ऋग्वेद - मण्डल 7/ सूक्त 83/ मन्त्र 9
वृ॒त्राण्य॒न्यः स॑मि॒थेषु॒ जिघ्न॑ते व्र॒तान्य॒न्यो अ॒भि र॑क्षते॒ सदा॑ । हवा॑महे वां वृषणा सुवृ॒क्तिभि॑र॒स्मे इ॑न्द्रावरुणा॒ शर्म॑ यच्छतम् ॥
स्वर सहित पद पाठवृ॒त्राणि॑ । अ॒न्यः । स॒म्ऽइ॒थेषु॑ । जिघ्न॑ते । व्र॒तानि॑ । अ॒न्यः । अ॒भि । र॒क्ष॒ते॒ । सदा॑ । हवा॑महे । वा॒म् । वृ॒ष॒णा॒ । सु॒वृ॒क्तिऽभिः॑ । अ॒स्मे इति॑ । इ॒न्द्रा॒व॒रु॒णा॒ । शर्म॑ । य॒च्छ॒त॒म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
वृत्राण्यन्यः समिथेषु जिघ्नते व्रतान्यन्यो अभि रक्षते सदा । हवामहे वां वृषणा सुवृक्तिभिरस्मे इन्द्रावरुणा शर्म यच्छतम् ॥
स्वर रहित पद पाठवृत्राणि । अन्यः । सम्ऽइथेषु । जिघ्नते । व्रतानि । अन्यः । अभि । रक्षते । सदा । हवामहे । वाम् । वृषणा । सुवृक्तिऽभिः । अस्मे इति । इन्द्रावरुणा । शर्म । यच्छतम् ॥ ७.८३.९
ऋग्वेद - मण्डल » 7; सूक्त » 83; मन्त्र » 9
अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
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अष्टक » 5; अध्याय » 6; वर्ग » 5; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(अन्यः, समिथेषु) एको योद्धा युद्धक्षेत्रे (वृत्राणि, जिघ्नते) शत्रूञ्जयति (अन्यः) एकः (सदा) सततं (अभि) सर्वथा (व्रतानि) नियमान् (रक्षते) संसेव्य रक्षति (इन्द्रावरुणा) भो इन्द्रवरुणस्वरूपा योद्धारः ! (वाम्) यूयम् (अस्मे) अस्मभ्यम् (शर्म यच्छतम्) सुखं प्रयच्छत यतो यूयम् (वृषणा) योद्धुरभिलाषप्रदातारः (सुवृक्तिभिः) शुभमार्गप्रवर्त्तकाश्च स्थः, अतः (हवामहे) वयं युष्मानाह्वयामः ॥९॥
हिन्दी (4)
पदार्थ
(अन्यः, समिथेषु) एक शूरवीर युद्धों में (वृत्राणि, जिघ्नते) शत्रुओं को विजय करता (अन्यः) एक (सदा) सदैव (अभि) सर्वप्रकार से (व्रतानि) नियमों की (रक्षते) रक्षा करता है, (इन्द्रावरुणा) इन्द्र और वरुणरूप योद्धाओं ! (वां) आप (अस्मे) हमको (शर्म, यच्छतं) सुख प्राप्त करायें, क्योंकि आप (वृषणा) युद्ध की कामना पूर्ण करनेवाले और (सुवृक्तिभिः) शुभ मार्गों में प्रवृत्त करानेवाले हैं, इसलिये (हवामहे) हम आपका आह्वान करते हैं ॥९॥
भावार्थ
जो राजा लोग व्रतों की रक्षा करते और दुष्ट शत्रुओं का दमन करते हैं, हे अस्त्रशस्त्रविद्यावेत्ता विद्वानों ! तुम उनकी सहायता करो, क्योंकि व्रतपालन तथा दुष्टदमन किये बिना प्रजा में सुख का संचार कदापि नहीं हो सकता, इसी अभिप्राय से वेद में अन्य उपदेश किया है कि–अग्ने व्रतपते व्रतं चरिष्यामि तच्छकेयं तन्मे राध्यताम् इदमहमनृतात् सत्यमुपैमि ॥ यजु०॥१॥५॥ अर्थ–हे व्रतों के पति परमात्मा ! मैं आपकी कृपा से व्रत का पालन करुँ, ताकि असत्यमार्ग को त्याग कर सत्य पथ को प्राप्त होऊँ। इस प्रकार वेदों में सर्वत्र नियमपालनरूप व्रत का बलपूर्वक उपदेश किया गया है। उसी की दृढ़ता का इस मन्त्र में वर्णन किया है। या यों कहो कि परमात्मा दृढ़व्रती लोगों के सदैव सहायक होते हैं और परमात्मा के नियम पर चलनेवाले पुरुषों को भी उचित है कि वे ऐसे भावोंवाले पुरुषों के सहायक बनें ॥९॥
विषय
दश राजा, सुदास, तृत्सु उनका रहस्य, सभा-सेनाध्यक्षों के कर्त्तव्य ।
भावार्थ
हे ( इन्द्रा-वरुणा ) ऐश्वर्यवन् वा शत्रुहन्तः ! हे वरुण ! दुष्ट स्वभावों को वारण करने हारे ! आप दोनों में से ( अन्यः ) दुष्ट और एक तो ( समिथेषु ) संग्राम और उपकारक कामों वा यज्ञों में ( वृत्राणि जिध्नते) बढ़ते, विघ्नकारी पुरुषों को दण्ड देता है और ( अन्यः ) दूसरा विद्वान् आचार्य—(सदा व्रतानि अभि रक्षते) सदा व्रतों की रक्षा करता है। हम लोग ( सुवृक्तिभिः ) उत्तम, आदरपूर्वक वरण क्रियाओं और स्तुतियों से ( वां हवामहे ) आप दोनों को बुलाते हैं, अपनाते हैं और धन, मान आदि प्रदान करते हैं । हे इन्द्र ! हे वरुण ! सेना-सभाध्यक्षो! (अस्ये) हमें आप दोनों ( शर्म यच्छतम् ) सुख प्रदान करो ।
