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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 79 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 79/ मन्त्र 9
    ऋषिः - कृत्नुर्भार्गवः देवता - सोमः छन्दः - निचृदनुष्टुप् स्वरः - गान्धारः

    अव॒ यत्स्वे स॒धस्थे॑ दे॒वानां॑ दुर्म॒तीरीक्षे॑ । राज॒न्नप॒ द्विष॑: सेध॒ मीढ्वो॒ अप॒ स्रिध॑: सेध ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    अव॑ । यत् । स्वे । स॒धऽस्थे॑ । दे॒वाना॑म् । दुः॒ऽम॒तीः । ईक्षे॑ । राज॑न् । अप॑ । द्विषः॑ । से॒ध॒ । मीढ्वः॑ । अप॑ । स्रिधः॑ । से॒ध॒ ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    अव यत्स्वे सधस्थे देवानां दुर्मतीरीक्षे । राजन्नप द्विष: सेध मीढ्वो अप स्रिध: सेध ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    अव । यत् । स्वे । सधऽस्थे । देवानाम् । दुःऽमतीः । ईक्षे । राजन् । अप । द्विषः । सेध । मीढ्वः । अप । स्रिधः । सेध ॥ ८.७९.९

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 79; मन्त्र » 9
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 34; मन्त्र » 4
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    O lord ruler of the world, whatever and wherever I happen to see the displeasure of divinities in our home, pray ward that off. O generous and virile lord of peace and good will, throw out the jealous and the enemies, ward off all the violent and destructive forces from us.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जेव्हा जेव्हा सज्जनांची निंदा होते तेव्हा निंदकांना उचित दंड द्यावा. ॥९॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे देव ! अहम् । स्वे=स्वकीये । सधस्थे=स्थाने । देवानां=सज्जनानाम् । दुर्मतीः=शत्रून् । यत्=यदा यदा । अवेक्षेः । तदा तदा हे राजन् ! द्विषः=शत्रून् । अप+सेध=दूरी कुरु । हे मीढ्वः=सुखसेचक ! स्रिधः=हिंसकान् । अप+सेध ॥९ ॥

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    हिन्दी (3)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    हे देव ! (यत्) जब-जब (स्वे+सधस्थे) अपने स्थान पर (देवानां+दुर्मतीः) सज्जनों के शत्रुओं को (अव+ईक्षे) देखूँ, तब-तब (राजन्) हे राजन् ! (द्विषः) उन द्वेषकारी पुरुषों को (अपसेध) दूर कर और (स्रिधः) हिंसक पुरुषों को हम लोगों के समाज से (अप+सेध) दूर फेंक दे ॥९ ॥

    भावार्थ

    हम लोग जब-जब सज्जनों को निन्दित होते हुए देखें, तो उचित है कि उन निन्दकों को उचित दण्ड देवें ॥९ ॥

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    विषय

    दुष्टों को दूर करे।

    भावार्थ

    ( यत् ) जब तू ( त्वे ) अपने और ( देवानां ) मनुष्यों के ( सध-स्थे ) एकत्र मिलकर बैठने के लिये विचार स्थल में ( दुर्मताः ) दुष्ट चित्त वालों के दुर्व्यवहारों की ( अव ईक्षे ) न्यायपूर्वक विवेक दृष्टि से विवेचना करे तब हे ( राजन् ) राजन् ! तू ( द्विषः अप सेध ) द्वेष के भावों और द्वेषी जनों को दूर कर और ( स्रिधः अप सेध ) हिंसा के भावों और हिंसकों को भी दूर कर। इति चतुर्खिशो वर्गः॥

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कृत्नुर्भार्गव ऋषिः। सोमो देवता॥ छन्दः—१, २, ६ निचृद् गायत्री। ३ विराड् गायत्री। ४, ५, ७, ८ गायत्री। ९ निचृदनुष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    द्विषः स्त्रिधः [अपसेध]

    पदार्थ

    [१] (यत्) = जब (देवानाम्) = देववृत्तिवाले पुरुषों के (स्वे सधस्थे) = आत्मा के साथ मिलकर बैठने के स्थान में, अर्थात् हृदयदेश में स्थित हुआ मैं (दुर्मती:) = अशुभ विचारों को (अव ईक्षे) = अपने से दूर हुआ देखता हूँ तो यही प्रार्थना करता हूँ कि हे राजन् हमारे जीवनों को दीप्त करनेवाले सोम ! तू (द्विषः अपसेध) = द्वेष की भावनाओं को हमारे से दूर कर । हे (मीढ्वः) = सुखों का सेचन करनेवाले सोम तू (स्त्रिधः) = हिंसाओं को [अपसेध=] हमारे से पृथक् कर ।

    भावार्थ

    भावार्थ- हम हृदयदेश में प्रभु का ध्यान करते हुए दुर्विकारों से बचें। द्वेष व हिंसाओं से दूर होते हुए अपने जीवनों को उत्तम बनायें।

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