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ऋग्वेद मण्डल - 9 के सूक्त 71 के मन्त्र
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  • ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 71/ मन्त्र 4
    ऋषिः - ऋषभो वैश्वामित्रः देवता - पवमानः सोमः छन्दः - विराड्जगती स्वरः - निषादः

    परि॑ द्यु॒क्षं सह॑सः पर्वता॒वृधं॒ मध्व॑: सिञ्चन्ति ह॒र्म्यस्य॑ स॒क्षणि॑म् । आ यस्मि॒न्गाव॑: सुहु॒ताद॒ ऊध॑नि मू॒र्धञ्छ्री॒णन्त्य॑ग्रि॒यं वरी॑मभिः ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    परि॑ । द्यु॒क्षम् । सह॑सः । प॒र्व॒त॒ऽवृध॑म् । मध्वः॑ । सि॒ञ्च॒न्ति॒ । ह॒र्म्यस्य॑ । स॒क्षणि॑म् । आ । यस्मि॑न् । गावः॑ । सु॒हु॒त॒ऽआदः॑ । ऊध॑नि । मू॒र्धन् । श्री॒णन्ति॑ । अ॒ग्रि॒यम् । वरी॑मऽभिः ॥


    स्वर रहित मन्त्र

    परि द्युक्षं सहसः पर्वतावृधं मध्व: सिञ्चन्ति हर्म्यस्य सक्षणिम् । आ यस्मिन्गाव: सुहुताद ऊधनि मूर्धञ्छ्रीणन्त्यग्रियं वरीमभिः ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    परि । द्युक्षम् । सहसः । पर्वतऽवृधम् । मध्वः । सिञ्चन्ति । हर्म्यस्य । सक्षणिम् । आ । यस्मिन् । गावः । सुहुतऽआदः । ऊधनि । मूर्धन् । श्रीणन्ति । अग्रियम् । वरीमऽभिः ॥ ९.७१.४

    ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 71; मन्त्र » 4
    अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 4
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    संस्कृत (1)

    पदार्थः

    (सहसः) क्षमी (मध्वः) सर्वानन्ददः परमेश्वरः (द्युक्षम्) ज्ञानदीप्तिषु निश्चलस्य जीवस्य (हर्म्यस्य सक्षणिम्) ये शत्रवः सन्ति तेषां घातकोऽस्ति। तथा (पर्वतावृधम्) यो हिमवानिव स्वसहायभूतैर्जनैरभ्युदयङ्गतः एतादृशं जीवात्मानं (परिषिञ्चति) ज्ञानवृष्ट्या सिञ्चनं करोति। (यस्मिन्) यत्र (गावः) इन्द्रियाणि (सुहुतादः) स्वीयभोग्यविषयाणां शब्दस्पर्शादीनां भोगकर्तृशक्तिमन्ति सन्ति। अथ च (वरीमभिः) स्वमहत्त्वेन (ऊधनि) पयोधारपात्रमिव (अग्रियम्) तस्याग्रणीपुरुषस्य (मूर्धन्) मूर्धानम् (आश्रीणन्ति) अभिषेकेण पवित्रयन्ति ॥४॥

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    हिन्दी (3)

    पदार्थ

    (सहसः) क्षमाशील वह परमात्मा (मध्वः) सबको आनन्द देनेवाला (द्युक्षं) ज्ञानरूपी दीप्तियों में स्थिर जीव को (हर्म्यस्य सक्षणिं) जो शत्रुओं को हनन करनेवाला है तथा (पर्वतावृधं) जो हिमालय की तरह अपने सहायक लोगों से वृद्धि को प्राप्त है, ऐसे जीवात्मा को (परिषिञ्चति) परमात्मा ज्ञानरूपी सिञ्चन करता है तथा वह ऐसे जीवात्मा को ज्ञानदृष्टि से परिपूर्ण करता है, (यस्मिन्) जिसमें (गावः) इन्द्रियें (सुहुतादः) अपने शब्द-स्पर्शादि भोग्य विषयों को भोगने की शक्ति रखती हैं और (वरीमभिः) अपने महत्त्व से (ऊधनि) पयोधारपात्र के समान (अग्रियं) उस अग्रणी पुरुष के (मूर्धन्) मूर्धा को (आ श्रीणन्ति) अभिषेक द्वारा शुद्ध करती हैं ॥४॥

