ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 20/ मन्त्र 6
नू चि॒त्स भ्रे॑षते॒ जनो॒ न रे॑ष॒न्मनो॒ यो अ॑स्य घो॒रमा॒विवा॑सात्। य॒ज्ञैर्य इन्द्रे॒ दध॑ते॒ दुवां॑सि॒ क्षय॒त्स रा॒य ऋ॑त॒पा ऋ॑ते॒जाः ॥६॥
स्वर सहित पद पाठनु । चि॒त् । सः । भ्रे॒ष॒ते॒ । जनः॑ । न । रे॒ष॒त् । मनः॑ । यः । अ॒स्य॒ । घो॒रम् । आ॒ऽविवा॑सात् । य॒ज्ञैः । यः । इन्द्रे॑ । दध॑ते । दुवां॑सि । क्षय॑त् । सः । रा॒ये । ऋ॒त॒ऽपाः । ऋ॒ते॒ऽजाः ॥
स्वर रहित मन्त्र
नू चित्स भ्रेषते जनो न रेषन्मनो यो अस्य घोरमाविवासात्। यज्ञैर्य इन्द्रे दधते दुवांसि क्षयत्स राय ऋतपा ऋतेजाः ॥६॥
स्वर रहित पद पाठनु। चित्। सः। भ्रेषते। जनः। न। रेषत्। मनः। यः। अस्य। घोरम्। आऽविवासात्। यज्ञैः। यः। इन्द्रे। दधते। दुवांसि। क्षयत्। सः। राये। ऋतऽपाः। ऋतेऽजाः ॥६॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 20; मन्त्र » 6
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
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अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्याः किं कृत्वा कीदृशा भवेयुरित्याह ॥
अन्वयः
यो जनोऽस्य घोरं मनो नाऽऽविवासात् स चिन्नु विजयं भ्रेषते स न रेषत्। य ऋतपा ऋतेजा यज्ञैरिन्द्रे दुवांसि दधते स राये सततं क्षयत् ॥६॥
पदार्थः
(नू) सद्यः। अत्र ऋचि तुनुघेति दीर्घः। (चित्) अपि (सः) (भ्रेषते) प्राप्नोति (जनः) मनुष्यः (न) निषेधे (रेषत्) हिनस्ति (मनः) अन्तःकरणम् (यः) (अस्य) (घोरम्) (आविवासात्) समन्तात्सेवेत (यज्ञैः) सङ्गतैः कर्मभिः (यः) (इन्द्रे) परमैश्वर्ययुक्ते परमेश्वरे (दधते) धरति (दुवांसि) परिचरणानि सेवनानि (क्षयत्) निवसेत् (सः) (राये) धनाय (ऋतपाः) सः सत्यं पाति सः (ऋतेजाः) यः सत्ये जायते सः ॥६॥
भावार्थः
ये रागद्वेषरहितमनसो घोरकर्मविरहाः परमेश्वरसेवका धर्मात्मानो जनाः स्युस्ते कदाचिद्धिंसिता न स्युः ॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्य क्या करके कैसे हों, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
(यः) जो (जनः) मनुष्य (अस्य) इसके (घोरम्) घोर (मनः) अन्तःकरण को (न) नहीं (आविवासात्) सेवे (सः, चित्) वही (नु) शीघ्र विजय को (भ्रेषते) पाता और वह नहीं (रेषत्) हिंसा करता है (यः) जो (ऋतपाः) जो सत्य की पालना करने और (ऋतेजाः) सत्य में उत्पन्न अर्थात् प्रसिद्ध होनेवाला (यज्ञैः) मिले हुए कर्मों से (इन्द्रे) परमैश्वर्ययुक्त परमेश्वर में (दुवांसि) सेवनों को (दधते) धारण करता (सः) वह (राये) धन के लिये निरन्तर (क्षयत्) वसे ॥५॥
भावार्थ
जो रागद्वेषरहित मनवाले, घोरकर्मरहित, परमेश्वर के सेवक, धर्मात्मा जन हों, वे कभी नष्ट न हों ॥६॥
विषय
सेना नायक के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
जो मनुष्य ( अस्य ) इस स्वामी के ( घोरं मनः ) घोर, अति आर्द्र, दयाशील, मन, अन्तःकरण को (आविवासात् ) सेवता है, उसके अभिप्रायानुसार कार्य करता है ( सः जनः ) वह मनुष्य कभी ( न भ्रेषते ) च्युत नहीं होता, ( न रेषत् ) कभी नष्ट नहीं होता और ( यः ) जो ( यज्ञैः ) यज्ञ, उपासना पूजादि उपायों से ( इन्द्रे ) परमैश्वर्यवान् प्रभु में ( दुवांसि दधते ) प्रार्थनादि करते हैं (सः ) वह (ऋत-पाः ) सत्य व्रतों का पालक और (ऋतेजाः) सत्य में निष्ठ होकर ( राये क्षयत् ) ऐश्वर्य प्राप्ति के लिये निरन्तर अच्छी प्रकार रहता है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः। इन्द्रो देवता।। छन्दः— १ स्वराट् पंक्ति:। ७ भुरिक् पंक्तिः। २, ४, १० निचृत्त्रिष्टुप्। ३, ५ विराट् त्रिष्टुप्। ६, ८, ९ त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्।।
विषय
प्रभु-परिचरण व ऋत में निवास
पदार्थ
[१] (यः) = जो (अस्य) = इस प्रभु के (घोरं मनः) = शत्रुओं के लिये भयंकर मन को (आविवासात्) = पूजित करता है (सः) = वह (नू चित्) = न तो (भ्रेषते) = मार्गभ्रष्ट होता है (न रेषत्) = न हिंसित होता है। प्रभु से हमें ऐसे ही मन की याचना करनी चाहिये जो काम-क्रोध आदि शत्रुओं के लिये भयङ्कर हो । जिस मन में प्रभु का वास होता है, वह इन शत्रुओं के लिये भयङ्कर हो ही जाता है । [२] (यज्ञैः) = यज्ञों के द्वारा (यः) = जो (इन्द्रे) = उस परमैश्वर्यशाली प्रभु में (दुवांसि) = परिचर्या को दधते धारण करता है, (सः) = वही (क्षयत्) = उत्तम निवासवाला होता है। [सः] (राये) = वह ऐश्वर्य के लिये होता है। (ऋतपाः) = जीवन में ऋत का पालन करता है और (ऋतेजाः) = इन ऋतों में, यज्ञों में प्रादुर्भूत शक्तियोंवाला होता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु से हम शत्रु भयंकर मन की ही याचना करें। न तो हम मार्गभ्रष्ट होंगेहिंसित। यज्ञों द्वारा प्रभु का उपासन करने पर हम ऐश्वर्य में निवास करते हुए जीवन में ऋत रक्षण कर पायेंगे।
मराठी (1)
भावार्थ
ज्यांचे मन रागद्वेषरहित असते ते भयंकर कर्म करीत नाहीत. ते परमेश्वराचे सेवक असून धर्मात्मा असतात. ते कधी नष्ट होता कामा नयेत. ॥ ६ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Never does that person waver or go astray, never does he fail or face disaster, never does he hurt anyone, who obeys and serves the venerable thought and will of this awesome master. Whoever reposes his trust and prayers by love, self-sacrifice and yajna in him abides in peace for the achievement of wealth, honour and excellence, serving truth and rising in stature in truth and divine law.
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