ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 71/ मन्त्र 2
प्र कृ॑ष्टि॒हेव॑ शू॒ष ए॑ति॒ रोरु॑वदसु॒र्यं१॒॑ वर्णं॒ नि रि॑णीते अस्य॒ तम् । जहा॑ति व॒व्रिं पि॒तुरे॑ति निष्कृ॒तमु॑प॒प्रुतं॑ कृणुते नि॒र्णिजं॒ तना॑ ॥
स्वर सहित पद पाठप्र । कृ॒ष्टि॒हाऽइ॑व । शू॒षः । ए॒ति॒ । रोरु॑वत् । अ॒सु॒र्य॑म् । वर्ण॑म् । नि । रि॒णी॒ते॒ । अ॒स्य॒ । तम् । जहा॑ति । व॒व्रिम् । पि॒तुः । ए॒ति॒ । निः॒ऽकृ॒तम् । उ॒प॒ऽप्रुत॑म् । कृ॒णु॒ते॒ । निः॒ऽनिज॑म् । तना॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
प्र कृष्टिहेव शूष एति रोरुवदसुर्यं१ वर्णं नि रिणीते अस्य तम् । जहाति वव्रिं पितुरेति निष्कृतमुपप्रुतं कृणुते निर्णिजं तना ॥
स्वर रहित पद पाठप्र । कृष्टिहाऽइव । शूषः । एति । रोरुवत् । असुर्यम् । वर्णम् । नि । रिणीते । अस्य । तम् । जहाति । वव्रिम् । पितुः । एति । निःऽकृतम् । उपऽप्रुतम् । कृणुते । निःऽनिजम् । तना ॥ ९.७१.२
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 71; मन्त्र » 2
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 2
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(शूषः) अस्य जगत उत्पादकः परमेश्वरः (कृष्टिहेव) योद्धेव (प्र एति) महता प्रभावेन सर्वत्र परिपूर्णोऽस्ति। अथ च (असुर्यम्) राक्षसान् (रोरुवत्) रोदयति। तथा (अस्य) अमुष्य जीवात्मनः (तम्) पूर्वोक्ताम् (वर्णम्) आच्छादानकर्त्रीं (वव्रिम्) वृद्धावस्थाम् (जहाति) अतिक्रामति। अथ च (पितुः एति) पितुर्भावं प्राप्नुवन् (निष्कृतम्) कृतकार्यं तथा (उपप्रुतम्) पूर्णं (कृणुते) करोति। तथा (तना) इदं शरीरं (निर्णिजम्) सुरूपयुक्तं करोति (नि रिणीते) निर्मुक्तं च करोति ॥२॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(शूषः) इस संसार की उत्पत्ति करनेवाला परमात्मा (कृष्टिहेव) योद्धा के समान (प्र एति) बड़े प्रभाव से सर्वत्र परिपूर्ण हो रहा है और (असुर्यं) असुरों को (रोरुवत्) अत्यन्त रुलाता है तथा (अस्य) इस जीवात्मा के (तं) पूर्वोक्त (वर्णं) आच्छादन करनेवाली (वव्रिः) वृद्धावस्था को (जहाति) अतिक्रमण करता है और (पितुः एति) पिता के भाव को प्राप्त होकर (निष्कृतं) कृतकार्य और (उपप्रुतं) पूर्ण (कृणुते) बना देता है तथा (तना) इस शरीर को (निर्णिजं) सुन्दररूप युक्त बना देता है और (नि रिणीते) निर्मुक्त करता है ॥२॥
भावार्थ
जो पुरुष परमात्मज्ञान के पात्र हैं, परमात्मा उनको पूर्णज्ञान देकर जरामरणादिभावों से निर्मुक्त करके अमृत बना देता है ॥२॥
विषय
अनुशासक पुरुष वा उपदेशक का कर्त्तव्य। उसका आदरणीय पितृ तुल्य पद।
भावार्थ
सोम अर्थात् ज्ञानों, शास्त्रों का अनुशासन करने वाला विद्वान् पुरुष (कृष्टिहा इव शूरः) मनुष्यों को मारने वाले शूरवीर पुरुष के समान स्वयं भी (शूरः) वेग से जाने वाला (कृष्टिहा) सब मनुष्यों तक पहुंच कर (रोरुवत् एति) उपदेश करता हुआ उनको प्राप्त होता है और वह (अस्य) इस प्रजाजन के (तम्) उस, चिरकाल से विद्यमान (अ-सुर्यं वर्णम्) अज्ञानमय, प्रकाशरहित आवरण को (नि रिणीते) दूर कर देता है। वह स्वयं (वव्रिं) अपने अज्ञान आवरण को (जहाति) त्याग देता है और (पितुः निष्कृतम् एति) पिता के पद को प्राप्त करता है। और अपने (तना) विस्तृत (निर्-निजं) अति शुद्ध ज्ञान-ऐश्वर्य को (उपप्रुतं कृणुते) प्राप्त कराता है। स्वयं उत्तम पद पर अभिषिक्त होता है।
टिप्पणी
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ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषभो वैश्वामित्र ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ४, ७ विराड् जगती। २ जगती। ३, ५, ८ निचृज्जगती। ६ पादनिचृज्जगती। ९ विराट् त्रिष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥
विषय
तेजस्विता व हृदय की शुद्धता
पदार्थ
[१] (शूषः) = शत्रुशोषक बलवाला यह सोम (कृष्टिहा इव) = शत्रुहन्ता योद्धा की तरह (प्र एति) = प्रकर्षेण गतिवाला होता है। (रोरुवत्) = खूब ही प्रभु-स्तवन कराता हुआ यह सोम (अस्य) = इस सोमरक्षक पुरुष के (तम्) = उस (असुर्यं वर्णम्) = प्राणशक्ति-सम्पन्न तेजस्वीरूप को (निरिणीते) = निश्चय से प्राप्त कराता है । सोमरक्षण से प्रभु-स्तवन की वृत्ति पैदा होती है और तेजस्विता की प्राप्ति होती है । [२] यह सोम (वव्रिम्) = आच्छादन कर लेनेवाली जरा को (जहाति) = छोड़ता है, बुढ़ापे को नहीं आने देता। (पितुः) = उस परमपिता के (निष्कृतम्) = शुद्ध किये हुए हृदयरूप स्थान को (एति) = प्राप्त होता है । हृदय को शुद्ध बनाता है। (तना) = शक्तियों के विस्तार के द्वारा इस हृदय को (उपप्रुतम्) = [समीपगमनशीलं सा० ] प्रभु के समीप जाने की वृत्तिवाला तथा (निर्णिजम्) = शुद्ध कृणुते करता है ।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण से तेजस्विता प्राप्त होती है, बुढ़ापा दूर होता है और हृदय बड़ा परिशुद्ध बनता है।
इंग्लिश (1)
Meaning
The mighty hero of peace, power and plenty, Soma, goes forward roaring like a warrior, loud and bold, revealing, manifesting and displaying that vibrant, assertive and tempestuous character of his which dispels and destroys darkness and evil, realises and maintains the purest sacred spirit of his ancestral tradition in action and attains the perfect, unsullied and absolute fulfilment of his earthly existence.
मराठी (1)
भावार्थ
जे पुरुष परमात्मज्ञानाचे पात्र असतात. परमात्मा त्यांना पूर्ण ज्ञान देऊन जरा मरण इत्यादी भावांनी निर्मुक्त करून अमृत बनवितो. ॥२॥
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