ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 83/ मन्त्र 8
दा॒श॒रा॒ज्ञे परि॑यत्ताय वि॒श्वत॑: सु॒दास॑ इन्द्रावरुणावशिक्षतम् । श्वि॒त्यञ्चो॒ यत्र॒ नम॑सा कप॒र्दिनो॑ धि॒या धीव॑न्तो॒ अस॑पन्त॒ तृत्स॑वः ॥
स्वर सहित पद पाठदा॒श॒ऽरा॒ज्ञे । परि॑ऽयत्ताय । वि॒श्वतः॑ । सु॒ऽदासे॑ । इ॒न्द्रा॒व॒रु॒णौ॒ । अ॒शि॒क्ष॒त॒म् । श्वि॒त्यञ्चः॑ । यत्र॑ । नम॑सा । क॒प॒र्दिनः॑ । धि॒या । धीऽव॑न्तः । अस॑पन्त । तृत्स॑वः ॥
स्वर रहित मन्त्र
दाशराज्ञे परियत्ताय विश्वत: सुदास इन्द्रावरुणावशिक्षतम् । श्वित्यञ्चो यत्र नमसा कपर्दिनो धिया धीवन्तो असपन्त तृत्सवः ॥
स्वर रहित पद पाठदाशऽराज्ञे । परिऽयत्ताय । विश्वतः । सुऽदासे । इन्द्रावरुणौ । अशिक्षतम् । श्वित्यञ्चः । यत्र । नमसा । कपर्दिनः । धिया । धीऽवन्तः । असपन्त । तृत्सवः ॥ ७.८३.८
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 83; मन्त्र » 8
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
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अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 3
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(यत्र) यस्मिन्युद्धे (नमसा) प्रभुत्वेन (कपर्दिनः) स्वलङ्कृताः (धीवन्तः) बुद्धिमन्तः (तृत्सवः) कर्मकाण्डिनः (श्वित्यञ्चः) सदाचारिणः (असपन्त, धिया) युद्धकर्मसु बुद्ध्या प्रवर्त्तन्ते, तत्र युद्धे (विश्वतः) सर्वतः (दाशराज्ञे, परियत्ताय) दशभिर्नृपैराक्रान्तान् (सुदासे) वेदानुयायिनो नृपस्य (इन्द्रावरुणौ) हे शस्त्रास्त्रविद्यावेत्तारो विद्वांसः (अशिक्षतम्) पर्याप्तबलान् कुरुत ॥८॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(यत्र) जिस युद्ध में (नमसा) प्रभुता से (कपर्दिनः) उत्तम अलंकारयुक्त (धीवन्तः) बुद्धिमान् (तृत्सवः) कर्मकाण्डी (श्वित्यञ्चः) सदाचारी (असपन्त) युद्ध्रूप कर्म में (धिया) बुद्धिपूर्वक प्रवृत्त होता है, उस युद्ध में (विश्वतः) सब ओर से (दाशराज्ञे, परियत्ताय) दश राजाओं के आक्रमण करने पर (सुदासे) वेदानुयायी राजा को (इन्द्रावरुणौ) हे अस्त्र-शस्त्रों की विद्या में कुशल विद्वानों ! (अशिक्षतं) बल प्रदान करो ॥८॥
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करते हैं कि राजा लोगो ! तुम कर्मकाण्डयुक्त तथा सदाचारसम्पन्न होकर अपने कार्यों को विधिवत् करो और युद्धरूप कर्म में बुद्धिपूर्वक प्रवृत्त होओ। जो सदाचारसम्पन्न राजा बुद्धिपूर्वक युद्ध करता है, उसको अनेक राजा सब ओर से आक्रमण करने पर भी विजय नहीं कर सकते। परमात्मा आज्ञा देते हैं कि हे धनुर्विद्यासम्पन्न अध्यापक तथा उपदेशको ! तुम ऐसे धर्मपरायण राजा की सदा सहायता करो, जिससे वह शीघ्र कृतकार्य हो ॥८॥
