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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 83 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 83/ मन्त्र 5
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्रावरुणौ छन्दः - आर्चीजगती स्वरः - निषादः

    इन्द्रा॑वरुणाव॒भ्या त॑पन्ति मा॒घान्य॒र्यो व॒नुषा॒मरा॑तयः । यु॒वं हि वस्व॑ उ॒भय॑स्य॒ राज॒थोऽध॑ स्मा नोऽवतं॒ पार्ये॑ दि॒वि ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    इन्द्रा॑वरुणौ । अ॒भि । आ । त॒प॒न्ति॒ । मा । अ॒घानि॑ । अ॒र्यः । व॒नुषा॑म् । अरा॑तयः । यु॒वम् । हि । वस्वः॑ । उ॒भय॑स्य । राज॑थः । अध॑ । स्म॒ । नः॒ । अ॒व॒त॒म् । पार्ये॑ । दि॒वि ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    इन्द्रावरुणावभ्या तपन्ति माघान्यर्यो वनुषामरातयः । युवं हि वस्व उभयस्य राजथोऽध स्मा नोऽवतं पार्ये दिवि ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    इन्द्रावरुणौ । अभि । आ । तपन्ति । मा । अघानि । अर्यः । वनुषाम् । अरातयः । युवम् । हि । वस्वः । उभयस्य । राजथः । अध । स्म । नः । अवतम् । पार्ये । दिवि ॥ ७.८३.५

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 83; मन्त्र » 5
    अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 4; मन्त्र » 5
    Acknowledgment

    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (इन्द्रावरुणौ) भो विद्यावन्तो राजपुरुषाः ! (मा) मां (अर्यः) शत्रूणां (अरातयः, वनुषाम्) हिंसकानां मध्ये येऽरातयस्तेषां च (अघानि) अहन्तॄणि आयुधानि (अभि, आतपन्ति) सर्वतः क्लिश्नन्ति (हि) निश्चयेन (युवम्) यूयं (वस्वः) तेषां सर्वस्वमपहृत्य (उभयस्य, राजथः) द्विविधानपि बलवतः शत्रून् (अध) अधः पातयत, तथा च (नः, स्म, अवतम्) अस्मान् तेभ्यो रक्षन्तः (पार्ये, दिवि) विजयस्वरूपं पारं गमयत ॥५॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    (इन्द्रावरुणौ) हे विद्यासम्पन्न राजपुरुषो ! (मा) मुझको (अर्यः) शत्रु और (अरातयः, वनुषां) हिंसक शत्रुओं के (अघानि) पापरूप शस्त्र (अभि, आतपन्ति) चारों ओर से तपाते हैं, (हि) निश्चय करके (युवं) आप लोग (वस्वः) उनका सर्वस्व हरण करके (उभयस्य, राजथः) दोनों प्रकार के बलवान् क्षत्रुओं को (अध) नीचे गिरायें और (नः, स्म, अवतं) हमारी उनसे रक्षा करते हुए (पार्ये, दिवि) विजयरूप पार को प्राप्त करायें ॥५॥

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे इन्द्र तथा वरुणसमान युद्धविशारद विद्वानों ! तुम हिंसक तथा अन्य शत्रुओं का सर्वस्व हरण करके उनका नाश करो, जो वेदविहित मर्यादा पर चलनेवाले विद्वानों को तपाते=दुःख देते हैं। हे भगवन् ! आप ऐसी कृपा करें कि उन शत्रुओं का युद्ध में अधःपतन हो और हम विजयरूप पार को प्राप्त हों ॥५॥

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    विषय

    प्रजा की त्राण की प्रार्थना । उन दोनों का महान् सामर्थ्य ।

    भावार्थ

    हे ( इन्द्रावरुणा ) इन्द्र, शत्रुहन्तः ऐश्वर्यवन् ! हे वरुण शत्रुओं के वारक एवं प्रजा द्वारा वरणीय ! ( अर्यः ) शत्रु के किये (अधानि) पापाचार और ( वनुषाम् ) हिंसक जनों या मांग कर ले लेने वालों में से भी ( अरातयः ) दूसरों का सर्वस्व या अधिकार हर कर न देने वाले जन ही ( मा ) मुझ राष्ट्र वासी जन को (अभि आ तपन्ति ) सब ओर से सताया करते हैं । ( युवं हि ) आप दोनों निश्चय से ( उभयस्य ) मुझ प्रजाजन और मुझे सताने वाले ( वस्वः ) राष्ट्र में बसने वाले दोनों के ऊपर ( राजथः ) राजावत् शासन करो ( अध ) इसलिये आप दोनों ( पार्ये दिवि ) पालन करने वाले शासन व्यवहार के पद पर स्थित होकर ( नः अवतं स्म ) हमारी रक्षा किया करो ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ इन्द्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः - १, ३, ९ विराड् जगती। २,४,६ निचृज्जगती। ५ आर्ची जगती। ७, ८, १० आर्षी जगती॥ दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    प्रजा की रक्षा

