ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 20/ मन्त्र 4
उ॒भे चि॑दिन्द्र॒ रोद॑सी महि॒त्वाऽप॑प्राथ॒ तवि॑षीभिस्तुविष्मः। नि वज्र॒मिन्द्रो॒ हरि॑वा॒न्मिमि॑क्ष॒न्त्समन्ध॑सा॒ मदे॑षु॒ वा उ॑वोच ॥४॥
स्वर सहित पद पाठउ॒भे इति॑ । चि॒त् । इ॒न्द्र॒ । रोद॑सी॒ इति॑ । म॒हि॒ऽत्वा । प॒प्रा॒थ॒ । तवि॑षीभिः । तु॒वि॒ष्मः॒ । नि । वज्र॑म् । इन्द्रः॑ । हरि॑ऽवान् । मिमि॑क्षन् । सम् । अन्ध॑सा । मदे॑षु । वै । उ॒वो॒च॒ ॥
स्वर रहित मन्त्र
उभे चिदिन्द्र रोदसी महित्वाऽपप्राथ तविषीभिस्तुविष्मः। नि वज्रमिन्द्रो हरिवान्मिमिक्षन्त्समन्धसा मदेषु वा उवोच ॥४॥
स्वर रहित पद पाठउभे इति। चित्। इन्द्र। रोदसी इति। महिऽत्वा। आ। पप्राथ। तविषीभिः। तुविष्मः। नि। वज्रम्। इन्द्रः। हरिऽवान्। मिमिक्षन्। सम्। अन्धसा। मदेषु। वै। उवोच ॥४॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 20; मन्त्र » 4
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 1; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनः स राजा किं कुर्य्यादित्याह ॥
अन्वयः
हे इन्द्र ! त्वमुभे रोदसी चिदिव महित्वा तविषीभिरा पप्राथ तुविष्मः सन् हरिवानन्धसा संनिमिमिक्षन् वज्रं धृत्वा य इन्द्रो मदेषूवोच स वै राज्यं कर्त्तुमर्हेत् ॥४॥
पदार्थः
(उभे) द्वे (चित्) इव (इन्द्र) सूर्यवद्राजन् (रोदसी) द्यावापृथिव्यौ (महित्वा) सत्कारं प्राप्य (आ) समन्तात् (पप्राथ) प्रति व्याप्नोति (तविषीभिः) बलिष्ठाभिः सेनाभिः (तुविष्मः) बहुबलयुक्तः (नि) (वज्रम्) शस्त्रास्त्रम् (इन्द्रः) वीरपुरुषराजा (हरिवान्) बहुमनुष्ययुक्तः (मिमिक्षन्) सुखैः सेक्तुमिच्छन् (सम्) (अन्धसा) अन्नादिना (मदेषु) आनन्देषु (वै) निश्चयेन (उवोच) उच्यात् ॥४॥
भावार्थः
अत्रोपमालङ्कारः । यथा भूमिसूर्यौ महत्त्वेन सर्वानभि व्याप्य जलान्नाभ्यां सर्वानार्द्रीकृतं जगत्सुखयतस्तथैव राजा विद्याविनयाभ्यां सत्यमुपदिश्य सर्वाः प्रजाः सततमुन्नयेत् ॥४॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर वह राजा क्या करे, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (इन्द्र) सूर्य के समान वर्त्तमान राजा ! आप (उभे) दो (रोदसी) आकाश और पृथिवी (चित्) के समान (महित्वा) सत्कार पाके (तविषीभिः) बलिष्ठ सेनाओं से (आ, पप्राथ) निरन्तर व्याप्त होता और (तुविष्मः) बहुत बलयुक्त होता हुआ (हरिवान्) बहुत मनुष्यों से युक्त (अन्धसा) अन्नादि पदार्थ से (सम्, नि, मिमिक्षन्) प्रसिद्ध सुखों से निरन्तर सींचने की इच्छा करता हुआ (वज्रम्) शस्त्र अस्त्रों को धारण कर जो (इन्द्रः) वीर पुरुष राजा (मदेषु) आनन्दों के निमित्त (उवाच) कहे (वै) वही राज्य करने को योग्य हो ॥४॥
भावार्थ
इस मन्त्र में उपमालङ्कार है । जैसे भूमि और सूर्य बड़प्पन से सब को व्याप्त होकर जल और अन्न से सब को और गीले किये हुए जगत् को सुखी करते हैं, वैसे ही राजा विद्या और विनय से सत्य का उपदेश कर सब प्रजाजनों की निरन्तर उन्नति करे ॥४॥
