ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 79/ मन्त्र 6
वि॒दद्यत्पू॒र्व्यं न॒ष्टमुदी॑मृता॒युमी॑रयत् । प्रेमायु॑स्तारी॒दती॑र्णम् ॥
स्वर सहित पद पाठवि॒दत् । यत् । पू॒र्व्यम् । न॒ष्टम् । उत् । ई॒म् । ऋ॒त॒ऽयुम् । ई॒र॒य॒त् । प्र । ई॒म् । आयुः॑ । ता॒री॒त् । अती॑र्णम् ॥
स्वर रहित मन्त्र
विदद्यत्पूर्व्यं नष्टमुदीमृतायुमीरयत् । प्रेमायुस्तारीदतीर्णम् ॥
स्वर रहित पद पाठविदत् । यत् । पूर्व्यम् । नष्टम् । उत् । ईम् । ऋतऽयुम् । ईरयत् । प्र । ईम् । आयुः । तारीत् । अतीर्णम् ॥ ८.७९.६
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 79; मन्त्र » 6
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 34; मन्त्र » 1
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 34; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
By the grace of Soma, the devotee recovers what he lost earlier, the lord exhorts and exalts the yajnic performer and observer of the law of truth, and he increases, strengthens and fulfils the life which the celebrant has yet to live.
मराठी (1)
भावार्थ
उपासकांनी धैर्याने ईश्वराची उपासना करावी. सज्जनांचे रक्षण करावे व आपले आयुष्य वाढवावे. ॥६॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे भगवन् ! तवोपासकः । यद् वस्तु पूर्व्यं=पूर्वम् । नष्टम् । तद् । विदत्=प्राप्नोति । ऋतायुं=सत्याभिलाषिणं जनम् । ईं=निश्चयेन । उदीरयत्=उदीरयतु=वर्धयतु । अतीर्णम्= अवशिष्टम् आयुः । प्र+तारीत्=प्रवर्धयतु ॥६ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
हे भगवन् ! आपका उपासक (यत्) जो वस्तु (पूर्व्यं) पहले (नष्टम्) नष्ट हो गया हो, उसको (विदत्) प्राप्त करे और (ऋतायुं) सत्याभिलाषी जन को (ईं) निश्चितरूप से (उदीरयत्) धनादि सहायता से बढ़ावे । और (अतीर्णम्) अवशिष्ट (ईम्+आयुम्) इस विद्यमान आयु को (प्रतारीत्) बढ़ावे ॥६ ॥
भावार्थ
उपासक धैर्य्य से ईश्वर की उपासना करें, सज्जनों की रक्षा, अपनी आयु बढ़ावें ॥६ ॥
विषय
विद्यादान पुनर्जीवन है।
भावार्थ
( यत् ) जो ( पूर्व्यम् नष्टम् ) पहले के तृप्त या नष्ट हुए को ( विदत् ) पाता या जान लेता है, उसे चाहिये कि वह ( ईम् ) उस ज्ञान को ( ऋतायुम् ) सत्य ज्ञान के अभिलाषी पुरुष के प्रति ( ईरयत् ) उपदेश करे। वह मानो, ( ईम् ) उसको ( अतीर्णम् ) अप्रदत्त ( आयुः ) नया जीवन ( प्रतारीत् ) प्रदान करता है। विद्या दान करना भी नवजीवन देने के समान है।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कृत्नुर्भार्गव ऋषिः। सोमो देवता॥ छन्दः—१, २, ६ निचृद् गायत्री। ३ विराड् गायत्री। ४, ५, ७, ८ गायत्री। ९ निचृदनुष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥
विषय
ज्ञान + यज्ञ = शान्त दीर्घजीवन
पदार्थ
(यद्) = जब (पूर्व्यम्) = जीवन के पूर्व काल में - ब्रह्मचर्याश्रम में होनेवाले ज्ञानरूप धन को (विदद्) = प्राप्त करता है, और (ईम्) = निश्चय से (नष्टम्) = अदृष्ट- सामान्यतः न दिखनेवाली (ऋतायुम्) = यज्ञ की कामना को (ईं उद् ईरयत्) = निश्चय से अपने में प्रेरित करता है। तो (ईम्) = निश्चय से (अतीर्णम्) = काम- क्रोध आदि शत्रुओं से अनाक्रान्त (आयु:) = जीवन को (प्रतारीत्) = बढ़ाता है।
भावार्थ
भावार्थ- हम ज्ञान को प्राप्त करें-यज्ञशील बनें। यही काम-क्रोध आदि से अनाक्रान्त दीर्घजीवन को प्राप्त करने का मार्ग है।
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