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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 71 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 71/ मन्त्र 8
    ऋषिः - ऋषभो वैश्वामित्रः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - निचृज्जगती स्वरः - निषादः

    त्वे॒षं रू॒पं कृ॑णुते॒ वर्णो॑ अस्य॒ स यत्राश॑य॒त्समृ॑ता॒ सेध॑ति स्रि॒धः । अ॒प्सा या॑ति स्व॒धया॒ दैव्यं॒ जनं॒ सं सु॑ष्टु॒ती नस॑ते॒ सं गोअ॑ग्रया ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    त्वे॒षम् । रू॒पम् । कृ॒णु॒ते॒ । वर्णः॑ । अ॒स्य॒ । सः । यत्र॑ । अश॑यत् । सम्ऽऋ॑ता । सेध॑ति । स्रि॒धः । अ॒प्साः । या॒ति॒ । स्व॒धया॑ । दैव्य॑म् । जन॑म् । सम् । सु॒ऽस्तु॒ती । नस॑ते । सम् । गोऽअ॑ग्रया ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    त्वेषं रूपं कृणुते वर्णो अस्य स यत्राशयत्समृता सेधति स्रिधः । अप्सा याति स्वधया दैव्यं जनं सं सुष्टुती नसते सं गोअग्रया ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    त्वेषम् । रूपम् । कृणुते । वर्णः । अस्य । सः । यत्र । अशयत् । सम्ऽऋता । सेधति । स्रिधः । अप्साः । याति । स्वधया । दैव्यम् । जनम् । सम् । सुऽस्तुती । नसते । सम् । गोऽअग्रया ॥ ९.७१.८

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 71; मन्त्र » 8
    अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 26; मन्त्र » 3
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सोमः) परमात्मा (रूपम्) स्वरूपं (त्वेषम्) दीप्यमानं (कृणुते) करोति (वर्णः) वरणीयः (सः) असौ परमेश्वरः (यत्र) यस्मिन् (समृता) रणे (अशयत्) स्थिरो भवति (अस्य) तत्र (स्रिधः) दुष्टान् (सेधति) हिनस्ति। (दैव्यं जनम्) दिव्यशक्तिमन्तं पुरुषं (अप्साः) सुकर्मदः (सुष्टुती) स्तुतियोग्यो जगदीशः (स्वधया) स्वानन्दवृष्ट्या (याति) परिपूर्णोऽस्ति। अथ च (गो अग्रया) वेदवाण्या (सं नसते) सर्वत्र सङ्गतो भवति ॥८॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सोमः) परमात्मा (रूपं) रूप को (त्वेषं) दीप्यमान (कृणुते) करता है। (वर्णः) वरणीय (सः) वह परमात्मा (यत्र) जिस (समृता) संग्राम में (अशयत्) स्थिर होता है, (अस्य) उसमें (स्रिधः) दुष्टों को (सेधति) मारता है। (दैव्यं जनं) दिव्य शक्तिवाले मनुष्य को वह (अप्साः) सत्कर्मों का दाता (सुष्टुती) सुन्दर स्तुतियोग्य परमात्मा (स्वधया) अपने आनन्द से (याति) परिपूर्ण है और (गो अग्रया) वेदवाणी से (सं नसते) सर्वत्र संगत होता है ॥८॥

    भावार्थ

    इस मन्त्र में इस बात का वर्णन किया गया है कि परमात्मा प्रत्येक रूप से प्रदीप्त करनेवाला है। उसी की सत्ता से सम्पूर्ण पदार्थ स्थिर हैं और स्वयं वह निर्लेप होकर इन सब चीजों में विराजमान है ॥८॥

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    विषय

    प्रजा द्वारा चुने अध्यक्ष का उत्तम शासन। विद्वान् शास्ता का मधुपर्कादि से सत्कार।

    भावार्थ

    (वर्णः) इसको वरण करने वाला प्रजाजन (अस्य रूपं) इसके रूप को (त्वेषं) कान्तियुक्त (कृणुते) करता है और (सः यत्र अशयत्) वह प्रभु वा विद्वान् शासक जहां रहता है वहां (समृता) संग्राम में वा उस उत्तम (सम्-ऋता) भूमि में (स्त्रिधः सेधति) हिंसक जनों और शत्रु सेनाओं का नाश करता है। वह (अप्साः) जल देने वाले मेघ के समान (दैव्यं जनं) देव, विद्वानों के प्रिय जनपद को (स्वधया) जल से अन्नवत् अपनी धारक-पोषक शक्ति से (याति) प्राप्त होता है। और वह (गो-अग्रया सुस्तुती) दधि, दुग्धादि मुख्य पदार्थ से युक्त उत्तम स्तुति अर्थात् मधुपर्क द्वारा उत्तम सत्कार को (सं नसते) प्राप्त होता है।

    टिप्पणी

    ‘गो’ शब्द मधुपर्क का वाचक मनु में आता है जैसे— अर्हयेत् प्रथमं गवा। (अ० २)।

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषभो वैश्वामित्र ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ४, ७ विराड् जगती। २ जगती। ३, ५, ८ निचृज्जगती। ६ पादनिचृज्जगती। ९ विराट् त्रिष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    कर्म-स्तुति - स्वाध्याय

    पदार्थ

    [१] (अस्य) = इस सोम का (वर्णः) = वरण करनेवाला व्यक्ति (त्वेषं रूपं कृणुते) = दीप्त रूप को बनाता है । सोमरक्षण द्वारा यह तेजस्वी बनता है। (सः) = वह सोम (यत्र आशयत्) = जहाँ निवास करता है, वहाँ (समृता) = संग्राम में (स्त्रिधः) = हिंसक शत्रुओं को, काम-क्रोध-लोभ आदि को (सेधति) = दूर करता है [= नष्ट करता है] । [२] (अप्सः) = कर्मों का सेचन करनेवाला, निरन्तर कर्मों में लगा हुआ यह सोमरक्षक पुरुष स्वधया आत्मतत्त्व के धारण के हेतु से (दैव्यं जनम्) = देववृत्तिवाले लोगों को (याति) = जाता है । इन देववृत्तिवाले लोगों के सम्पर्क में इसकी चित्तवृत्ति विषय-प्रवण न होकर आत्मतत्त्व की ओर झुकाववाली होती है। यह (सुष्टुती सं नसते) = उत्तम स्तुति के साथ संगत होता है तथा (गोअग्रया) = सृष्टि के प्रारम्भ में दी जानेवाली इस वेदवाणी रूप गौ से (सम्) = संगत होता है । इस वाणी के सम्पर्क में अपने ज्ञान को उत्तरोत्तर बढ़ाता है ।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षण से हम दीप्त जीवनवाले व जीवन संग्राम में जीतनेवाले होंगे। कर्मशील व सदा उत्तम संग वाले बनें । सदा स्तुति व स्वाध्याय में प्रवृत्त होंगे।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Its form assumes a lustrous character of blazing refulgence, and wherever it reflects, shines and abides, there in the battles of human life and existence it destroys negativities and inner conflicts. Commanding the dynamic powers of life with its innate potential it goes to the pious celebrant and abides there in the heart adored with the highest words of exaltation.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    या मंत्रात हे स्पष्ट केलेले आहे की परमात्मा प्रत्येक रूपाला प्रदीप्त करणारा आहे. त्याच्या सत्तेने संपूर्ण पदार्थ स्थिर आहेत व स्वयं तो निर्लेप होऊन या सर्व वस्तूत विराजमान आहे. ॥८॥

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