    भावार्थ

    परमात्मा उपासक को ज्ञानी तथा विज्ञानी बनाकर उसका उद्धार करता है ॥४॥

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    विषय

    सभापति राजा के तुल्य प्रधान विद्वान् का आदर।

    भावार्थ

    (सहसः) शत्रुओं को अपने बल से पराजित करने वाले, (मध्वः) हृष्टपुष्ट, बलवान् प्रजावासी वीर जन (द्युक्षम्) तेज ऐश्वर्यवान् (पर्वत-वृधम्) मेध वा पर्वत के समान बढ़ने और प्रजा को बढ़ाने वाले (हर्म्यस्य सक्षणिम्) उत्तम राजभवन के बीच विराजने योग्य पुरुष को (परि सिञ्चन्ति) अभिषेक करते, उसको प्रधान पद देते हैं। (यस्मिन्) जिसके अधीन रह कर (गावः) गौओं के तुल्य समस्त (सुहुत-अदः प्रजाः) उत्तम रीति से आहुति करके यज्ञशेष खाने वाली प्रआएं (ऊधनि पयः) स्तन-भाग में दूध के तुल्य (वरीमभिः) श्रेष्ठ २ वचनों और कर्मों द्वारा (मूर्धन्) सब के शिरोवत् सर्वोच्च पद पर (अग्रियम्) अग्रपद के योग्य उसकी ही (श्रीणन्ति) सेवा करती हैं, उसका ही आश्रय लेती है।

    टिप्पणी

    missing

    ऋषि | देवता | छन्द | स्वर

    ऋषभो वैश्वामित्र ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ४, ७ विराड् जगती। २ जगती। ३, ५, ८ निचृज्जगती। ६ पादनिचृज्जगती। ९ विराट् त्रिष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥

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    विषय

    'द्युक्ष- पर्वतावृध - हर्म्यसक्षणि'

    पदार्थ

    [१] (सहसः) = शक्ति सम्पन्न [सहस्विनः ] (मध्वः) = सोम के कण (परिसिञ्चन्ति) = उस जितेन्द्रिय पुरुष को शरीर में सर्वत्र सिक्त करते हैं जो कि [क] (द्युक्षं) [क्षि निवासे] = ज्ञान - ज्योति में निवास करता है, [ख] पवतावृधम् शरीर को [ पर्वत = A rock] एक चट्टान के समान बढ़ाता है [अश्मा भवतु नस्तनूः ] तथा [ग] (हर्म्यस्य सक्षणिम्) = [ an abode of evil spirits हर्म्य] आसुरभावनाओं के निवास को पराभूत करनेवाला है [ सोढारं सक्षणिम् द०] अर्थात् हृदय को आसुरभावों से शून्य करनेवाला है। वस्तुतः सोमरक्षण से ही यह मस्तिष्क में 'द्युक्ष', शरीर में 'पर्वतावृध' तथा हृदय में 'हर्म्यस्य सक्षणि' बनता है । [२] यह सोमरक्षक वह है (यस्मिन् सुहुतादे) = जिस [सु-हुत-अद्] यज्ञशेष का सेवन करनेवाले में (गावः) = वेदवाणीरूप गौवें (ऊधनि मूर्धन्) = ज्ञानदुग्ध के आधारभूत मस्तिष्क में (वरीमभि:) = हृदय की विशालताओं के साथ (अग्रियम्) = सर्वोत्कृष्ट ज्ञान को (श्रीणन्ति) = परिपक्व करती हैं।

    भावार्थ

    भावार्थ- सोमरक्षक पुरुष ज्ञान में निवास करनेवाला, शरीर को चट्टान के समान दृढ़ बनानेवाला तथा आसुरभावों का पराभव करनेवाला होता है। इसमें ज्ञान की वाणियाँ हृदय की विशालता के साथ उत्कृष्ट ज्ञान को स्थापित करती हैं ।

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    इंग्लिश (1)

    Meaning

    Honey showers of peace, patience and fortitude rain on the master of homely fire-side, lover of light and dedicated performer of soma yajna, in whose life and family senses, mind and memory, fed on positive and yajnic perceptual and conceptual food of experience, retain and sanctify high moral and spiritual values of prime importance with the highest reflections of divinity.

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    मराठी (1)

    भावार्थ

    परमेश्वर उपासकांना ज्ञानी व विज्ञानी बनवून त्याचा उद्धार करतो. ॥४॥

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