ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 20/ मन्त्र 8
यस्त॑ इन्द्र प्रि॒यो जनो॒ ददा॑श॒दस॑न्निरे॒के अ॑द्रिवः॒ सखा॑ ते। व॒यं ते॑ अ॒स्यां सु॑म॒तौ चनि॑ष्ठाः॒ स्याम॒ वरू॑थे॒ अघ्न॑तो॒ नृपी॑तौ ॥८॥
स्वर सहित पद पाठयः । ते॒ । इ॒न्द्र॒ । प्रि॒यः । जनः॑ । ददा॑शत् । अस॑त् । नि॒रे॒के । अ॒द्रि॒ऽवः॒ । सखा॑ । ते॒ । व॒यम् । ते॒ । अ॒स्याम् । सु॒ऽम॒तौ । चनि॑ष्ठाः । स्या॒म॒ । वरू॑थे । अघ्न॑तः । नृऽपी॑तौ ॥
स्वर रहित मन्त्र
यस्त इन्द्र प्रियो जनो ददाशदसन्निरेके अद्रिवः सखा ते। वयं ते अस्यां सुमतौ चनिष्ठाः स्याम वरूथे अघ्नतो नृपीतौ ॥८॥
स्वर रहित पद पाठयः। ते। इन्द्र। प्रियः। जनः। ददाशत्। असत्। निरेके। अद्रिऽवः। सखा। ते। वयम्। ते। अस्याम्। सुऽमतौ। चनिष्ठाः। स्याम। वरूथे। अघ्नतः। नृऽपीतौ ॥८॥
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 20; मन्त्र » 8
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
Acknowledgment
अष्टक » 5; अध्याय » 3; वर्ग » 2; मन्त्र » 3
Acknowledgment
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुना राजभृत्यप्रजाजनाः परस्परं कथं वर्तेरन्नित्याह ॥
अन्वयः
हे अद्रिव इन्द्र ! यः प्रियो जनः सखा निरेकेऽसत्सुखं ददाशद्यस्य तेऽस्यां नृपीतौ सुमतौ वयं चनिष्ठाः स्यामाऽघ्नतस्ते तव वरूथे चनिष्ठाः स्याम तौ द्वौ माननीयौ वयं सत्कुर्याम ॥८॥
पदार्थः
(यः) (ते) तव (इन्द्र) विद्वन् (प्रियः) यः पृणाति सः (जनः) मनुष्यः (ददाशत्) दाशेत् (असत्) भवेत् (निरेके) निःशङ्के व्यवहारे (अद्रिवः) अद्रयो मेघा विद्यन्ते यस्य सूर्यस्य तद्वद्वर्त्तमान (सखा) मित्रः (ते) तव (वयम्) (ते) तव (अस्याम्) (सुमतौ) शोभनायां सम्मतौ (चनिष्ठाः) नृभिर्या पीयते रक्ष्यते तस्याम् (स्याम) (वरूथे) गृहे (अघ्नतः) अहिंसकस्य (नृपीतौ) नृभिर्या पीयते रक्ष्यते तस्याम् ॥८॥
भावार्थः
हे राजन् ! यस्य नीतिज्ञस्य ते ये नीतिमन्तस्त एव प्रिया सन्तु भवाँश्च तेषामेव प्रियो भवेदेवं परस्परं सुहृदो भूत्वैकमत्यं विधाय सततमुन्नतिं त्वं विधेहि ॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर राजा, भृत्य और प्रजाजन परस्पर कैसे वर्त्ताव करें, इस विषय को अगले मन्त्र में कहते हैं ॥
पदार्थ
हे (अद्रिवः) मेघोंवाले सूर्य के समान वर्त्तमान (इन्द्र) विद्वान् ! (यः) जो (प्रियः) प्रसन्न करनेवाला (जनः) मनुष्य (सखा) मित्र (निरेके) निःशंक व्यवहार में (असत्) हो और सुख (ददाशत्) दे जिन (ते) आपके (अस्याम्) इस (नृपीतौ) मनुष्यों से जो रक्षा की जाती उसमें और (सुमतौ) अच्छी सम्मति में (वयम्) हम लोग (चनिष्ठाः) अत्यन्त अन्नादि ऐश्वर्ययुक्त (स्याम) हों और (अघ्नतः) अहिंसक जो (ते) तुम उनके (वरूथे) घर में प्रसिद्ध हों उन मान करने योग्य दो को हम सत्कार युक्त करें ॥८॥
भावार्थ
हे राजन् ! जिस नीतिज्ञ आपके जो नीतिमान् जन हैं वे ही प्रिय हों और आप भी उन्हीं के प्रिय हूजिये, ऐसे परस्पर सुहृद् होकर एक सम्मति कर निरन्तर आप उन्नति कीजिये ॥८॥
