यजुर्वेद - अध्याय 39/ मन्त्र 12
ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः
देवता - अग्निर्देवता
छन्दः - त्रिष्टुप्
स्वरः - धैवतः
180
तप॑से॒ स्वाहा॒ तप्य॑ते॒ स्वाहा॒ तप्य॑मानाय॒ स्वाहा॑ त॒प्ताय॒ स्वाहा॑ घ॒र्माय॒ स्वाहा॑। निष्कृ॑त्यै॒ स्वाहा॒ प्राय॑श्चित्यै॒ स्वाहा॑ भेष॒जाय॒ स्वाहा॑॥१२॥
स्वर सहित पद पाठतप॑से। स्वाहा॑। तप्य॑ते। स्वाहा॑। तप्य॑मानाय। स्वाहा॑। त॒प्ताय॑। स्वाहा॑। घ॒र्माय॑। स्वाहा॑ ॥ निष्कृ॑त्यै। निःऽकृ॑त्या॒ इति॒ निः॒ऽकृ॑त्यै। स्वाहा॑। प्राय॑श्चित्यै। स्वाहा॑। भे॒ष॒जाय॑। स्वाहा॑ ॥१२ ॥
स्वर रहित मन्त्र
तपसे स्वाहा तप्यते स्वाहा तप्यमानाय स्वाहा तप्ताय स्वाहा घर्माय स्वाहा । निष्कृत्यै स्वाहा प्रायश्चित्त्यै स्वाहाभेषजाय स्वाहा ॥
स्वर रहित पद पाठ
तपसे। स्वाहा। तप्यते। स्वाहा। तप्यमानाय। स्वाहा। तप्ताय। स्वाहा। घर्माय। स्वाहा॥ निष्कृत्यै। निःऽकृत्या इति निःऽकृत्यै। स्वाहा। प्रायश्चित्यै। स्वाहा। भेषजाय। स्वाहा॥१२॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनर्मनुष्यैः कैः साधनैः सुखं प्राप्तव्यमित्याह॥
अन्वयः
मनुष्यैस्तपसे स्वाहा तप्यते स्वाहा तप्यमानाय स्वाहा तप्ताय स्वाहा घर्माय स्वाहा निष्कृत्यै स्वाहा प्रायश्चित्यै स्वाहा भेषजाय स्वाहा च निरन्तरं प्रयोक्तव्या॥१२॥
पदार्थः
(तपसे) प्रतापाय (स्वाहा) (तप्यते) यस्तापं प्राप्नोति तस्मै (स्वाहा) (तप्यमानाय) प्राप्ततापाय (स्वाहा) (तप्ताय) (स्वाहा) (घर्माय) दिनाय (स्वाहा) (निष्कृत्यै) निवारणाय (स्वाहा) (प्रायश्चित्यै) पापनिवारणाय (स्वाहा) (भेषजाय) सुखाय। भेषजमिति सुखनामसु पठितम्॥ (निघं॰३।६) (स्वाहा)॥१२॥
भावार्थः
मनुष्यैः प्राणायामादिसाधनैः सर्वं किल्विषं निवार्य्य सुखं प्राप्तव्यं प्रापयितव्यं च॥१२॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर मनुष्यों को किन साधनों से सुख प्राप्त करना चाहिये, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
मनुष्यों को चाहिये (तपसे) प्रताप के लिये (स्वाहा) (तप्यते) सन्ताप को प्राप्त होनेवाले के लिये (स्वाहा) (तप्यमानाय) ताप गर्मी को प्राप्त होनेवाले के लिये (स्वाहा) (तप्ताय) तपे हुए के लिये (स्वाहा) (घर्माय) दिन के होने को (स्वाहा) (निष्कृत्यै) निवारण के लिये (स्वाहा) (प्रायश्चित्यै) पापनिवृत्ति के लिये (स्वाहा) और (भेषजाय) सुख के लिये (स्वाहा) इस शब्द का निरन्तर प्रयोग करें॥१२॥
भावार्थ
मनुष्यों को चाहिये कि प्राणायाम आदि साधनों से सब किल्विष का निवारण करके सुख को स्वयं प्राप्त हों, दूसरों को प्राप्त करावें॥१२॥
विषय
तप धर्मादि के लिये उत्तम यत्न करने का उपदेश ।
भावार्थ
