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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 20 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 20/ मन्त्र 10
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    स न॑ इन्द्र॒ त्वय॑ताया इ॒षे धा॒स्त्मना॑ च॒ ये म॒घवा॑नो जु॒नन्ति॑। वस्वी॒ षु ते॑ जरि॒त्रे अ॑स्तु श॒क्तिर्यू॒यं पा॑त स्व॒स्तिभिः॒ सदा॑ नः ॥१०॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सः । नः॒ । इ॒न्द्र॒ । त्वऽय॑तायै । इ॒षे । धाः॒ । त्मना॑ । च॒ । ये । म॒घऽवा॑नः । जु॒नन्ति॑ । वस्वी॑ । सु । ते॒ । ज॒रि॒त्रे । अ॒स्तु । श॒क्तिः । यू॒यम् । पा॒त॒ । स्व॒स्तिऽभिः॑ । सदा॑ । नः॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    स न इन्द्र त्वयताया इषे धास्त्मना च ये मघवानो जुनन्ति। वस्वी षु ते जरित्रे अस्तु शक्तिर्यूयं पात स्वस्तिभिः सदा नः ॥१०॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सः। नः। इन्द्र। त्वऽयतायै। इषे। धाः। त्मना। च। ये। मघऽवानः। जुनन्ति। वस्वी। सु। ते। जरित्रे। अस्तु। शक्तिः। यूयम्। पात। स्वस्तिऽभिः। सदा। नः ॥१०॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 20; मन्त्र » 10
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 5
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    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनर्मनुष्याः कथं प्रयतेरन्नित्याह ॥

    अन्वयः

    हे इन्द्र ! यस्त्वं त्मना त्वयताया इषे नो धा ये च मघवान एतस्यै त्वां जुनन्ति स त्वमुद्योगी भव यतो जरित्रे ते वस्वी शक्तिरस्तु। हे अस्माकं सम्बन्धिनौ ! यूयं स्वस्तिभिर्नः सदा सु पात ॥१०॥

    पदार्थः

    (सः) (नः) अस्मान् (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त राजन् (त्वयतायै) यया स्वस्मिन् यतते तस्यै (इषे) अन्नाद्यायै (धाः) धेहि (त्मना) आत्मना (च) (ये) (मघवानः) प्रशंसितधनाः (जुनन्ति) गच्छन्ति (वस्वी) धनसम्बन्धिनी (सु) (ते) तुभ्यम् (जरित्रे) सत्यप्रशंसकाय (अस्तु) (शक्तिः) सामर्थ्यम् (यूयम्) (पात) (स्वस्तिभिः) सुखैः (सदा) (नः) अस्मान् ॥१०॥

    भावार्थः

    त एव श्रीकरा जना भवन्ति य आलस्यं त्याजयित्वा पुरुषार्थेन सह योजयन्ति। ये ब्रह्मचर्यमाचरन्ति तेषामैश्वर्यप्रापकं सामर्थ्यं जायते येऽन्योऽन्यस्य रक्षं विदधति ते सदा सुखिनो भवन्तीति ॥१०॥ अत्र राजसूर्य्ययोधृबलिष्ठसेनापतिसेवकाऽध्यापकाऽध्येतृमित्रदातृरचककृत्यगुणवर्णनादेतदर्थस्य सूक्तस्य पूर्वसूक्तार्थेन सह सङ्गतिर्वेद्या ॥ इति विंशतितमं सूक्तं द्वितीयो वर्गश्च समाप्तः ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर मनुष्य कैसे प्रयत्न करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे (इन्द्र) परमैश्वर्ययुक्त राजा ! जो आप (त्मना) आत्मा से (त्वयतायै) जिससे अपने में यत्न होता है उस (इषे) अन्न आदि सामग्री के लिये (नः) हम लोगों को (धाः) धारण कीजिये (ये, च) और जो (मघवानः) प्रशंसित धनवाले इस अन्नादि सामग्री के लिये आपको (जुनन्ति) प्राप्त होते हैं (सः) सो आप उद्योगी हूजिये जिससे (जरित्रे) सत्य की प्रशंसा करनेवाले (ते) तेरे लिये (वस्वी) धनसम्बन्धिनी (शक्तिः) शक्ति (अस्तु) हो। हे हमारे सम्बन्धिजनो ! (यूयम्) तुम (स्वस्तिभिः) सुखों से (नः) हम लोगों को (सदा) (सु,पात) अच्छे प्रकार रक्षा करो ॥१०॥