टिप्पणी
‘सुवृक्तिः’ - अन्न ककारोपजनश्छान्दसः॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
वसिष्ठ ऋषिः ॥ इन्द्रावरुणौ देवते ॥ छन्दः - १, ३, ९ विराड् जगती। २,४,६ निचृज्जगती। ५ आर्ची जगती। ७, ८, १० आर्षी जगती॥ दशर्चं सूक्तम् ॥
विषय
यज्ञव्रतों की रक्षा
पदार्थ
पदार्थ- हे (इन्द्रा) = वरुणा - ऐश्वर्यवन् ! हे वरुण! दुष्टों के वारक! आप दोनों में से (अण्यः) = एक तो (समिथेषु) = संग्राम और यज्ञों में (वृत्राणि जिघ्नते) = बढ़ते, विघ्नकारी पुरुषों को दण्ड देता है और (अन्य:) = दूसरा विद्वान् आचार्य (सदा व्रतानि अभि रक्षते) = सदा व्रतों की रक्षा करता है। हम लोग (सुवृक्तिभिः) = उत्तम स्तुतियों से वां हवामहे आप दोनों को बुलाते, अपनाते, धन, मान आदि देते हैं। हे इन्द्र ! हे वरुण ! सेना- सभाध्यक्षो! (अस्मे) = हमें आप दोनों (शर्म यच्छतम्) = सुख दो।
भावार्थ
भावार्थ- राजा व सेनापति दोनों मिलकर प्रजाजनों के यज्ञ की रक्षा करें। जो यज्ञों में विघ्न डालनेवाले कुटिल जन हैं उन्हें दण्डित करें, तथा विद्वानों के द्वारा प्रजाजनों के व्रतों की रक्षा करें। इससे राजा प्रजा में प्रतिष्ठित होता है।
मन्त्रार्थ
(घृणे) हे आगतघृणे- प्राप्तदीप्ति वाले पूषा! सूर्य या पशुखाद्ययातायातमन्त्री ! (ते या अष्ट्रा गो अपशा) तेरी जो व्यापनेवाली किरणों में भली भांति उपशयन करने वाली तेज शक्ति या गौ-बैलों में समस्त रूप से आरा-अणि (पशु साधनी) पशुओं देखने वालों को सावधान रखनेवाली या गौ आदि को नियन्त्रण में रखने वाली है (ते तस्याः-सुम्नम्-ईमहे) तेरी उस आरा शासनी से हम सुख मांगते हैं - चाहते हैं ॥९॥
टिप्पणी
लिख विलेखने लकारस्य रेफश्छान्दसः "कृ विक्षेपे" ( तुदादि० ) ततः 'इगुपधज्ञ। प्रीकिरः कः' (अष्टा० ३|१|१३७) श्लुवच्छान्दसम्। गोषु-आ समन्तात् उपशेते सा गो श्रपशा 'सप्तम्यां जनेर्ड अन्येष्वपि दृश्यन्ते
विशेष
ऋषिः– वसिष्ठः (राजपरिवार, राजसभा और प्रजाजनों में अपने विद्यागुणों से अत्यन्त वसने वाला सर्वमान्य विद्वान्) देवता- इन्द्रवरुणौ देवते (मेघताडक इन्द्र- विद्यत् "यदशनिरिन्द्रः") (कौ० ६।९) उसका प्रयोक्ता उस जैसी शक्तिवाला संहारक सेनानायक और वरुण आकाश में फैलकर रहने वाले सूक्ष्म जल“अपः–यच्च वृत्वाऽतिष्ठस्तद्वरुणोऽभवत्तं वा एतं वरणं सन्तम् वरुण इत्याचक्षते परोक्षेण" (गो० पू० १।७) उसका प्रयोक्ता शत्रुप्रहारवारक स्वसेना का रक्षणकर्मनिधायक नीतिज्ञ सेनाध्यक्ष।
इंग्लिश (1)
Meaning
Of Indra and Varuna, one destroys evil and darkness in the battles of life, the other always protects the laws and observances of pious people’s holy disciplines. O generous and divine lords of power and wisdom, we invoke you and offer you homage with adorations and holy presentations. May Indra and Varuna give us a happy home of peace and prosperity.
मराठी (1)
भावार्थ
जे राजे व्रताचे रक्षण करतात व दुष्ट शत्रूंचे दमन करतात हे अस्त्रशस्त्र विद्यावेत्त्यांनो! तुम्ही त्यांची सहायता करा. कारण व्रतपालन व दुष्टदमन केल्याशिवाय कधीही प्रजेला सुख मिळू शकत नाही.
टिप्पणी
इदमहमनृतात् सत्यमुपैमि ॥यजु.॥१॥५॥ $ भावार्थ - हे व्रतपालक परमेश्वरा! मी तुझ्या कृपेने व्रताचे पालन करावे. त्यामुळे असत्यमार्ग सोडून सत्य पथाचा अवलंब करावा. याप्रमाणे वेदात सर्वत्र नियमपालनरूपी व्रताचा आग्रहपूर्वक उपदेश केलेला आहे. त्याच दृढतेचे या मंत्रात वर्णन आहे. परमात्मा दृढव्रती लोकांचा सदैव सहायक असतो. परमात्म्याच्या नियमानुसार चालणाऱ्या पुरुषांनी अशा प्रकारच्या पुरुषांचे सहायक बनावे. ॥९॥
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