(तपसे) धर्माचरण, तप का अनुष्ठान, (तप्यते) तपस्या करने वाले पुरुष, (तप्यमानाय ) विद्याभ्यासादि करने वाले ब्रह्मचारी ( तप्ताय ), सिद्ध तपस्वी, परिव्राजक आदि और ( घर्माय ) सूर्य के समान तेजस्वी पुरुषों का (स्वाहा) उत्तम आदर करो । धर्मकार्यों और धर्म के कार्य करने वालों के लिये उत्तम दान करो । ( निष्कृत्यै ) पापों का निवारण करने, (प्रायश्चित्यै) बिगड़े कार्यों और पाप आचरणों को सुधारने और (भेषजाय) शारीरिक कष्टों को चिकित्सा द्वारा दूर करने के लिये (स्वाहा ) उत्तम रीति से यत्न किया जाय ।
टिप्पणी
१२ – तपसे स्वाहा तप्यमाना० इति काण्व० ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
अग्निः । त्रिष्टुप् । धैवतः ॥
विषय
तप-भोजन-दर्शन
पदार्थ
१. जिस प्रकार पिछले मन्त्र में पवित्रता के विषय में कहा गया है उसी प्रकार प्रस्तुत मन्त्र में तप के विषय में कहते हैं। तप का विचार भी उसी प्रकार चार भागों में बाँटकर करते हैं कि [१] तप की रुचि [२] तप में लगना [३] तप को अपना स्वभाव बना लेना और [४] अन्त में तपोमय हो जाना। (तपसे स्वाहा) = तप के लिए मैं [सु हविः जुहोमि] उत्तम हविरूप अन्न ही खाता हूँ। यदि मनुष्य सात्त्विक अन्न का प्रयोग करता है तो उसकी प्रवृत्ति भोगप्रवण न होकर तपस्या की ओर झुकती है। (तप्यते स्वाहा) = तप करते हुए के लिए हम उत्तम अन्न का प्रयोग करते हैं, अर्थात् मैं ऐसा ही अन्न खाता हूँ जो मुझे तप में लगाये रखता है। (तप्यमानाय स्वाहा) = मैं ऐसे अन्न का सेवन करूँ कि तप मेरा स्वभाव हो जाए। (तप्ताय स्वाहा) = मैं तप ही हो जाऊँ, इसी प्रकार मूर्त्तिमान् तप बन जाने के लिए मैं उत्तम हविरूप अदनीय अन्न खाता हूँ। २. इस प्रकार तपोमय जीवन का यह स्वाभाविक परिणाम है कि हमारे अन्दर शक्ति का सञ्चार हो, अतः कहते हैं कि (घर्माय स्वाहा) = सोम के लिए मैं अदनीय अन्न खाता हूँ। वस्तुतः सौम्य व आग्नेय भोजनों में से सौम्य भोजन को ही प्रधानता देना ठीक है। आग्नेय भोजन कभी भी सोम-रक्षा के लिए और परिणामतः नीरोगता व दीर्घजीवन के लिए हितकर नहीं होते। हम सोमरक्षा के दृष्टिकोण से भोजन खाते हैं। ३. (निष्कृत्यै स्वाहा) = सब प्रकार के प्रायश्चित्त के लिए, भविष्य में पाप न करने के निश्चय की दृढ़ता के लिए मैं अदनीय अन्न खाता हूँ। (प्रायश्चित्यै स्वाहा) = मुझमें पाप कर बैठने के लिए दुःख की भावना हो, उन्हें भविष्य में न करूँ, ऐसी वृत्ति बनाने के लिए मैं सात्त्विक अन्न का प्रयोग करता हूँ। 'जिनकी मैं हानिकर बैठा हूँ, उनकी मैं क्षतिपूर्ति कर दूँ' यह है 'निष्क्रय', 'आगे से नहीं करूँगा' यह है 'प्रायश्चित्त'- ये भावनाएँ हमारे अन्दर होनी ही चाहिएँ। ४. (भेषजाय स्वाहा) = अन्त में मैं औषध के दृष्टिकोण से भोजन करूँ। भूख भी एक रोग है, उसकी निवृत्ति के लिए ही भोजन करना चाहिए। स्वाद के लिए भोजन करना पाप है।
भावार्थ
भावार्थ - भोजन ऐसा हो जो मुझे तपस्वी बनाए, शक्तिशाली बनाए, पापों के लिए मैं प्रायश्चित्त की वृत्तिवाला बनूँ और अन्त में भोजन को मैं औषध समझू ।
मराठी (2)
भावार्थ
माणसांनी पाप दूर करून प्राणायात इत्यादी साधनांनी स्वतः सुख प्राप्त करावे व इतरांनाही सुख द्यावे.