    भावार्थ

    वे ही लक्ष्मी करनेवाले जन हैं जो आलस्य का त्याग कराके पुरुषार्थ के साथ युक्त करते हैं वा जो ब्रह्मचर्य का आचरण करते हैं, उनको ऐश्वर्य की प्राप्ति करानेवाली सामर्थ्य होती है वा जो परस्पर की रक्षा करते हैं, वे सदा सुखी होते हैं ॥१०॥ इस सूक्त में राजा, सूर्य, बलिष्ठ, सेनापति, सेवक, अध्यापक, अध्येता, मित्र, दाता और रचनेवालों के कृत्य और गुणों का वर्णन होने से इस सूक्त के अर्थ की इससे पूर्व सूक्त के अर्थ के साथ सङ्गति जाननी चाहिये ॥ यह बीसवाँ सूक्त और दूसरा वर्ग समाप्त हुआ ॥

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    विषय

    प्रजा के अधिकार ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! तेजस्विन् ! ( नः ) हम लोगों में से ( ये ) जो ( त्मना ) अपने सामर्थ्य से (मघवान:) उत्तम धन सम्पन्न होकर (जुनन्ति ) तुझे प्राप्त होते हैं उनको भी तू ( त्वयताया ) तेरे से सुप्रबद्ध ( इषे ) उत्तम प्रेरणा के लिये ( धाः ) धारण कर ( जरित्रे ) उत्तम विद्वान् के लिये ( ते ) तेरी ( वस्वी ) ऐश्वर्ययुक्त ( शक्तिः ) दान शक्ति ( सु अस्तु ) खूब अधिक हो। ( यूयम् ) तुम लोग हे विद्वानो ( नः सदा ) हमें सदा ( स्वस्तिभिः पात ) कल्याणकारी उपायों से पालन करो ।

    टिप्पणी

    'वस्वीषु' इत्येकं पदं सायणाभिमतं पदपाठेन विरुध्यते। इति द्वितीयो वर्गः ॥

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः। इन्द्रो देवता।। छन्दः— १ स्वराट् पंक्ति:। ७ भुरिक् पंक्तिः। २, ४, १० निचृत्त्रिष्टुप्। ३, ५ विराट् त्रिष्टुप्। ६, ८, ९ त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्।।

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    विषय

    प्रभु प्रेरणा व यज्ञशील पुरुषों का संग

    पदार्थ

    [१] हे (इन्द्र) = शत्रुविद्रावक प्रभो ! (सः) = वे आप (नः) = हमें (त्वयताये) = आप से दी जानेवाली (इषे) = प्रेरणा के लिये (धाः) = धारण करिये। (च) = और (ये) = जो (मघवान:) = यज्ञशील लोग [मघ= मख] (त्मना) = स्वयमेव (जुनन्ति) = आपकी ओर गतिशील होते हैं उनके लिये हमें धारण करिये। अर्थात् हम आपकी ओर गतिवाले इन यज्ञशील लोगों के सम्पर्क में हों। [२] हे प्रभो ! (ते शक्ति:) = आप से दी गयी शक्ति-सामर्थ्य (जरित्रे) = स्तोता के लिये (सु) = सम्यक् (वस्वी) = उत्तम निवास को देनेवाली (अस्तु) = हो । (यूयम्) = आप (नः) = हमें (स्वस्तिभिः) = कल्याणों के द्वारा (सदा पात) = सदा रक्षित करिये। आप से रक्षित हुए हुए हम सदा कल्याण के मार्ग का ही आक्रमण करें।

    भावार्थ

    भावार्थ- हमें प्रभु प्रेरणा प्राप्त हो, यज्ञशील प्रभु प्रिय लोगों का सम्पर्क प्राप्त हो । प्रभु की शक्ति हमारे निवास को उत्तम बनाये और प्रभु सदा शुभ मार्गों पर चलाते हुए हमें सुरक्षित करें। अगले सूक्त के भी ऋषि देवता 'वसिष्ठ व इन्द्र' ही हैं -

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जे आळस सोडून पुरुषार्थ करतात तेच लक्ष्मीवान बनतात. जे ब्रह्मचर्याचे आचरण करतात त्यांना ऐश्वर्यप्राप्ती करण्याचे सामर्थ्य असते. जे परस्परांचे रक्षण करतात ते सदैव सुखी होतात. ॥ १० ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord giver of energy and vitality, sustain us and those who join you vitally and spiritually for the gift of energy and pranic vitality in contact with universal energy. May your universal vitality be the harbinger of universal wealth, honour and excellence for the celebrant. O lord and divinities, all time protect and promote us with success, prosperity and good fortune all round.

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