    पदार्थ

    पदार्थ - हे (इन्द्रावरुणा) = इन्द्र, शत्रुहन्त ! हे वरुण शत्रुओं के वारक (अर्य:) = शत्रु के किये (अघानि) = पापाचार और (वनुषाम्) = हिंसक जनों या माँगनेवालों में से भी (अरातयः) = दूसरों का अधिकार हरकर न देनेवाले जन ही (मा) = मुझ राष्ट्र-वासी जन को (अभि आ तपन्ति) = सताते हैं । (युवं हि) = आप दोनों निश्चय से (उभयस्य) = मुझ प्रजाजन और मुझे सतानेवाले (वस्वः) = राष्ट्र में बसनेवाले दोनों के ऊपर (राजथः) = राजावत् शासन करो, (अध) = इसलिए आप दोनों पायें (दिवि) = पालनेवाले शासन व्यवहार के पद पर स्थित होकर (नः अवतं स्म) = हमारी रक्षा करो।

    भावार्थ

    भावार्थ- राजा और सेनापति का कुर्त्तव्य है कि वे प्रजाओं को बाहरी शत्रुओं के आक्रमणों व राष्ट्र के आन्तरिक हिंसक जनों के त्रास से बचावें । उत्तम शासन व उत्तम सुरक्षा से प्रजा व राष्ट्र की रक्षा करें।

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    मन्त्रार्थ

    (कवे) हे क्रान्तदर्शी दूर तक दिखाने वाले पूषन्-सूर्य या दूर तक देखने वाले पशुखाद्ययातायातमन्त्री ! तू (पणीनां हृदया आरया परितृन्धि) द्यूतव्यवहारियों जुहारियों के हृदयों-हृदयस्थभावों को- कठोरताओं को आरा समान वाक् प्रहार फटकार से 'लुप्तोपमावाचकालङ्कारः' छिन्नभिन्न कर (अथ) अनन्तर (इम्) उन्हें (अस्मभ्यं रन्धय) हमारे लिये संसिद्ध कर अनुकूल बना ॥५॥

    विशेष

    ऋषिः– वसिष्ठः (राजपरिवार, राजसभा और प्रजाजनों में अपने विद्यागुणों से अत्यन्त वसने वाला सर्वमान्य विद्वान्) देवता- इन्द्रवरुणौ देवते (मेघताडक इन्द्र- विद्यत् "यदशनिरिन्द्रः") (कौ० ६।९) उसका प्रयोक्ता उस जैसी शक्तिवाला संहारक सेनानायक और वरुण आकाश में फैलकर रहने वाले सूक्ष्म जल“अपः–यच्च वृत्वाऽतिष्ठस्तद्वरुणोऽभवत्तं वा एतं वरणं सन्तम् वरुण इत्याचक्षते परोक्षेण" (गो० पू० १।७) उसका प्रयोक्ता शत्रुप्रहारवारक स्वसेना का रक्षणकर्मनिधायक नीतिज्ञ सेनाध्यक्ष।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Indra, lord of power, Varuna, lord of justice and mercy, the evil deeds of the violent and the adversities caused by the saboteurs torment me all round. You alone rule and order the power and prosperity of both terrestrial and celestial worlds. Protect us on the earth and lead us to the light and joy of freedom beyond the bounds of earth.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करतो, की हे इंद्र व वरुणप्रमाणे युद्ध विशारद विद्वानांनो! तुम्ही हिंसक व अन्य शत्रूंचे सर्वस्व हरण करून त्यांचा नाश करा जे विद्याविहित मर्यादाप्रमाणे चालणाऱ्या विद्वानांना दु:ख देतात. हे भगवान! तू अशी कृपा कर, की त्या शत्रूंचे युद्धात अध:पतन व्हावे व आम्हाला विजय प्राप्त व्हावा. ॥५॥

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