विषय
मनुष्यांनी कोणत्या साधनांद्वारे सुखप्राप्त करावे, याविषयी -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - (सर्वत्र शेवटी ‘स्वाहा’ शब्द उच्चारावा) (स्मशानात उपस्थित मनुष्यांनी असे म्हणावे की) (तपसे) जो प्रतापी होता, (आता मृत्यूनंतर त्याचा प्रताप संपला म्हणून त्यासाठी (स्वाहा) (तप्यते) जो संतापी होता, त्याचा संतापही त्याच्यासवे गेला, म्हणून (स्वाहा) (तप्यमानाय) ताप वा उष्णता ज्याचा स्वभाव, त्याच्या तापासाठी (स्वाहा) (तप्ताय) जो संतप्त वा दुःखी होता त्याच्या दुःखासाठी (स्वाहा) (घर्माय) आजच्या या दिवसासाठी (स्वाहा) (निष्कृत्यै) निवारण वा मुक्तीसाठी (स्वाहा) (प्रायश्चित्त्यै) पापनिवृत्तीसाठी (स्वाहा) आणि (भेषजाय) सुखासाठी (जे सुख याने भोगले, ते संपले त्यासाठी) (स्वाहा) हा शब्द उच्चारीत आहोत. ॥12॥
भावार्थ
भावार्थ - मनुष्यांनी प्राणायाम आदी उपायांनी सर्व किल्मीषांचे (पाप व मालिन्याचे) निवारण करावे. अशा रीतीने त्यानी स्वतःही सुखी व्हावे आणि इतरांनाही सुखी करावे. ॥12॥
इंग्लिश (3)
Meaning
Exert for the performance of religious duty, the advancement of the man of penance, the Brahmcharis devoted to study, the recluse, the people lustrous like the Sun. Try hard to avoid sins, expiate for them, and ward off physical ailments through medicine.
Meaning
In all truth of word and deed and in all commitment to faith : homage to the fire of purification, to the soul in the crucibles of purification, to the soul receiving the light of purification, to the soul purified and redeemed, to the heat and light of the new day, to purity from pollution and evil, to disintegration of body and release of the soul, to penitence and self¬ introspection, and homage to new health and new happiness.
Translation
Dedication to austerities; (1) dedication to one practising austerities; (2) dedication to one for whom the austerities are practised; (3) dedication to one, who has completed his austerities; (4) Dedication to sacrifice. (5) dedication to expiation; (6) dedication to atonement; (7) dedication to remedy (8)
Notes
Nişkṛtyai, for atonement. Prayaścittyai, to expiation. Bheṣajāya, to remedy.
बंगाली (1)
विषय
পুনর্মনুষ্যৈঃ কৈঃ সাধনৈঃ সুখং প্রাপ্তব্যমিত্যাহ ॥
পুনঃ মনুষ্যদিগকে কোন্ কোন্ সাধন দ্বারা সুখ প্রাপ্ত করা উচিত, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- মনুষ্যদিগের উচিত (তপসে) প্রতাপ হেতু (স্বাহা) (তপ্যতে) যে সন্তাপ প্রাপ্ত হয় তাহার জন্য (স্বাহা) (তপ্যমানায়) তাপ-উষ্ণতা প্রাপ্তকারীদিগের জন্য (স্বাহা) (তপ্তায়) তাপিতের জন্য (স্বাহা) (ঘর্মায়) দিন হইতে (স্বাহা) (নিষ্কৃত্যৈ) নিবারণ হেতু (স্বাহা) (প্রায়শ্চিত্যৈ) পাপনিবৃত্তি হেতু (স্বাহা) এবং (ভেষজায়) সুখের জন্য (স্বাহা) এই শব্দের নিরন্তর প্রয়োগ করিবে ॥ ১২ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- মনুষ্যদিগের উচিত যে, প্রাণায়ামাদি সাধন দ্বারা সকল কিল্বিষের নিবারণ করিয়া সুখকে স্বয়ং প্রাপ্ত করিবে এবং অন্যকেও প্রাপ্ত করাইবে ॥ ১২ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
তপ॑সে॒ স্বাহা॒ তপ্য॑তে॒ স্বাহা॒ তপ্য॑মানায়॒ স্বাহা॑ ত॒প্তায়॒ স্বাহা॑ ঘ॒র্মায়॒ স্বাহা॑ । নিষ্কৃ॑ত্যৈ॒ স্বাহা॒ প্রায়॑শ্চিত্যৈ॒ স্বাহা॑ ভেষ॒জায়॒ স্বাহা॑ ॥ ১২ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
তপস ইত্যস্য দীর্ঘতমা ঋষিঃ । অগ্নির্দেবতা । ত্রিষ্টুপ্ ছন্দঃ ।
ধৈবতঃ স্বরঃ ॥
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