ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 83/ मन्त्र 3
सं भूम्या॒ अन्ता॑ ध्वसि॒रा अ॑दृक्ष॒तेन्द्रा॑वरुणा दि॒वि घोष॒ आरु॑हत् । अस्थु॒र्जना॑ना॒मुप॒ मामरा॑तयो॒ऽर्वागव॑सा हवनश्रु॒ता ग॑तम् ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । भूम्याः॑ । अन्ताः॑ । ध्व॒सि॒राः । अ॒दृ॒क्ष॒त॒ । इन्द्रा॑वरुणा । दि॒वि । घोषः॑ । आ । अ॒रु॒ह॒त् । अस्थुः॑ । जना॑नाम् । उप॑ । माम् । अरा॑तयः । अ॒र्वाक् । अव॑सा । ह॒व॒न॒ऽश्रु॒ता॒ । आ । ग॒त॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
सं भूम्या अन्ता ध्वसिरा अदृक्षतेन्द्रावरुणा दिवि घोष आरुहत् । अस्थुर्जनानामुप मामरातयोऽर्वागवसा हवनश्रुता गतम् ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । भूम्याः । अन्ताः । ध्वसिराः । अदृक्षत । इन्द्रावरुणा । दिवि । घोषः । आ । अरुहत् । अस्थुः । जनानाम् । उप । माम् । अरातयः । अर्वाक् । अवसा । हवनऽश्रुता । आ । गतम् ॥ ७.८३.३
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 83; मन्त्र » 3
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(इन्द्रावरुणा) भो युद्धपण्डिता राजपुरुषाः ! (घोषः, दिवि, आरुहत्) युष्मच्छस्त्रशब्दः आकाशे प्रसरतु (सम्, भूम्याः, अन्ताः) अखिलभूमेरन्तः (ध्वसिराः) योद्धृभिर्विनाशितारिः (अदृक्षत) दृश्येत (अरातयः) शत्रवश्च (माम्) मां (जनानाम्) सर्वेषां जनानां समक्षं (उप, अस्थुः) प्राप्नुयुः, तथा (अवसा) आत्मानं रिरक्षयिषवः (हवनश्रुता) अस्मद्यज्ञगिरं श्रुत्वा (अर्वाक्, आगतम्) अस्मदभिमुखमागच्छन्तु ॥३॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(इन्द्रावरुणा) हे युद्धविद्या में निपुण राजपुरुषों ! (घोषः, दिवि, आरुहत्) तुम्हारे शास्त्रों का शब्द आकाश में व्याप्त हो (सं, भूम्याः, अन्ताः) सम्पूर्ण भूमि का अन्त (ध्वसिराः) योद्धाओं से विनाश होता हुआ (अदृक्षत) देखा जाय (अरातयः) शत्रु (माँ) मुझको (जनानां) सब मनुष्यों के समक्ष (उप, अस्थुः) आकर प्राप्त हों और (अवसा) रक्षा चाहते हुए (हवनश्रुता) वैदिकवाणियों के श्रवण द्वारा (अर्वाक्, आगतम्) हमारे सम्मुख आवें ॥३॥
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे राजधर्म का पालन करनेवाले विद्वानों ! तुम शत्रुसेना पर ऐसा घोर आक्रमण करो कि तुम्हारे अस्त्रों-शास्त्रों का शब्द आकाश में गूँज उठे, जिससे तुम्हारे शत्रु वेदवाणी का आश्रयण करते हुए तम्हारी शरण को प्राप्त हों अर्थात् अपने दुष्टभावों का त्याग करते हुए सब प्रजाजनों के समक्ष वेद की शरण में आवें और तुम्हारे योद्धा लोग सीमान्तों में विजय प्राप्त करते हुए शत्रुओं के दुर्गों को छिन्न-भिन्न करके सर्वत्र अपना अधिकार स्थापन करें, जिससे प्रजा वैदिकधर्म का भले प्रकार पालन कर सके ॥३॥
विषय
युद्ध आदि संकट के विकट अवसरों में उनके कर्त्तव्य ।
भावार्थ
जब ( भूम्याः अन्ताः ) भूमि के प्रान्त भाग ( ध्वसिराः सम् अदृक्षन्त ) सब नष्ट भ्रष्ट दिखाई देवें ( दिवि घोषः आरुहत ) आकाश या पृथ्वी भर में बड़ा कोलाहल गूंज रहा हो और ( अरातयः ) शत्रु लोग (जनानाम् उप) राष्ट्रवासी मनुष्यों के पास तक और ( माम् उप अस्थुः ) मुझ प्रजा वर्ग तक आ पहुंचें ऐसी दशा में भी हे ( इन्द्रा-वरुणा ) शत्रु के नाशक और वारक जनो ( हवन-श्रुता ) आह्वान पुकार सुनने वाले आप दोनों दयार्द्र-भाव होकर (अवसा आगतम्) रक्षा-सामर्थ्य सहित प्राप्त होओ। अथवा —भूमि के अन्त दिगन्त पराजित दीखें, आकाश भूमि भर में ( घोषः ) जयघोष उठे । ( जनानाम् अरातयः ) राष्ट्रवासी जनों में विद्यमान अराति, दुष्ट, दूसरों का लेकर न देने वाले अपराधी लोग मेरे पास उपस्थित हों, पकड़ कर हाज़िर किये जावें, तब हे ( हवनश्रुता ) जनता की पुकार, उनके वचनों का श्रवण करते हुए ( अवसा ) न्याय रक्षा द्वारा ( अर्वाक् आ गतम्) आप दोनों सब के सन्मुख आओ ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ इन्द्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः - १, ३, ९ विराड् जगती। २,४,६ निचृज्जगती। ५ आर्ची जगती। ७, ८, १० आर्षी जगती॥ दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
संग्रामों में स्थिर
पदार्थ
पदार्थ- जब (भूम्याः अन्ताः) = भूमि के प्रान्त भाग (ध्वसिराः सम् अदृक्षन्त) = सब नष्टभ्रष्ट दिखाई देवें (दिविः घोषः आरुहत्) = आकाश या पृथ्वी में बड़ा कोलाहल गूँज रहा हो और (अरातयः) = शत्रु लोग (जनानाम् उप) = राष्ट्रवासी मनुष्यों के पास तक और (माम् उप अस्थुः) = मुझ प्रजावर्ग तक आ पहुँचें ऐसी दशा में भी हे (इन्द्रा-वरुणा) = शत्रु के नाशक और वारक जनो ! हवन (श्रुता) = आह्वान पुकार सुननेवाले आप दोनों दयार्द्र होकर (अवसा आगतम्) = रक्षा-सामर्थ्य सहित प्राप्त होओ।
भावार्थ
भावार्थ- यदि शत्रु सेना कोलाहल करती हुई तथा भूमि को नष्ट-भ्रष्ट करती हुए राष्ट्र के अन्दर प्रजाओं तक पहुँच जावे तो भी राजा और सेनापति मनोबल सुदृढ़ रखते हुए शत्रु को परास्त करने का सामर्थ्य जुटावें और प्रजा व राष्ट्र की रक्षा करें।
मन्त्रार्थ
प्राप्त प्रदीप्ति वाले (आवृणे पूषन्) हे आगतघृणे! “अघृणिरागत घृणिः" (निरु० ५|९) या प्राप्त तेज वाले "घृणिर्श्वतो नाम" (निघ० १।१७) सूर्य! या पशुखाद्ययातायातमन्त्री! (अदित्यन्तं चित्) न देने की इच्छावाले को भी (दानाय चोदय) दान के लिए देने के लिये प्रेरित कर (पणेः-चित्-हि मन:-म्रदा) व्यापारी-बदले में देने वाले के मन को भी विना बदले दान देने के लिये मन को मृदु कर दे पिंघला दे ॥३॥
विशेष
ऋषिः– वसिष्ठः (राजपरिवार, राजसभा और प्रजाजनों में अपने विद्यागुणों से अत्यन्त वसने वाला सर्वमान्य विद्वान्) देवता- इन्द्रवरुणौ देवते (मेघताडक इन्द्र- विद्यत् "यदशनिरिन्द्रः") (कौ० ६।९) उसका प्रयोक्ता उस जैसी शक्तिवाला संहारक सेनानायक और वरुण आकाश में फैलकर रहने वाले सूक्ष्म जल“अपः–यच्च वृत्वाऽतिष्ठस्तद्वरुणोऽभवत्तं वा एतं वरणं सन्तम् वरुण इत्याचक्षते परोक्षेण" (गो० पू० १।७) उसका प्रयोक्ता शत्रुप्रहारवारक स्वसेना का रक्षणकर्मनिधायक नीतिज्ञ सेनाध्यक्ष।
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra and Varuna, destroyers of the evil and the violent, look to the ends of the earth, let the clang of arms and roar of battle rise to the sky, let the people’s enemies stand at the door and face me, and in any crisis, as you hear the signal and the clarion call, come forward with all the defence forces.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करतो, की हे राजधर्म पालन करणाऱ्या विद्वानांनो! तुम्ही शत्रूसेनेवर असे भयंकर आक्रमण करा, की तुमचा अस्त्रशस्त्रांचा आवाज आकाशात घुमला पाहिजे. ज्यामुळे तुमचे शत्रू वेदवाणीचा आश्रय घेऊन तुम्हाला शरण यावेत. आपल्या दुष्ट भावाचा त्याग करून सर्व प्रजाजनांसमोर वेदाला शरण यावेत व तुमच्या योद्ध्यांनी सीमांतावर विजय प्राप्त करून त्यांचे (शत्रूंचे) दुर्ग उद्ध्वस्त करावेत व सर्वत्र आपला अधिकार करावा. ज्यामुळे प्रजा वैदिक धर्माचे चांगल्या प्रकारे पालन करू शकेल. ॥३॥
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