ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 79/ मन्त्र 4
त्वं चि॒त्ती तव॒ दक्षै॑र्दि॒व आ पृ॑थि॒व्या ऋ॑जीषिन् । यावी॑र॒घस्य॑ चि॒द्द्वेष॑: ॥
स्वर सहित पद पाठत्वम् । चि॒त्ती । तव॑ । दक्षैः॑ । दि॒वः । आ । पृ॒थि॒व्याः । ऋ॒जी॒षि॒न् । यावीः॑ । अ॒घस्य॑ । चि॒त् । द्वेषः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
त्वं चित्ती तव दक्षैर्दिव आ पृथिव्या ऋजीषिन् । यावीरघस्य चिद्द्वेष: ॥
स्वर रहित पद पाठत्वम् । चित्ती । तव । दक्षैः । दिवः । आ । पृथिव्याः । ऋजीषिन् । यावीः । अघस्य । चित् । द्वेषः ॥ ८.७९.४
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 79; मन्त्र » 4
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 33; मन्त्र » 4
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 33; मन्त्र » 4
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
Soma, lover of peace and joy, protector of the simple and honest people of rectitude, by your divine love and kindness of heart and your universal potential of the light of heaven, drive away the jealousy and enmity of the sinners and criminals from all over the earth.
मराठी (1)
भावार्थ
यातून ही शिकवण दिली जाते, की माणसांनी द्वेष व निन्दा इत्यादी अवगुणांचा त्याग केल्यावरच जगाचे कल्याण होते. ॥४॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
ऋजीषिन्=हे ऋजुजनाभिलाषिन् ! त्वं+चित्ती=चित्त्या मनसा । तव+दक्षैः=स्वकीयबलैः । दिवः=द्युलोकात् । आ पुनः पृथिव्याः । अघस्य+चित्=पापस्य चित् । द्वेषः । यावीः=पृथक् कुरु ॥४ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
हे (ऋजीषिन्) सज्जन साधुजनों के रक्षक और अभिलाषिन् ! (त्वं) तू (चित्ती) अपनी अचिन्त्य शक्ति और मन से (तव+दक्षैः) अपने महान् बल से (दिवः) द्युलोक से (आ) और (पृथिव्याः) पृथिवी पर से (अघस्य) पापी जनों के (द्वेषः) द्वेषों को (यावीः) दूर कर दे ॥४ ॥
भावार्थ
इससे यह शिक्षा दी जाती है कि मनुष्यमात्र द्वेष और निन्दा आदि अवगुण त्याग दे, तब ही जगत् का कल्याण है ॥४ ॥
विषय
उत्तम सञ्चालक।
भावार्थ
हे ( ऋजीषिन् ) प्रजा जनों को सन्मार्ग में चलाने हारे ! हे शत्रुओं को भूनने, संतप्त करने वाले सैन्य के सञ्चालक ! ( त्वं ) तू ( तत्र ) तेरे अपने ( चित्ती ) ज्ञान, बुद्धि और ( दक्षैः ) बलों से, ( दिवः पृथिव्याः आ ) आकाश और पृथिवी से आने वाले ( अधस्य चित् द्वेषः यावीः ) शत्रु के सब द्वेष भावों को दूर कर।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कृत्नुर्भार्गव ऋषिः। सोमो देवता॥ छन्दः—१, २, ६ निचृद् गायत्री। ३ विराड् गायत्री। ४, ५, ७, ८ गायत्री। ९ निचृदनुष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥
विषय
चित्ती+दक्षैः
पदार्थ
[१] हे (ऋजीषिन्) = ऋजुता [=सरलता] के मार्ग की प्रेरणा देनेवाले प्रभो ! (त्वम्) = आप (तव) = अपने (चित्ती) = ज्ञान से तथा (दक्षैः) = बलों से (दिवः) = मस्तिष्क के दृष्टिकोण से तथा (पृथिव्याः) = शरीर के दृष्टिकोण से [पृथिवी शरीरम्] (अघस्य) = हमारा हनन करनेवाले पापी के (चित्) = भी (द्वेषः) = द्वेष को (आयावी:) = सर्वतः हमारे से पृथक् करिये। [२] ज्ञान और बल हमें द्वेष से दूर करते हैं । द्वेष के अभाव में ज्ञान और बल की वृद्धि होती है। तभी मस्तिष्क व शरीर का ठीक से विकास हो पाता है।
भावार्थ
भावार्थ- प्रभु हमें ज्ञान व शक्ति देकर द्वेष से दूर करें। निर्देषता हमारे मस्तिष्क व शरीर को ठीक रखती है।
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