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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 20 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 20/ मन्त्र 2
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्र: छन्दः - निचृत्त्रिष्टुप् स्वरः - धैवतः

    हन्ता॑ वृ॒त्रमिन्द्रः॒ शूशु॑वानः॒ प्रावी॒न्नु वी॒रो ज॑रि॒तार॑मू॒ती। कर्ता॑ सु॒दासे॒ अह॒ वा उ॑ लो॒कं दाता॒ वसु॒ मुहु॒रा दा॒शुषे॑ भूत् ॥२॥

    स्वर सहित पद पाठ

    हन्ता॑ । वृ॒त्रम् । इन्द्रः॑ । शूशु॑वानः । प्र । आ॒वी॒त् । नु । वी॒रः । ज॒रि॒तार॑म् । ऊ॒ती । कर्ता॑ । सु॒ऽदासे॑ । अह॑ । वै । ऊँ॒ इति॑ । लो॒कम् । दाता॑ । वसु॑ । मुहुः॑ । आ । दा॒शुषे॑ । भू॒त् ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    हन्ता वृत्रमिन्द्रः शूशुवानः प्रावीन्नु वीरो जरितारमूती। कर्ता सुदासे अह वा उ लोकं दाता वसु मुहुरा दाशुषे भूत् ॥२॥

    स्वर रहित पद पाठ

    हन्ता। वृत्रम्। इन्द्रः। शूशुवानः। प्र। आवीत्। नु। वीरः। जरितारम्। ऊती। कर्ता। सुऽदासे। अह। वै। ऊँ इति। लोकम्। दाता। वसु। मुहुः। आ। दाशुषे। भूत् ॥२॥

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 20; मन्त्र » 2
    अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    विषयः

    पुनः स कीदृशो भवेदित्याह ॥

    अन्वयः

    हे मनुष्या ! इन्द्रो वृत्रमिव यः शत्रूणामह नु हन्ता शूशुवानो वीरः कर्त्ता वसु दाता सुदासेऽहोती जरितारमु लोकं मुहुः प्रावीद्दाशुषे मुहुरा भूत् स वै राज्यकरणाय श्रेष्ठः स्यात् ॥२॥

    पदार्थः

    (हन्ता) शत्रूणां घातकः (वृत्रम्) मेघमिव (इन्द्रः) सूर्य इव राजा (शूशुवानः) भृशं वर्धमानः (प्र) (आवीत्) प्रकर्षेण रक्षेत् (नु) शीघ्रम् (वीरः) शुभगुणकर्मस्वभावव्यापकः (जरितारम्) गुणानां प्रशंसकम् (ऊती) रक्षया (कर्त्ता) (सुदासे) सुष्ठु दात्रे (अह) विनिग्रहे (वै) निश्चये (उ) अद्भुते (लोकम्) दर्शनं द्रष्टव्यं जन्मान्तरे लोकान्तरं वा (दाता) (वसु) द्रव्यम् (मुहुः) वारंवारम् (आ) (दाशुषे) दानशीलाय (भूत्) भवेत् ॥२॥

    भावार्थः

    अत्र वाचकलुप्तोपमालङ्कारः। य आशुकारी सूर्यवद्विद्याविनयप्रकाशेन दुष्टनिवारकः शूरवीरः सन् सुपात्रेभ्यो यथायोग्यं ददद् बहुसुखं प्राप्नुयात् ॥२॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    फिर वह कैसा हो, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥

    पदार्थ

    हे मनुष्यो ! (इन्द्रः) सूर्य जैसे (वृत्रम्) मेघ को, वैसे जो शत्रुओं का (अह) निग्रह कर अर्थात् पकड़-पकड़ (नु) शीघ्र (हन्ता) घात करनेवाला राजा (शूशुवानः) निरन्तर बढ़ते हुए (वीरः) शुभ गुण-कर्म-स्वभावों में व्याप्त (कर्त्ता) दृढ़ कार्य करनेवाले और (वसु, दाता) धन के देनेवाले (सुदासे) सुन्दर दानशील के लिये ही (ऊती) रक्षा से (जरितारम्) गुणों की प्रशंसा करनेवाले (उ) अद्भुत (लोकम्) अन्य जन्म में देखने योग्य वा अन्य लोक को (मुहुः) वार-वार (प्र, आवीत्) उत्तम रक्षा करे (दाशुषे) दानशील के लिये वार-वार (आ, भूत्) प्रसिद्ध हो (वै) वही राज्य करने के लिये श्रेष्ठ हो ॥२॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में वाचकलुप्तोपमालङ्कार है । जो शीघ्रकारी, सूर्य के समान विद्या और विनय के प्रकाश से दुष्टों का निवारण करनेवाला शूरवीर होता हुआ अच्छे सुपात्रों के लिये यथायोग्य पदार्थ देता हुआ बहुत सुख को प्राप्त हो ॥२॥

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    विषय

    उससे प्रजा की नाना प्रार्थनाएं ।

    भावार्थ

    ( इन्द्रः ) सूर्य के समान तेजस्वी राजा ( शूशुवानः ) वृद्धि को प्राप्त होता हुआ ( वृत्रं हन्ता) मेघ के समान विघ्नकारक दुष्ट का अवश्य नाश करे । वह ( वीरः ) वीर ( ऊती ) रक्षा से ( जरितारम् ) स्तुति, प्रार्थना करने वाले को ( प्र अवीत् नु ) शीघ्र ही रक्षा करे । (अहवा उ) और ( सुदासे ) उत्तम दानशील पुरुष के हित के लिये ( लोकं ) दर्शनीय ,उत्तम उपकार वा उत्तम जन्म का ( कर्त्ता ) करने वाला हो और ( दादुषे ) अपने आप को देने वाले पुरुष के पालनार्थ ( मुहुः ) बार २ ( वसु दाता भूत् ) नाना ऐश्वर्यों को देने वाला हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः। इन्द्रो देवता।। छन्दः— १ स्वराट् पंक्ति:। ७ भुरिक् पंक्तिः। २, ४, १० निचृत्त्रिष्टुप्। ३, ५ विराट् त्रिष्टुप्। ६, ८, ९ त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्।।

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    विषय

    हन्ता वृत्रं, कर्ता लोकं, दाता वसु

    पदार्थ

    [१] (इन्द्रः) = वे शत्रुविद्रावक प्रभु (शूशुवानः) = निरन्तर गतिशील होते हुए [श्वि गतौ] (वृत्रं हन्ता) = ज्ञान की आवरणभूत वासनाओं को विनष्ट करते हैं। (नु) = अब (वीरः) = शत्रु कम्पक होते हुए वे प्रभु (ऊती) = रक्षण के द्वारा (जरितारम्) = स्तोता को (प्रावीत्) = प्रकर्षेण रक्षित करते हैं । [२] (सुदासे) = [कल्याण दानाय सा०] शुभ दानोंवाले व [दसु उपक्षये] वासनाओं का विनाश करनेवाले के लिये (अह वा उ) = निश्चय से ही (लोकम्) = प्रकाश को (कर्ता) = करनेवाले होते हैं। और (दाशुषे) = इस दाश्वान् पुरुष के लिये, दानशील व्यक्ति के लिये (मुहुः) = फिर (वसु दाता भूत्) = निवास के लिये आवश्यक धनों को देनेवाले होते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- प्रभु स्तोता की वासनाओं को विनष्ट करते हैं। दानशील व्यक्ति के लिये प्रकाश को करते हैं और सदा आवश्यक धनों को प्राप्त कराते हैं।

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात वाचकलुप्तोपमालंकार आहे. जो शीघ्र सूर्याप्रमाणे असून विद्या व विनयाच्या प्रकाशाने दुष्टांचा निवारक शूरवीर असून सुपात्रासाठी यथायोग्य पदार्थ देतो तो पुष्कळ सुख प्राप्त करतो. ॥ २ ॥

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Growing and rising, Indra is breaker of the clouds and destroyer of want and darkness of ignorance. The youthful hero protects the dedicated celebrant with his powers of protection. He is the creator of a beautiful world for the man of service and charity and he is the giver of wealth again and again to the generous man of charity and gratitude to Divinity.

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