ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 71/ मन्त्र 6
ऋषिः - ऋषभो वैश्वामित्रः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - पादनिचृज्ज्गती
स्वरः - निषादः
श्ये॒नो न योनिं॒ सद॑नं धि॒या कृ॒तं हि॑र॒ण्यय॑मा॒सदं॑ दे॒व एष॑ति । ए रि॑णन्ति ब॒र्हिषि॑ प्रि॒यं गि॒राश्वो॒ न दे॒वाँ अप्ये॑ति य॒ज्ञिय॑: ॥
स्वर सहित पद पाठश्ये॒नः । न । योनि॑म् । सद॑नम् । धि॒या । कृ॒तम् । हि॒र॒ण्यय॑म् । आ॒ऽसद॑म् । दे॒वः । एष॑ति । आ । ई॒म् इति॑ । रि॒ण॒न्ति॒ । ब॒र्हिषि॑ । प्रि॒यम् । गि॒रा । अश्वः॑ । न । दे॒वान् । अपि॑ । ए॒ति॒ । य॒ज्ञियः॑ ॥
स्वर रहित मन्त्र
श्येनो न योनिं सदनं धिया कृतं हिरण्ययमासदं देव एषति । ए रिणन्ति बर्हिषि प्रियं गिराश्वो न देवाँ अप्येति यज्ञिय: ॥
स्वर रहित पद पाठश्येनः । न । योनिम् । सदनम् । धिया । कृतम् । हिरण्ययम् । आऽसदम् । देवः । एषति । आ । ईम् इति । रिणन्ति । बर्हिषि । प्रियम् । गिरा । अश्वः । न । देवान् । अपि । एति । यज्ञियः ॥ ९.७१.६
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 71; मन्त्र » 6
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 1
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(देवः) दिव्यगुणयुक्तः परमेश्वरः (धिया कृतम्) संस्कृतबुद्ध्या साक्षात्कृतः (हिरण्ययम्) प्रकाशरूपं (आसदम्) स्थानं (एषति) प्राप्तो भवति। (श्येनो न) यथा श्येनः पक्षी (योनिं सदनम्) स्वनीडमभिगच्छति तद्वत् (ईम्) एनं (प्रियम्) सर्वप्रियं परमात्मानम् उपासकाः (बर्हिषि) हृदये (गिरा) वेदवाणीभिः (आ रिणन्ति) स्तुवन्ति। (अश्वो न) अश्नुते चराचरमिति अश्वः विद्युत् यथा चराचरं व्याप्नोति, तथा (यज्ञियः) परमेश्वरः (देवान्) विदुषः (अपि एति) प्राप्तो भवति ॥६॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(देवः) दिव्यगुणयुक्त परमात्मा (धिया कृतं) संस्कृत बुद्धि से साक्षात्कार किया हुआ (हिरण्ययं) प्रकाशरूप (श्येनो न योनिं सदनं) अपने स्थिर स्थान घोसले को प्राप्त होता है, उसी तरह जैसे बाज (आसदं) स्थान को (एषति) प्राप्त होता है। (ईं) उक्त (प्रियं) सबके प्यारे परमात्मा की उपासक (बर्हिषि) हृदय में (गिरा) वेदवाणियों से (आ रिणन्ति) स्तुति करते हैं एवं (यज्ञियः) परमात्मा (देवान्) दिव्य गुणवाले विद्वानों को (अपि एति) प्राप्त होता है ॥६॥
भावार्थ
जो लोग परमात्मा का साक्षात्कार करना चाहें, वे अपने हृदय में उसका ध्यान करें ॥६॥
विषय
उसको सर्वोपरि आसन ग्रहण की प्रेरणा।
भावार्थ