विषय
उसके महान् कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् ! तेजस्विन् ! राजन् ! आप ( तुविष्मः) बहुत बलवान् होकर (तविषीभिः) बलशालिनी, सेनाओं से ( उभे रोदसी चित् ) आकाश और पृथिवी दोनों के समान अति विस्तृत राजवर्ग प्रजावर्ग, शासक और शास्य देश दोनों को ( महित्वा ) अपने महान् सामर्थ्य से (पप्राथ) विस्तृत कर । ( इन्द्रः ) ऐश्वर्ययुक्त शत्रुहन्ता राजा ( हरिवान्) मनुष्यों का स्वामी होकर ( वज्रम् ) अपने शस्त्रास्त्र बल को ( अन्धसा ) अन्न सम्पदा से ( नि मिमिक्षन् ) खूब पुष्ट करता हुआ ( मदेषु ) तथा युद्ध के अवसरों में ( वा ) भी ( सम् उवोच ) अच्छी प्रकार समवाय बनावे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः। इन्द्रो देवता।। छन्दः— १ स्वराट् पंक्ति:। ७ भुरिक् पंक्तिः। २, ४, १० निचृत्त्रिष्टुप्। ३, ५ विराट् त्रिष्टुप्। ६, ८, ९ त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्।।
विषय
सोमरक्षण व आनन्द
पदार्थ
[१] हे (तुविष्मः) = अनन्त बल सम्पन्न (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! आप (महित्वा) = अपनी महिमा से (तविषीभि:) = बलों के द्वारा (उभे चित् रोदसी) = दोनों ही द्यावापृथिवी को आपप्राथ विस्तृत किये हुए हैं। सर्वत्र आपकी महिमा व शक्ति का प्रकाश हो रहा है। [२] (इन्द्रः) = वह शत्रुविद्रावक प्रभु, (हरिवान्) = प्रशस्त इन्द्रियाश्वों को हमारे लिये देता हुआ (वज्रं निमिमिक्षन्) = शत्रुओं पर वज्र को प्राप्त कराता है। और (वा) = निश्चय से (मदेषु) = उल्लासों की प्राप्ति के निमित्त (अन्धसा) = सोम से (सम् उवोच) = समवेत करता है। प्रभु क्रियाशीलता रूप वज्र के द्वारा हमारे काम-क्रोध आदि शत्रुओं का संहार करते हैं और हमें सोम से संगत करते हुए, वीर्य को सुरक्षित करते हुए, आनन्दित करते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु की महिमा द्यावापृथिवी में सर्वत्र व्याप्त है। प्रभु ही हमारे सोम का रक्षण करते हुए हमें आनन्दित करते हैं।
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात उपमालंकार आहे. जसे भूमी व सूर्य आपल्या महिम्याने सर्वांना पूर्ण रीतीने व्याप्त करून जल व अन्नाने सर्वांना तृप्त करून जगाला सुखी करतात तसेच राजाने विद्या व विनयाने सत्याचा उपदेश करून सर्व प्रजाजनांची निरंतर उन्नती करावी. ॥ ४ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Mighty Indra with his splendour and irresistible forces pervades both earth and sky by the strength of his presence felt all round. Wielding his thunderbolt of justice, protection and correction, commanding humanity and mixing with the people by perceptible presence as well as social gatherings over joyous celebrations, he maintains his dialogue with them.
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