foot Notes

    (तृधि) हिग्धि । तृदि-हिंसायाम् (रुधा० ) = Destroy, slay. ( सूर्य्यम्) परमेश्वरम् । = God, the Divine Sun. (इव:) अक्षम् । इषम् इति धन्ननाम (NG 2, 7 ) = Food. ( मदन्तु) प्रशसतु । मदि-स्तुदिमोद- मदनस्वप्नकान्तिगतिषु (भ्वा० ) स्तुति मोदार्थ : = May admire.

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