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ऋग्वेद मण्डल - 8 के सूक्त 79 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 79/ मन्त्र 7
    ऋषिः - कृत्नुर्भार्गवः देवता - सोमः छन्दः - गायत्री स्वरः - षड्जः

    सु॒शेवो॑ नो मृळ॒याकु॒रदृ॑प्तक्रतुरवा॒तः । भवा॑ नः सोम॒ शं हृ॒दे ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सु॒ऽशेवः॑ । नः॒ । मृ॒ळ॒याकुः॑ । अदृ॑प्तऽक्रतुः । अ॒वा॒तः । भव॑ । नः॒ । सो॒म॒ । शम् । हृ॒दे ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सुशेवो नो मृळयाकुरदृप्तक्रतुरवातः । भवा नः सोम शं हृदे ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सुऽशेवः । नः । मृळयाकुः । अदृप्तऽक्रतुः । अवातः । भव । नः । सोम । शम् । हृदे ॥ ८.७९.७

    ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 79; मन्त्र » 7
    अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 34; मन्त्र » 2
    Acknowledgment

    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Soma, you are the giver of peace and bliss for us, merciful, sober at heart and beyond all disturbance and agitation. O lord, bless us with peace and well being at heart.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    जेव्हा उपासनेद्वारे परमेश्वर हृदयात विराजमान होतो तेव्हाच उपासक सुखी होतो. ॥७॥

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    संस्कृत (1)

    विषयः

    N/A

    पदार्थः

    हे सोम ! त्वं ध्यानेन । हृदे=हृदये धारितः सन् । शं=कल्याणकारी । नः=अस्माकं भव । नः=अस्माकम् । सुशेवः=परमसुखकारी । मृळयाकुः=आनन्दकारी । अदृप्तक्रतुः=शान्तिकर्मा । पुनः । अवातः=बाह्यवायुरहितः ॥७ ॥

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    हिन्दी (4)

    विषय

    N/A

    पदार्थ

    (सोम) हे सर्वप्रिय देव ! ध्यान के द्वारा (हृदे) हृदय में धारित तू (नः) हम लोगों का (शं) कल्याणकारी (भव) हो (नः) हम लोगों का तू (सुशेवः) सुखकारी है । (मृळयाकुः) आनन्ददायी का (अदृप्तक्रतुः) शान्तकर्मा और (अवातः) वायु आदि से रहित है ॥७ ॥

    भावार्थ

    जब उपासना द्वारा परमात्मा हृदय में विराजमान होता है, तब ही वह सुखकारी होता है ॥७ ॥

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    विषय

    दयाशील शासक का रूप।

    भावार्थ

    हे ( सोम ) ऐश्वर्यवन् ! तू ( नः ) हमें ( सु-शेवः ) उत्तम सुखदाता, ( मृडयाकुः ) दयाशील, ( अदृप्त-क्रतुः ) ज्ञान और कर्म पर भी गर्व न करने वाला और ( अवातः ) प्रचण्ड वायु के समान धक्के न लगाने वाला, होकर ( नः हृदे शं भव ) हमारे हृदय के लिये शान्तिदायक हो।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    कृत्नुर्भार्गव ऋषिः। सोमो देवता॥ छन्दः—१, २, ६ निचृद् गायत्री। ३ विराड् गायत्री। ४, ५, ७, ८ गायत्री। ९ निचृदनुष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    Bhajan

     वैदिक मन्त्र
    सुशेवो नो मृळयाकुरदप्तक्रतुरवात: ।
    भवा न:सोम शं हृदे ।।  ऋ•८.७९.७
                       वैदिक भजन ११३२वां
                                राग केदार
                गायन समय रात्रि का द्वितीय प्रहर
                               ताल अद्धा
    सोम प्रभु हृदयों में बसते 
    शान्त सरस उत्तम सुख देते 
    सौम्य हमें क्योंकर नहीं करते ?
    सोम प्रभ........
    सुख से हमें परिपूरित कर दो 
     विषय - विषों दुःखों को हर लो 
    निरभिमान विनम्रता भर दो 
    मन को स्थिर क्यों नहीं कर देते? 
    सोम प्रभु .......
    सोम रसों से हम हैं वंचित 
    मन उद्विग्न है और चंचलचित्त 
    ज्ञान- कर्म भी ना है अनुमित 
    धन्य पुरुष- सम क्यों ना करते ?
    सोम प्रभु.......
    तव प्रार्थी की सुनो प्रार्थना
    करो कल्याण ना सहें यातना
    शीतल सरल सुखद हो आत्मा
    सोम-मेघ सम क्यों न बरसते ?
    सोम प्रभु
    हे सुखेेश! होवो सुखकारी
    हमें बनाओ तव अनुकारी
    सबके तुम एक ही सहकारी
    मन-चित्त,प्राण में क्यों नहीं रमते?
    सोम प्रभु..........
                        ‌   ९.८.२००१
                            १०.४० रात्रि
    परिपूरित =परिपूर्ण
    उद्विग्न=व्याकुल< चिंतित
    अनुकारी= अनुकरण करने वाला
    अनुमित= हेतु द्वारा निश्चित किया हुआ
    सहकारी =सहयोगी सहायक
    प्रार्थी= प्रार्थना करने वाला
    निरभिमान= घमंड रहित
    सुखेश=सुखकारक परमात्मा

