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ऋग्वेद मण्डल - 7 के सूक्त 83 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 83/ मन्त्र 6
    ऋषिः - वसिष्ठः देवता - इन्द्रावरुणौ छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    यु॒वां ह॑वन्त उ॒भया॑स आ॒जिष्विन्द्रं॑ च॒ वस्वो॒ वरु॑णं च सा॒तये॑ । यत्र॒ राज॑भिर्द॒शभि॒र्निबा॑धितं॒ प्र सु॒दास॒माव॑तं॒ तृत्सु॑भिः स॒ह ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    यु॒वाम् । ह॒व॒न्ते॒ । उ॒भया॑सः । आ॒जिषु॑ । इन्द्र॑म् । च॒ । वस्वः॑ । वरु॑णम् । च॒ । सा॒तये॑ । यत्र॑ । राज॑ऽभिः । द॒शऽभिः॑ । निऽबा॑धितम् । प्र । सु॒ऽदास॑म् । आव॑तम् । तृत्सु॑ऽभिः । स॒ह ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    युवां हवन्त उभयास आजिष्विन्द्रं च वस्वो वरुणं च सातये । यत्र राजभिर्दशभिर्निबाधितं प्र सुदासमावतं तृत्सुभिः सह ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    युवाम् । हवन्ते । उभयासः । आजिषु । इन्द्रम् । च । वस्वः । वरुणम् । च । सातये । यत्र । राजऽभिः । दशऽभिः । निऽबाधितम् । प्र । सुऽदासम् । आवतम् । तृत्सुऽभिः । सह ॥ ७.८३.६

    ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 83; मन्त्र » 6
    अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 1
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    भो इन्द्रवरुणस्वरूपा योद्धारः ! (युवाम्) युष्मान् वयम् (उभयासः, आजिषु) उभयविधेषु युद्धेषु (हवन्ते) आह्वयामः (इन्द्रम्, च, वस्वः) इन्द्रं धनाय (च) तथा (वरुणम्, सातये) वरुणं च विजयप्राप्त्यै (यत्र) यस्मिन्युद्धे (दशभिः, राजभिः) दशसङ्ख्याकै राजभिः (निबाधितम्) आक्रान्तं (तृत्सुभिः, सह) त्रिविधैर्ज्ञानिभिः सह (सुदासम्) सुनृपं (आवतम्) प्राप्नुत–रक्षत ॥६॥

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    हिन्दी (4)

    पदार्थ

    हे इन्द्र तथा वरुणरूप योद्धाओं ! (युवां) आपको हम लोग (उभयासः, आजिषु) दोनों प्रकार के युद्धों में (हवन्ते) बुलाते हैं (इन्द्रं, च, वस्वः) इन्द्र को धन के लिए (च) और (वरुणं, सातये) वरुण को विजयप्राप्ति के लिए (यत्र) जिस युद्ध में (दशभिः, राजभिः) दश प्रकार के राजाओं से (निबाधितं) पीड़ा को प्राप्त (तृत्सुभिः, सह) तीनों प्रकार के ज्ञानियों के साथ (सुदासं) योग्य राजा को (आवतं) प्राप्त होओ ॥६॥

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करते हैं कि हे इन्द्र तथा वरुणरूप विद्वानों ! तुम युद्धों में विजयप्राप्त करते हुए कर्मानुष्ठानी तथा वेदविद्याप्रकाशक विद्वानों की रक्षा करो अर्थात् कर्म, उपासना तथा ज्ञान द्वारा भक्तिभाव को प्राप्त पुरुषों की सेवा में सदा तत्पर रहो, जिससे उन्हें कोई कष्ट प्राप्त न हों ॥६॥