(श्येनः योनिं न) बाज पक्षी जिस प्रकार अपने घोसलें की ओर आता है उसी प्रकार (श्येनः) प्रशंसनीय गति, सत्-आचार व्यवहारवान् पुरुष (धिया कृतम्) बहुत बुद्धिमत्ता से बनाये, विद्वानों द्वारा, सुविचारित और शिल्पियों द्वारा कारीगरी से बनाये गये (हिरण्ययम्) प्रजा के हितकारी और उनको प्रिय लगने वाले, (सदनं) सभाभवन और (आसदम्) बैठने योग्य आसन को वह (देवः) तेजस्वी, मानाभिलाषी पुरुष (आ ईषति) प्राप्त होता है और विद्वान् जन (ईम्) उस (प्रियम्) सर्वप्रिय जन को (गिरा) वाणी द्वारा (बर्हिषि) वृद्धियुक्त, उस प्रजा के अध्यक्ष योग्य आसन पर (आ रिणन्ति) बैठने को प्रेरित करते हैं। और वह (अश्वः) अश्व के समान बलवान्, राज्य-रथ को उठाने में समर्थ, (यज्ञियः) पूजायोग्य होकर (यज्ञियः अश्वः न) अश्वमेध यज्ञोपयोगी अश्व के तुल्य (देवान् अपि-एति) विद्वान् पुरुषों को प्राप्त करे, उनसे मिलकर राज्य-कार्य करे।
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषभो वैश्वामित्र ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ४, ७ विराड् जगती। २ जगती। ३, ५, ८ निचृज्जगती। ६ पादनिचृज्जगती। ९ विराट् त्रिष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥
विषय
श्येनो न, अश्वो न
पदार्थ
[१] सोम का रक्षक पुरुष (श्येनः न) = शंसनीय गतिवाले के समान (देवः) = देववृत्तिवाला व प्रकाशमान जीवनवाला होता हुआ यह (योनिम्) = सबके मूल उत्पत्ति स्थान (सदनम्) = सर्वाधार, धिया (कृतम्) = बुद्धि के द्वारा प्रादुर्भूत किये गये, बुद्धि द्वारा जानने योग्य, (हिरण्ययम्) = ज्योतिर्मय प्रभु को (आसदम्) = प्राप्त करने के लिये (एषति) = गतिवाला होता है । [२] (ई) = निश्चय से (प्रियम्) = प्रीति के उत्पन्न करनेवाले इस सोम को (गिरा) = ज्ञान की वाणियों के द्वारा (बर्हिषि) = वासनाशून्य हृदय में (आरिणन्ति) = सर्वथा प्रेरित करते हैं। स्वाध्याय द्वारा हृदय को निर्वासन बनाकर सोम को शरीर में सुरक्षित करते हैं। इसी दृष्टिकोण से (अश्वः न) = निरन्तर कर्मों में व्याप्त पुरुष के समान [अशू व्याप्तौ ] (यज्ञियः) = यह यज्ञशील व्यक्ति (देवान् अपि एति) = दिव्यगुणों की ओर गतिवाला होता है । कर्मों में लगे रहना ही वासनाओं से बचने का साधन होता है, इसी प्रकार जीवन यज्ञिय व दिव्य बनता है ।
भावार्थ
भावार्थ- हम शंसनीय गतिवाले होकर प्रभु की ओर चलें । कर्मों में व्याप्ति के द्वारा सोम का रक्षण करते हुए दिव्य गुणों का वर्धन करें।
इंग्लिश (1)
Meaning
As the eagle bird comes to rest in its nest, so does the light of the soul rise and shine in the golden cave of the heart, the seat of divinity, prepared by the light of higher intelligence and awareness. There on the seat of sanctity the celebrants adore the dear Soul with holy song where the divine Spirit, loving and adorable, blesses the divine soul of the yogi and his transparent faculties and rules as an emperor over the dominion.
मराठी (1)
भावार्थ
जे लोक परमेश्वराचा साक्षात्कार करू इच्छितात त्यांनी आपल्या हृदयात ध्यान धरावे. ॥६॥
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