    वैदिक मन्त्रों के भजनों की द्वितीय श्रृंखला का १२५ वां वैदिक भजन और प्रारम्भ से क्रमबद्धअब तक का ११३२ वां वैदिक भजन

    वैदिक संगीत प्रेमी श्रोताओं को हार्दिक शुभकामनाएं 
    🕉️🙏🏽🌹💐

    Vyakhya

    सूखकारी बनो 
    है सोम नि:संदेह है तुम हमारे हृदयों में समाए हुए हो।हम जानते हैं कि तुम्हारे रस,सोमरस का पान हमारे इन हृदयों द्वारा ही होता है । तो फिर हमारे हृदयों में बसे हुए भी है सोम तुम हमें शान्त और सुखी क्यों नहीं करते ? हमें अपना रसपान कराकर सरस और सुखमय क्यों नहीं बनाते हो? आओ, अब हमारे हृदय के लिए तुम उत्तम सुख वाले हो जाओ, सुखप्रदाता हो जाओ,हमें सुखी करो 
    अपने उत्तम सुख से सुखी करो ।अपने सुख से,अपने उत्तम सुख से हमें ऐसा भरपूर कर दो कि संसार के सब आपातरमणीय सुख परिणाम में विश्वरूप होने वाले सब विषय आदि के सुख हमारे लिए स्वयमेव त्याज्य हो जाएं, सदा के लिए परित्यक्त हो जाएं। यदि तुम हमारे ऐसे सु-सुखयिता हो जाओगे तो तम हमारे लिए'अदृप्तक्रतु' और 'अवात'भी हो जाओगे। तब तुम्हारी कृपा से हम भी 
    अभिमान रहिेत , ज्ञान व कर्म वाले तथा  अचलायमान हो जाएंगे। हम जो ज्ञान का अभिमान करने वाले, बड़े अभिमान से कर्म करने वाले,अभिमान की क्षुद्रता में उछले कूदने वाले होते हैं तथा उद्विग्न और चंचलचित्त होते हैं ,वह इसलिए होते हैं क्योंकि हम अनुभव नहीं करते कि तुम अपने सोम रूप से हमारे हृदयों में समाए हुए हो, तुम्हें ह्रदय में रखते हुए भी हम तुम्हारे सोमरस से सर्वथा वंचित रहते हैं। जिन धन्य पुरुषों के हृदयों को तुम अपने रस से परिपूर्ण करते हो वह तो सर्वथा निरहंकार और शान्त होते हैं, वह महान ज्ञान और कर्म की शक्ति रखते हुए भी बिल्कुल निरभिमान और नम्र होते हैं, गंभीर और प्रशांत होते हैं इसलिए हे सोम ! हम तुम से प्रार्थना करते हैं कि तुम हमारे हृदयों के लिए कल्याणकारी हो, व अपनी परम सरसता और शीतलता प्रदान करते हुए हमारे हृदयों के लिए सुखकारी होवो।

     

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    विषय

    सुशेवः+अवातः [सोमः]

    पदार्थ

    [१] हे (सोमः) = वीर्यशक्ते! शरीर में सुरक्षित हुई तू (नः हृदे) = हमारे हृदयों के लिये (शं भवा) = शान्ति को देनेवाली हो। सुरक्षित वीर्य हमें शान्त हृदय बनाता है। [२] यह सोम (नः) = हमारे लिये (सुशेवः) = उत्तम कल्याण को करनेवाला हो । (मृडयाकुः) = यह हमें सुखी करे। (अदृप्तक्रतुः) = यह हमें गर्वशून्य ज्ञान व शक्तिवाला बनाये तथा (अवातः) = [वा To injure, न वातं यस्मात् ] सब प्रकार की हानियों से- रोगादि के आक्रमणों से बचाये।

    भावार्थ

    भावार्थ - शरीर में सुरक्षित सोम हमें शान्त हृदयवाला बनाता है। यह हमें शरीर व मन से सुखी करता है । शक्ति व ज्ञान के होने पर भी हमें निरभिमान बनाता है और रोगादि से आक्रान्त नहीं होने देता।

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