विषय
दश राजा, सुदास, तृत्सु उनका रहस्य, सभा-सेनाध्यक्षों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
( परियत्ताय ) सब तरफ से नियन्त्रित, (दाश-राज्ञे) दशों राजाओं के बीच प्रबल होकर विद्यमान ( सुदासे ) उत्तम दानशील राजा को हे ( इन्द्रावरुणा ) ऐश्वर्यवन् हे शत्रुवारणकारी मनुष्य वर्गों ! वा अध्यक्ष जनो! (अशिक्षतम्) आप दोनों ज्ञान, बल प्रदान करो (यत्र) जिसके अधीन ( श्वित्यञ्चः ) श्वित अर्थात् उज्वल यश या समृद्धि को प्राप्त ( कपर्दिनः ) उत्तम जटाजूट वाले वा उत्तम धन सम्पन्न और ( धीवन्तः ) बुद्धिमान् और कर्मकुशल ( तृत्सवः ) शत्रु नाशकारी, संशयछेदी, त्रिविध ऐश्वर्यों के स्वामी लोग ( नमसा ) आदर पूर्वक अन्न और वज्र शस्त्रादि सहित (असपन्त) समवाय बनाकर रहते हैं । [ कपर्दिनः— कपर्दः—जटा-जूटः अथवा कपर्दः धनम् । कौड़ी इत्युपलक्षणम् । तद्वन्तः ] पैसे वाले । अर्थात् जिसके अधीन धनाढ्य, कीर्त्तिमान, समृद्ध, बुद्धिमान और वीर पुरुष सब एकत्र हो जायं उसी प्रकार उत्तम वृत्तिदाता, राजा 'इन्द्र वरुण' पदाध्यक्ष बलैश्वर्य दें। अध्यात्म में—देह में दश प्राण, दश इन्द्रियगण दश राजा हैं, वे दस स्थानों पर पृथक् विद्यमान हैं। परस्पर उनका कोई सीधा सम्बन्ध या संगति नहीं होने से 'अयज्यु' हैं । एक ही साथ वे हमें प्राप्त ( सम्-इताः ) हैं । आत्मा 'सुदास' है प्राण अपान इन्द्र-वरुण हैं । सुखप्रद ज्ञान तन्तु गण तृत्सु हैं । वे सुखपूर्वक होने से 'कपर्दि' हैं । वे 'नमसा धिया' अन्न और बुद्धि के बल से आत्मा के अधीन रहते हैं ।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ इन्द्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः - १, ३, ९ विराड् जगती। २,४,६ निचृज्जगती। ५ आर्ची जगती। ७, ८, १० आर्षी जगती॥ दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
कूटनीतिक राजा
पदार्थ
पदार्थ- (परियत्ताय) = सब ओर से नियन्त्रित, (दाश-राज्ञे) = दशों राजाओं के बीच प्रबल, (सुदासे) = उत्तम दानशील राजा को हे (इन्द्रावरुणा) = ऐश्वर्यवन्! हे शत्रुवारणकारी मनुष्य वर्गों! (अशिक्षतम्) = आप दोनों ज्ञान, बल दो (यत्र) = जिसके अधीन (श्वित्यञ्चः) = उज्ज्वल यश, या समृद्धि को प्राप्त (कपर्दिनः) = उत्तम जटाजूट वा उत्तम धन-सम्पन्न और (धीवन्तः) = बुद्धिमान्, (तृत्सवः) = शत्रुनाशक, त्रिविध ऐश्वर्यों के स्वामी लोग (नमसा) = आदर पूर्वक अन्न, वज्र, शस्त्रादि-सहित (असपन्त) = समूह बनाकर रहते हैं। [कपर्दिन:- कपर्द:- जटाजूट: अथवा कपर्दः धनम्। कौड़ी इत्युपलक्षणम्। तद्वन्तः] पैसेवाले। अध्यात्म