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    विषय

    दश राजा, सुदास, तृत्सु उनका रहस्य, सभा-सेनाध्यक्षों के कर्त्तव्य ।

    भावार्थ

    ( यत्र ) जिन संग्रामों में (दशभिः राजभिः) दसों राजाओं वा तेजस्वी पुरुषों से ( नि बाधितम् ) अति पीड़ित ( सुदासं ) उत्तम दानशील पुरुष को ( तृत्सुभिः ) शत्रु को काट गिरा देने वाले वीर भटों के साथ ( प्र अवतम्) अच्छी प्रकार रक्षा करते हो उन ( आजिषु ) युद्धों में ( इन्द्रं च ) ऐश्वर्यवान् और ( वरुणं च ) श्रेष्ठ ( युवां ) आप दोनों को ( वस्वः सातये ) धनैश्वर्यादि के लाभ के लिये ( उभयासः ) वादी प्रतिवादी दोनों पक्ष के लोग ( हवन्ते ) पुकारते हैं, दोनों आप से न्याय देने की प्रार्थना करते हैं ।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    वसिष्ठ ऋषिः ॥ इन्द्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः - १, ३, ९ विराड् जगती। २,४,६ निचृज्जगती। ५ आर्ची जगती। ७, ८, १० आर्षी जगती॥ दशर्चं सूक्तम् ॥

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    विषय

    प्रजाहित

    पदार्थ

    पदार्थ- (यत्र) = जिन संग्रामों में (दशभिः राजभिः) = दसों राजाओं वा तेजस्वी पुरुषों से (नि बाधितम्) = अति पीड़ित (सुदासं) = उत्तम दानशील पुरुष की (तृत्सु)भिः = शत्रु को काटनेवाले वीर भटों से (प्र अवतम्) = रक्षा करते हो, उन (आजिषु) = युद्धों में (इन्द्रं च) = ऐश्वर्यवान् और (वरुणं च) = श्रेष्ठ (युवां) = आप दोनों को (वस्वः सातये) = धनैश्वर्यादि के लाभ के लिये (उभयासः) = वादी प्रतिवादी दोनों पक्ष के लोग (हवन्ते) = पुकारते हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ-संग्रामों में पीड़ित जनों को हुए नुकसान की भरपाई के लिए राजा को योग्य है वह प्रजा के मध्य में जाकर दिग्दर्शन करे तथा प्रजाजनों को उचित सहयोग व सहायता करे।

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    मन्त्रार्थ

    (पूषन्-आरया वितुद) हे पूषा पूर्वोक्तपुष्टिकर्त्ता तू ! समस्त रमण करने वाले फटकार से द्यूतव् यवहारियों के हृदयस्थभावों को विशेषरूप से हिलादे (पणे:-हृदि प्रियम्-इच्छ) द्यूतव्यापारी के हृदय में अनुकूल दानभाव की चाहना करा (अथेम०) पूर्ववत् ॥६॥

    विशेष

    ऋषिः– वसिष्ठः (राजपरिवार, राजसभा और प्रजाजनों में अपने विद्यागुणों से अत्यन्त वसने वाला सर्वमान्य विद्वान्) देवता- इन्द्रवरुणौ देवते (मेघताडक इन्द्र- विद्यत् "यदशनिरिन्द्रः") (कौ० ६।९) उसका प्रयोक्ता उस जैसी शक्तिवाला संहारक सेनानायक और वरुण आकाश में फैलकर रहने वाले सूक्ष्म जल“अपः–यच्च वृत्वाऽतिष्ठस्तद्वरुणोऽभवत्तं वा एतं वरणं सन्तम् वरुण इत्याचक्षते परोक्षेण" (गो० पू० १।७) उसका प्रयोक्ता शत्रुप्रहारवारक स्वसेना का रक्षणकर्मनिधायक नीतिज्ञ सेनाध्यक्ष।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Both the people and the leaders call upon you in battles, O Indra and Varuna, for victory in battle and regaining of success and prosperity. They call upon you in battle where you defend the generous ruler against tens of tormenting dictators and, alongwith the ruler, you save three orders of scholars and sages in three fields of arts, sciences and universal values of Dharma and justice.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमात्मा उपदेश करतो, की हे इंद्र व वरुणरूप विद्वानांनो! तुम्ही युद्धात विजय प्राप्त करून कर्मानुष्ठानी व वेदविद्यांप्रकाशक विद्वानांचे रक्षण करा. कर्म, उपासना व ज्ञानाद्वारे भक्तिभाव प्राप्त झालेल्या पुरुषांच्या सेवेत सदैव तत्पर राहा. ज्यामुळे त्यांना कोणताही त्रास होता कामा नये. ॥६॥

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