ऋग्वेद - मण्डल 8/ सूक्त 79/ मन्त्र 5
अ॒र्थिनो॒ यन्ति॒ चेदर्थं॒ गच्छा॒निद्द॒दुषो॑ रा॒तिम् । व॒वृ॒ज्युस्तृष्य॑त॒: काम॑म् ॥
स्वर सहित पद पाठअ॒र्थिनः॑ । यन्ति॑ । च॒ । इत् । अर्थ॑म् । गच्छा॑न् । इत् । द॒दुषः॑ । रा॒तिम् । व॒वृ॒ज्युः । तृष्य॑तः । काम॑म् ॥
स्वर रहित मन्त्र
अर्थिनो यन्ति चेदर्थं गच्छानिद्ददुषो रातिम् । ववृज्युस्तृष्यत: कामम् ॥
स्वर रहित पद पाठअर्थिनः । यन्ति । च । इत् । अर्थम् । गच्छान् । इत् । ददुषः । रातिम् । ववृज्युः । तृष्यतः । कामम् ॥ ८.७९.५
ऋग्वेद - मण्डल » 8; सूक्त » 79; मन्त्र » 5
अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 33; मन्त्र » 5
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अष्टक » 6; अध्याय » 5; वर्ग » 33; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
इंग्लिश (1)
Meaning
By the grace and munificence of Soma, the seekers obtain their object of desire, the needy receive the gift of the giver, the thirsty satisfy their thirst with fulfilment.
मराठी (1)
भावार्थ
हे माणसांनो! तुम्ही परस्पर साह्य करा. कदाचित तुमच्यावरही अचानक आपत्ती येऊ शकते व मदतीची अपेक्षा असू शकते, त्यासाठी परस्पर प्रेम व भ्रातृभावाने वागा. ॥५॥
संस्कृत (1)
विषयः
N/A
पदार्थः
हे ईश ! तव कृपया । अर्थिनः=अर्थाभिलाषिणः । अर्थं+यन्ति+चेत्=प्राप्नुवन्तु । ददुषः=दातुः सकाशात् । रातिं=दानम् । गच्छान्+इत्=प्राप्नुवन्तु एव । तृष्यतः=धनाय तृष्णावतः पुरुषस्य । कामम्=मनोरथम् । ववृज्युः=पूरयन्तु ॥५ ॥
हिन्दी (3)
विषय
N/A
पदार्थ
हे ईश ! जगत् में आपकी कृपा से (अर्थिनः) धनाभिलाषी जन (अर्थं+यन्ति+चेत्) धन प्राप्त करें और दीन पुरुष (ददुषः) दाता से (रातिं) दान (गच्छान्+इत्) पावें और (तृषतः) धन और पानी के पिपासु जन के (कामम्) मनोरथ को (ववृज्युः) लोग पूर्ण करें ॥५ ॥
भावार्थ
हे मनुष्यों ! तुम परस्पर साहाय्य करो । न जाने तुम्हारे ऊपर भी अचिन्त्य आपत्ति आवे और सहायता की आकाङ्क्षा हो, इसलिये परस्पर प्रेम और भ्रातृभाव से वर्ताव करो ॥५ ॥
विषय
दानार्थियों का एक मात्र शरण। विद्यार्थियों का शरण गुरु।
भावार्थ
( चेद् ) यदि ( अर्थिनः ) धन के इच्छुक वा धन के स्वामी लोग ( अर्थयन्ति ) धन को प्राप्त करते हैं तो उन को चाहिये कि वे ( ददुषः राति गच्छान् ) दानशील पुरुष के दानशीलता को भी प्राप्त हों, वे दान भी किया करें। अथवा यदि वे धन पाते हैं तो भी वे किसी दानी के दान को ही प्राप्त करते हैं, इसलिये भी उन को चाहिये कि वे भी ( तृप्यतः कामम् ववृज्युः ) किसी पियासे अर्थार्थी की अभिलाषा को पूर्ण किया करें। उस की प्यास को बुझाया करें। इसी प्रकार विद्यार्थी यदि विद्या प्राप्त करते हैं किसी विद्यादाता का दिया ज्ञान ही प्राप्त करते हैं, उन को चाहिये वे भी अन्य की ज्ञान पिपासा का शमन करें। इति त्रयस्त्रिंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कृत्नुर्भार्गव ऋषिः। सोमो देवता॥ छन्दः—१, २, ६ निचृद् गायत्री। ३ विराड् गायत्री। ४, ५, ७, ८ गायत्री। ९ निचृदनुष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥
विषय
धनप्राप्ति व दान
पदार्थ
[१] (अर्थिनः) = प्रार्थना करनेवाले-'वयं स्याम पतयो रयीणाम्' का जप करनेवाले (चेत्) = यदि प्रभु की कृपा से (अर्थं यन्ति) = धन को प्राप्त करते हैं। तो (इत्) = निश्चय से वे (ददुषः) = दानशील पुरुष के (रातिम्) = दान के भाव को भी (गच्छान्) = प्राप्त करें। धन प्राप्त होने पर दानशील बनें। [२] अब ये अर्थी धनी बनकर (तृष्यतः) = प्यासे की (कामम्) = अभिलाषा को (ववृज्युः) = पूर्ण करें । उसकी धन की प्यास को धनदान द्वारा बुझानेवाले हों। अथवा प्यासे की कामना को छोड़नेवाले हों, अर्थात् सतत धन के लोभ में ही न पड़े रहें।
भावार्थ
भावार्थ- हम प्रभुकृपा से धन को प्राप्त करें तो दान की वृत्ति को भी प्राप्त करें। खूब दान देनेवाले बनें, धन के लोभ में न पड़ें।
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