विषय
करपद प्रजा की रक्षा का कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( इन्द्र ) ऐश्वर्यवन् सूर्यवत् तेजस्विन् ! हे (अद्रिवः ) मेघ तुल्य शत्रुओं पर शस्त्रवर्षण करने हारे वीर पुरुषों के स्वामिन् ! ( यः ) जो ( ते ) तेरा ( प्रियः जनः ) प्रिय, प्रजाजन ( ददाशद् ) कर आदि देवे, वह ( निरेके ) निःशंक व्यवहार में ( ते सखा ) तेरा मित्र, होकर ( असत् ) रहे। ( वयम् ) हम लोग ( ते ) तेरी ( अस्यां ) इस ( सुमतौ ) शुभ मति में ( चनिष्ठाः ) अन्नादि ऐश्वर्ययुक्त (स्याम) हों और ( अघ्नतः ) न हिंसा करने वाले तुझ पालक के ( नृ-पीते ) उत्तम नायकों द्वारा पालन करने वाले ( वरूथे ) सैन्य या शासन में हम घर के समान हुए ( स्याम ) सुख से रहें।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः। इन्द्रो देवता।। छन्दः— १ स्वराट् पंक्ति:। ७ भुरिक् पंक्तिः। २, ४, १० निचृत्त्रिष्टुप्। ३, ५ विराट् त्रिष्टुप्। ६, ८, ९ त्रिष्टुप्॥ दशर्चं सूक्तम्।।
विषय
प्रभु का प्रिय कौन ?
पदार्थ
[१] हे (अद्रिवः) = आदरणीय (इन्द्र) = परमैश्वर्यशालिन् प्रभो ! (यः) = जो (ते) = आपका (प्रियः जनः) = प्रिय मनुष्य होता है वह ददाशत् खूब ही दान की वृत्तिवाला होता है। यह निरेके सदा शंकाशून्य स्थिति में, निर्भय स्थिति में असत् होता है। ते सखा आपका यह मित्र होता है। [२] हे प्रभो ! (वयम्) = हम (ते) = आपकी (अस्यां सुमतौ) = इस कल्याणी मति में (चनिष्ठाः स्याम) = सदा उत्तम सात्त्विक अन्नों का सेवन करनेवाले हों तथा (अघ्नतः) = हिंसा को न करते हुए हम (नृपीतौ) = मनुष्यों का रक्षण करनेवाले वरूथे गृह में स्याम हों, निवास करें। हमारे घर ऐसे हों जो मनुष्यों का रक्षण करनेवाले हों। इन घरों के अन्दर अग्निहोत्र आदि यज्ञों के होने से नीरोगता का निवास हो ।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु का प्रिय वह है [क] जो दान देता है, [ख] निर्भय है, [ग] प्रभु का मित्र अन्न का सेवन करें, नीरोग घरों में निवासवाले है। प्रभु से कल्याणी मति को प्राप्त करके हम सात्त्विक हों।
मराठी (1)
भावार्थ
हे नीतिज्ञ राजा! तुला जे नीतिमान लोक प्रिय आहेत त्यांचा तूही प्रिय हो. असे परस्पर सुहृद बनून एका विचाराने निरंतर उन्नती कर. ॥ ८ ॥
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra, lord ruler of the world over clouds and mountains, whoever the person that pays homage to you, may he be dear to you as a friend in the open honest business of living. In this social order of goodwill and human welfare of the lord of love and grace free from violence, let us live in peace at home blest with sustenance and security in comfort and divine grace.
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
Shri Virendra Agarwal
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal