ऋग्वेद - मण्डल 6/ सूक्त 17/ मन्त्र 2
ऋषिः - भरद्वाजो बार्हस्पत्यः
देवता - इन्द्र:
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
स ईं॑ पाहि॒ य ऋ॑जी॒षी तरु॑त्रो॒ यः शिप्र॑वान्वृष॒भो यो म॑ती॒नाम्। यो गो॑त्र॒भिद्व॑ज्र॒भृद्यो ह॑रि॒ष्ठाः स इ॑न्द्र चि॒त्राँ अ॒भि तृ॑न्धि॒ वाजा॑न् ॥२॥
स्वर सहित पद पाठसः । ई॒म् । पा॒हि॒ । यः । ऋ॒जी॒षी । तरु॑त्रः । यः । शिप्र॑ऽवान् । वृ॒ष॒भः । यः । म॒ती॒नाम् । यः । गो॒त्र॒ऽभित् । व॒ज्र॒ऽभृत् । यः । ह॒रि॒ऽस्थाः । सः । इ॒न्द्र॒ । चि॒त्रान् । अ॒भि । तृ॒न्धि॒ । वाजा॑न् ॥
स्वर रहित मन्त्र
स ईं पाहि य ऋजीषी तरुत्रो यः शिप्रवान्वृषभो यो मतीनाम्। यो गोत्रभिद्वज्रभृद्यो हरिष्ठाः स इन्द्र चित्राँ अभि तृन्धि वाजान् ॥२॥
स्वर रहित पद पाठसः। ईम्। पाहि। यः। ऋजीषी। तरुत्रः। यः। शिप्रऽवान्। वृषभः। यः। मतीनाम्। यः। गोत्रऽभित्। वज्रऽभृत्। यः। हरिऽस्थाः। सः। इन्द्र। चित्रान्। अभि। तृन्धि। वाजान् ॥२॥
ऋग्वेद - मण्डल » 6; सूक्त » 17; मन्त्र » 2
अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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अष्टक » 4; अध्याय » 6; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! य ऋजीषी तरुत्रस्त्वमसि स ईं पाहि यः शिप्रवान् वृषभो यो मतीनां वृषभो यो वज्रभृद् गोत्रभिदसि यो हरिष्ठा असि स त्वं चित्रान् वाजानभि तृन्धि ॥२॥
पदार्थः
(सः) (ईम्) प्राप्तं वस्तु (पाहि) (यः) (ऋजीषी) सरलस्वभावः (तरुत्रः) सर्वदुःखादुत्तीर्णः (यः) (शिप्रवान्) शिप्रे सुन्दरे हनुनासिके विद्यते यस्य (वृषभः) बलिष्ठः (यः) (मतीनाम्) मनुष्याणाम् (यः) (गोत्रभित्) यो गोत्रं भिनत्ति (वज्रभृत्) यो वज्रं बिभर्त्ति (यः) (हरिष्ठाः) अतिशयेन हर्त्ता (सः) (इन्द्र) दुष्टविदारक (चित्रान्) अद्भुतान् (अभि) (तृन्धि) हिन्धि (वाजान्) हिंसकान् ॥२॥
भावार्थः
हे राजन् ! ये प्रजारक्षका दुष्टहिंसका जनाः स्युस्ताँस्त्वं सत्कुर्य्याः ॥२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) दुष्टों के विदीर्ण करनेवाले ! (यः) जो (ऋजीषी) सरलस्वभाव (तरुत्रः) सम्पूर्ण दुःख से उत्तीर्ण हुए आप हैं (सः) वह आप (ईम्) प्राप्त वस्तु का (पाहि) पालन करिये और (यः) जो (शिप्रवान्) सुन्दर ठुड्डी और नासिकावाले (वृषभः) बलिष्ठ और (यः) जो (मतीनाम्) मनुष्यों के मध्य में बलिष्ठ (यः) जो (वज्रभृत्) वज्र को धारण करनेवाले (गोत्रभित्) गोत्र के नाश करनेवाले हैं (यः) जो (हरिष्ठाः) अतिशय हरनेवाले हैं (सः) वह आप (चित्रान्) अद्भुत (वाजान्) हिंसकों का (अभि, तृन्धि) सब ओर से नाश करिये ॥२॥
भावार्थ
हे राजन् ! जो प्रजा के रक्षक, दुष्टों के हिंसक जन होवें, उनका आप सत्कार करिये ॥२॥
विषय
राजा के सद्गुण ।
भावार्थ
( यः ) जो पुरुष (ऋजीषी) सरल स्वभाव, धर्म मार्ग पर अन्यों को प्रेरित करने वाला, (तरुत्रः ) सब दुःखों से स्वयं पार, और अन्यों को नाशकों से बचाने वाला और वृक्षवत् अपने अधीनों को छायावत् आश्रय देने वाला है और ( यः ) जो ( शिप्रवान् ) उत्तम मुख, नासिका वाला, सुन्दर सौम्य मुख वा मुकुटधारी है ( यः मती नाम् वृषभः ) मननशील विद्वानों के बीच सर्वश्रेष्ठ ( यः गोत्रभिद् ) पर्वतों को विद्युत् के समान, भूमि के पालक राजाओं को भेदन करने में समर्थ और ( यः ) जो ( हरिष्ठाः ) अश्वों, अश्वसैन्यों और मनुष्यों पर अध्यक्ष रूप से स्थित है, (सः ईं पाहि) वह तू इस राष्ट्र को पालन कर । और (सः) वह तू हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! ( चित्रान् ) अद्भुत २ ( वाजानू ) संग्रामकारी बलवान् परसैन्यों को ( अभि तृन्धि ) युद्ध द्वारा विनाश कर ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
भरद्वाजो बार्हस्पत्य ऋषिः ।। इन्द्रो देवता ॥ छन्दः -१ , २, ३, ४, ११ त्रिष्टुप् । ५, ६, ८ विराट् त्रिष्टुप् । ७, ९, १०, १२, १४ निचृत्त्रिष्टुप् । १३ स्वराट् पंक्ति: । १५ आच् र्युष्णिक् ।।
विषय
ऋजीषी तरुत्रः
पदार्थ
[१] हे प्रभो ! (यः) = जो आप (ऋजीषी) = [ऋतु + इष] (ऋजुता) = सरलता की प्रेरणा देनेवाले हैं और इस प्रकार (तरुत्रः) = वासनाओं से तरानेवाले हैं, (यः) = जो आप (शिप्रवान्) = शोभन हनु व नासिकावाले हैं, अर्थात् हमें उत्तम सात्त्विक भोजन को चबाकर करनेवाला बनाते हैं [ हनु] तथा प्राणायाम की साधना में प्रवृत्त [नासिका] करते हैं (यः) = जो आप (मतीनां वृषभः) = विचारशील पुरुषों पर सुखों का वर्षण करनेवाले हैं, (सः) = वे आप (ईम्) = निश्चय से (पाहि) = इस सोम का रक्षण कीजिए । वस्तुतः सोमरक्षण के लिए आवश्यक है कि– [क] हम ऋजुता से चलें, छलछिद्र को छोड़कर चलें [ऋजीषी], [ख] वासनाओं को तरें [नरुत्रः], [ग] सात्त्विक भोजन चबाकर खाएँ तथा [घ] प्राणायाम करें [शिप्रवान्] [ङ] बुद्धि के सम्पादन में प्रवृत्त हों। [२] (सः) = जो आप (गोत्रभिद्) = अविद्या-पर्वत का विदारण करनेवाले हैं, (वज्रभृत्) = शत्रु-विनाश के लिए वज्र को धारण किये हुए हैं। (यः) = जो आप (हरिष्ठाः) = सब इन्द्रियाश्वों के अधिष्ठाता हैं। (सः) = वे आप, हे (इन्द्र) = सर्वशक्तिमान् प्रभो ! (चित्रान्) = अद्भुत (वाजान्) = शक्तियों को (अभितृन्धि) = हमारे लिये प्रकाशित करिए। हम आपके अनुग्रह से खूब शक्ति- सम्पन्न बनें।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु ऋजु मार्ग पर चलने की प्रेरणा देते हुए हमारे सोम का रक्षण करते हैं। ये प्रभु अविद्या का नाश करते हुए हमारे लिये अद्भुत शक्तियों का प्रकाश करते हैं ।
मराठी (1)
भावार्थ
हे राजा ! जे प्रजारक्षक, दुष्टमारक जन असतील त्यांचा तू सत्कार कर. ॥ २ ॥
इंग्लिश (2)
Meaning
The one that is simple and natural in conduct, saviour across the seas, splendid and self-protected, mightiest among people, breaker of clouds and hostile strongholds, wielder of the thunderbolt and strongest winner, such is Indra, and such, O lord, defend, protect and promote what is won, release the wonderful energies and overcome the on-slaughts of hostile forces.
Subject [विषय - स्वामी दयानन्द]
The same subject of men's duties is continued.
Translation [अन्वय - स्वामी दयानन्द]
O destroyer of the wicked ! you are of straightforward and upright nature and have risen above all miseries, and protect the thing which you have obtained. You are of beauteous jaws and nose, mighty among 'men, wielder of the thunderbolt-like sharp weapons, piercer of the band of the wicked and destroyer of the evils and miseries. You smite down the violent men even though they may be endowed with marvelous strength.
Commentator's Notes [पदार्थ - स्वामी दयानन्द]
N/A
Purport [भावार्थ - स्वामी दयानन्द]
O king! honor the men who are protectors of people and destroyers of the wicked.
Foot Notes
(ऋजीवी) सरल स्वभाव: । ऋज गतिस्थानार्जनो- पार्जनेषु (भ्वा० ) = Men of straight forward and upright nature. (तरुत्रः) सर्वदुः खादुत्तीर्णः । तृ प्लवनसन्तरणयोः (भ्वा० ) अत्र तरणार्थ = He who has risen above all miseries. (वाजान्) हिंसकान् । वाज इनि बलनाम (NG 2, 9) अत्र बले हिंसकाय दुष्टान् = Violent.
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