में- दश प्राण, दश इन्द्रियें दश राजा हैं, वे दस स्थानों पर पृथक्-पृथक् विद्यमान हैं। परस्पर उनका कोई सीधा सम्बन्ध न होने से 'अयज्यु' हैं। वे एक ही साथ हमें प्राप्त (सम्-इता:) = हैं। आत्मा 'सुदास' है, प्राण अपान इन्द्र-वरुण हैं। सुखप्रद ज्ञानतन्तु 'तृत्सु' हैं वे सुखपूर्वक होने से 'कपर्दी' हैं। वे 'नमसा, धिया' अन्न और बुद्धि के बल से आत्मा के अधीन हैं।
भावार्थ
भावार्थ- प्रजाहितैषी राजा पर यदि दस शत्रु राजा भी एक साथ मिलकर आक्रमण करें तो भी वह नहीं हार सकता। क्योंकि सेना, प्रजा तथा गुप्तचर मिलकर उन शत्रुओं की शक्ति को ध्वस्त कर देंगे।
मन्त्रार्थ
(घृणे पूषन्) हे आगतघृणे-प्राप्तदीप्ति वाले पूषन्-सूर्य या पशुखाद्ययातायातमन्त्री ! (यां ब्रह्मचोदनीम्-आरां विभर्षि) जिस अन्न प्रेरिका "ब्रह्म अन्ननाम" (निघ० २।७) (आरा)-हल जोतने की शलाका फाली को धारण कर रहा भूमि या खेत को चीर देने के लिये (तया समस्य हृदयम्-आरिख किकिरा कृणु) उससे सब दुर्व्यवहारकर्त्ता के हृदयों-हृदयस्थदुर्भावों को उखेड और विखेर दे-चूर चूर कर दे ॥८॥
विशेष
ऋषिः– वसिष्ठः (राजपरिवार, राजसभा और प्रजाजनों में अपने विद्यागुणों से अत्यन्त वसने वाला सर्वमान्य विद्वान्) देवता- इन्द्रवरुणौ देवते (मेघताडक इन्द्र- विद्यत् "यदशनिरिन्द्रः") (कौ० ६।९) उसका प्रयोक्ता उस जैसी शक्तिवाला संहारक सेनानायक और वरुण आकाश में फैलकर रहने वाले सूक्ष्म जल“अपः–यच्च वृत्वाऽतिष्ठस्तद्वरुणोऽभवत्तं वा एतं वरणं सन्तम् वरुण इत्याचक्षते परोक्षेण" (गो० पू० १।७) उसका प्रयोक्ता शत्रुप्रहारवारक स्वसेना का रक्षणकर्मनिधायक नीतिज्ञ सेनाध्यक्ष।
इंग्लिश (1)
Meaning
Indra and Varuna, you come to the help of the liberal man of charity and the benevolent ruler surrounded by hostilities all round, and you join his house of yajnic discipline and ruling order where intelligent and pious sages help the priestly performers with offers of oblations and thoughts of wisdom.
मराठी (1)
भावार्थ
परमात्मा उपदेश करतो, की हे राजांनो! तुम्ही कर्मकांडयुक्त व सदाचारसंपन्न होऊन आपले कार्य विधिवत् करा. बुद्धिपूर्वक युद्धरूपी कर्मात प्रवृत्त व्हा. जो सदाचारसंपन्न राजा बुद्धिपूर्वक युद्ध करतो, अनेक राजे सगळीकडून आक्रमण करूनही त्याच्यावर विजय प्राप्त करू शकत नाहीत. परमात्मा आज्ञा देतो, की हे धनुर्विद्यासंपन्न अध्यापक व उपदेशकांनो! तुम्ही धर्मपरायण राजाची सदैव सहायता करा. ज्यामुळे त्याने तात्काळ कृतकार्य व्हावे. ॥८॥
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