ऋग्वेद - मण्डल 9/ सूक्त 71/ मन्त्र 5
ऋषिः - ऋषभो वैश्वामित्रः
देवता - पवमानः सोमः
छन्दः - निचृज्जगती
स्वरः - निषादः
समी॒ रथं॒ न भु॒रिजो॑रहेषत॒ दश॒ स्वसा॑रो॒ अदि॑तेरु॒पस्थ॒ आ । जिगा॒दुप॑ ज्रयति॒ गोर॑पी॒च्यं॑ प॒दं यद॑स्य म॒तुथा॒ अजी॑जनन् ॥
स्वर सहित पद पाठसम् । ई॒म् इति॑ । रथ॑म् । न । भु॒रिजोः॑ । अ॒हे॒ष॒त॒ । दश॑ । स्वसा॑रः । अदि॑तेः । उ॒पऽस्थे॑ । आ । जिगा॑त् । उप॑ । ज्र॒य॒ति॒ । गोः । अ॒पी॒च्य॑म् । प॒दम् । यत् । अ॒स्य॒ । म॒तुथाः॑ । अजी॑जनन् ॥
स्वर रहित मन्त्र
समी रथं न भुरिजोरहेषत दश स्वसारो अदितेरुपस्थ आ । जिगादुप ज्रयति गोरपीच्यं पदं यदस्य मतुथा अजीजनन् ॥
स्वर रहित पद पाठसम् । ईम् इति । रथम् । न । भुरिजोः । अहेषत । दश । स्वसारः । अदितेः । उपऽस्थे । आ । जिगात् । उप । ज्रयति । गोः । अपीच्यम् । पदम् । यत् । अस्य । मतुथाः । अजीजनन् ॥ ९.७१.५
ऋग्वेद - मण्डल » 9; सूक्त » 71; मन्त्र » 5
अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
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अष्टक » 7; अध्याय » 2; वर्ग » 25; मन्त्र » 5
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भाष्य भाग
संस्कृत (1)
पदार्थः
(दश) दशसङ्ख्याकाः (स्वसारः) स्वाभाविकगतिमन्तः प्राणाः (अदितेः उपस्थे) अस्मिन् पार्थिवशरीरे (आजिगात्) इन्द्रियवृत्तीः जयन्ति (न) यथा सारथी (रथम्) यानं (भुरिजोः) बाहुभ्यां (अहेषत) प्रेरयति तथा जगदीश्वरः शुभाशुभकर्मभिर्नरशरीररूपं रथं प्रेरयति। अथ च (अस्य) अमुष्य जीवात्मनः (मतुथाः) मनोरथान् (अजीजनन्) सफलयन्ति। तथा (यत्) यत् (अपीच्यं पदम्) गूढं पदं वर्तते तत् जीवात्मानमिमं प्रददति। अथ च (ईम्) पूर्वोक्तं परमेश्वरं (सम्) सम्यक् प्राप्य (उप ज्रयति) स्वकीयमनोरथान् साध्नोति ॥५॥
हिन्दी (3)
पदार्थ
(दश) दश संख्यावाले (स्वसारः) स्वाभाविक गतिवाले प्राण (अदितेः उपस्थे) इस पार्थिव शरीर में (आ जिगात्) इन्द्रियों की वृत्तियों को जीतते हैं और (न) जैसे सारथी (रथं) रथ को (भुरिजोः) हाथों से (अहेषत) प्रेरणा करता है, इसी प्रकार परमात्मा शुभाशुभ कर्म द्वारा मनुष्यों के शरीररूपी रथ को प्रेरणा करता है। (अस्य) इस जीवात्मा के (मतुथाः) मनोरथों को जो (अजीजनन्) सफल करते हैं तथा (यत्) जो (अपीच्यं) गूढ़ (पदं) पद है, वह इस जीवात्मा को प्रदान करते हैं और (ईं) उक्त परमात्मा को (सं) भली-भाँति प्राप्त होकर (उप ज्रयति) अपने मनोरथों को सिद्ध कर लेता है ॥५॥
भावार्थ
इस मन्त्र में यह बतलाया गया है कि मनुष्य प्राणायाम द्वारा संयमी बनकर उन्नतिशील बने ॥५॥
विषय
प्रधान अध्यक्ष पर दशावरा परिषत् की योजना। सभा के निश्चयानुसार अध्यक्ष के अधिकार।
भावार्थ
(भुरिजोः दश स्वसारः रथं न) दोनों बाहुओं की दसों अंगुलियां बहनों के समान मिल कर जिस प्रकार रथ को प्रेरित करतीं, सन्मार्ग पर चलाती हैं। उसी प्रकार (भुरिजोः) बाहुओं को तुल्य समस्त राष्ट्र को भरण पोषण करने वाले राजवर्ग और प्रजावर्गों में से (दश) दस (सु-असारः) उत्तम मार्ग पर प्रेरित करने में समर्थ मुख्य विद्वान् प्रकृतियें, अमात्यजन, (रथं) उस बलवान्, प्रधान पुरुष को (सम् अहेषत) एक साथ मिलकर सम्यक् मार्ग में लेजाया करें। वह (अदितेः उपस्थे) भूमि के ऊपर (आजिगात्) चारों और जावे, भ्रमण करे वा वह (अदितेः) कभी न दीन रहने वाली, न दबने वाली, सर्वोपरि राजसभा के (उपस्थे) समीप (आजिगात्) आवे। और (मतुथा) मननशील विचारवान् पुरुष (अस्य) इस शासक के (यत् पदं अजीजनन्) जिस पद, अधिकार को प्रकट करें, वह (गोः अपीच्यं पदं) भूमि या वाणी के उसी माननीय पद को (उप ज्रयति) प्राप्त करे। इति पञ्चविंशो वर्गः॥
टिप्पणी
missing
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
ऋषभो वैश्वामित्र ऋषिः। पवमानः सोमो देवता॥ छन्द:- १, ४, ७ विराड् जगती। २ जगती। ३, ५, ८ निचृज्जगती। ६ पादनिचृज्जगती। ९ विराट् त्रिष्टुप्॥ नवर्चं सूक्तम्॥
विषय
शक्ति- दिव्यता-ज्ञान
पदार्थ
[१] (दश) = दस (स्वसार:) = [ स्व-सृ] आत्मतत्त्व की ओर चलनेवाली इन्द्रियाँ, विषयों में न भटकनेवाली इन्द्रियाँ (रथं न) = जीवनयात्रा के लिये रथ के समान जो यह सोम है, उसे (ई) = निश्चयपूर्वक (भुरिजो:) = बाहुओं में (सं अहेषत) = सम्यक् प्रेरित करती हैं । अर्थात् सोम भुजाओं में शक्ति का स्थापन करनेवाला होता है। और अन्ततः (अदितेः) = अदीना देवमाता की (उपस्थे) = गोद में (आजिगात्) = यह आता है। सुरक्षित सोम हमें अदीन व दिव्य गुण सम्पन्न बनाता है। [२] (यत्) = जब (मतुथा) = मननपूर्वक प्रभु का स्तवन करनेवाले लोग अस्य (अजीजनन्) = इस सोम का अपने अन्दर प्रादुर्भाव करते हैं तो यह सोमरक्षक पुरुष (गो:) = वेदवाणी के (अपीच्यं पदम्) = अन्तर्हित [सुगुप्त] व अतिसुन्दर शब्दों व अर्थों की ओर (उपज्रयति) = समीपता से प्राप्त होता है। अर्थात् इस वेदवाणी को सम्यक् समझनेवाला होता है। वेदवाणी के शब्द 'अपीच्य' [beautiful] सुन्दर हैं, इनका अर्थ [Hidden ] सुगुप्त है । सोम रक्षक पुरुष इन दोनों शब्दार्थों का ग्रहण करता है ।
भावार्थ
भावार्थ- सोमरक्षण से शक्ति व दिव्यता प्राप्त होती है। बुद्धि सूक्ष्म होकर ज्ञान की वाणियों को समझनेवाली होती है। 'शरीर में शक्ति, मन में दिव्यता, मस्तिष्क में ज्ञान' ।
इंग्लिश (1)
Meaning
Just as ten fingers of both hands control and direct the chariot’s course so, if the ten faculties of perception and volition and the ten pranas collected together in meditation were to raise the yogi’s intelligence and awareness and he were to rise as reborn and reach the lap of mother Infinity, he would attain to the top of the blissful stage of existence which all his faculties in unison would generate for him.
मराठी (1)
भावार्थ
या मंत्रात हे सांगितलेले आहे की, मनुष्य प्राणायामाद्वारे संयमी बनून उन्नतिशील बनतो. ॥५॥
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