यजुर्वेद - अध्याय 39/ मन्त्र 6
ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः
देवता - सवितादयो देवताः
छन्दः - विराड् धृति
स्वरः - ऋषभः
340
स॒वि॒ता प्र॑थ॒मेऽह॑न्न॒ग्निर्द्वि॒तीये॑ वा॒युस्तृ॒तीय॑ऽआदि॒त्यश्च॑तु॒र्थे। च॒न्द्रमाः॑ पञ्च॒मऽऋ॒तुः ष॒ष्ठे म॒रुतः॑ सप्त॒मे बृह॒स्पति॑रष्ट॒मे मि॒त्रो न॑व॒मे वरु॑णो दश॒मऽइन्द्र॑ऽएकाद॒शे विश्वे॑ दे॒वा द्वा॑द॒शे॥६॥
स्वर सहित पद पाठस॒वि॒ता। प्र॒थ॒मे। अह॑न्। अ॒ग्निः। द्वि॒तीये॑। वा॒युः। तृ॒तीये॑। आ॒दि॒त्यः। च॒तु॒र्थे ॥ च॒न्द्रमाः॑। प॒ञ्च॒मे। ऋ॒तुः। ष॒ष्ठे। म॒रुतः॑। स॒प्त॒मे। बृह॒स्पतिः॑। अ॒ष्ट॒मे। मि॒त्रः। न॒व॒मे। वरु॑णः। द॒श॒मे। इन्द्रः॑। ए॒का॒द॒शे। विश्वे॑। दे॒वाः। द्वा॒द॒शे ॥६ ॥
स्वर रहित मन्त्र
सविता प्रथमेहन्नग्निर्द्वितीये वायुस्तृतीयऽआदित्यश्चतुर्थे चन्द्रमाः पञ्चमऽऋतुः षष्ठे मरुतः सप्तमे बृहस्पतिरष्टमे । मित्रो नवमे वरुणो दशमऽइन्द्रऽएकादशे विश्वे देवा द्वादशे ॥
स्वर रहित पद पाठ
सविता। प्रथमे। अहन्। अग्निः। द्वितीये। वायुः। तृतीये। आदित्यः। चतुर्थे॥ चन्द्रमाः। पञ्चमे। ऋतुः। षष्ठे। मरुतः। सप्तमे। बृहस्पतिः। अष्टमे। मित्रः। नवमे। वरुणः। दशमे। इन्द्रः। एकादशे। विश्वे। देवाः। द्वादशे॥६॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
पुनस्तमेव विषयमाह
अन्वयः
हे मनुष्याः! अनेन जीवेन प्रथमेऽहन् सविता द्वितीयेऽग्निस्तृतीये वायुश्चतुर्थ आदित्यः पञ्चमे चन्द्रमाः षष्ठ ऋतुः सप्तमे मरुतोऽष्टमे बृहस्पतिर्नवमे मित्रो दशमे वरुण एकादश इन्द्रो द्वादशेऽहनि विश्वे देवाश्च प्राप्यन्ते॥६॥
पदार्थः
(सविता) सूर्यः (प्रथमे) आदिमे (अहन्) दिने (अग्निः) वह्निः (द्वितीये) द्वयोः पूर्णे (वायुः) (तृतीये) (आदित्यः) (चतुर्थे) (चन्द्रमाः) (पञ्चमे) (ऋतुः) (षष्ठे) (मरुतः) मनुष्यादयाः (सप्तमे) (बृहस्पतिः) बृहतां पालकः सूत्रात्मा (अष्टमे) (मित्रः) प्राणः (नवमे) (वरुणः) उदानः (दशमे) (इन्द्रः) विद्युत् (एकादशे) (विश्वे) सर्वे (देवाः) दिव्यगुणाः (द्वादशे)॥६॥
भावार्थः
हे मनुष्याः! यदेमे जीवाः शरीरं त्यजन्ति, तदा सूर्यप्रकाशादीन् पदार्थान् प्राप्य किञ्चित्कालं भ्रमणं कृत्वा स्वकर्मानुयोगेन गर्भाशयं गत्वा शरीरं धृत्वा जायन्ते, तदैव पुण्यपापकर्मणा सुखदुःखानि फलानि भुञ्जते॥६॥
हिन्दी (3)
विषय
फिर उसी विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! इस जीव को (प्रथमे) शरीर छोड़ने के पहिले (अहन्) दिन (सविता) सूर्य (द्वितीये) दूसरे दिन (अग्निः) अग्नि (तृतीये) तीसरे (वायुः) वायु (चतुर्थे) चौथे (आदित्यः) महीना (पञ्चमे) पांचवें (चन्द्रमाः) चन्द्रमा (षष्ठे) छठे (ऋतुः) वसन्तादि ऋतु (सप्तमे) सातवें (मरुतः) मनुष्यादि प्राणी (अष्टमे) आठवें (बृहस्पतिः) बड़ों का रक्षक सूत्रात्मा वायु (नवमे) नवमे में (मित्रः) प्राण (दशमे) दशवें में (वरुणः) उदान (एकादशे) ग्यारहवें में (इन्द्रः) बिजुली और (द्वादशे) बारहवें दिन (विश्वे) सब (देवाः) दिव्य उत्तम गुण प्राप्त होते हैं॥६॥
भावार्थ
हे मनुष्यो! जब ये जीव शरीर को छोड़ते हैं, तब सूर्यप्रकाश आदि पदार्थों को प्राप्त होकर कुछ काल भ्रमण कर अपने कर्मों के अनुकूल गर्भाशय को प्राप्त हो, शरीर धारण कर उत्पन्न होते हैं, तभी पुण्य-पाप कर्म से सुख-दुःखरूप फलों को भोगते हैं॥६॥
विषय
प्रजापति प्रभु और परमेश्वर के नाना गुण कर्म स्वभावानुसार नाना नाम ।
भावार्थ
राजा के बारह रूप । (प्रथमे अहनि सविता) पहले दिन वह सूर्य के समान सबका प्रेरक, आज्ञापक और ऐश्वर्य का उत्पादक होने से 'सविता' है । (द्वितीये अग्निः) दूसरे दिन वह अग्नि के समान मार्गप्रकाशक अग्रणी होने से 'अग्नि' है । (तृतीये वायुः) तीसरे दिन वायु के समान बलवान् हो जाने से वह 'वायु' है । (चतुर्थे आदित्यः) चौथे दिन आदित्य के समान जलों के समान करों के ग्रहण करने से 'आदित्य' है । (चन्द्रमाः पञ्चमे ) पाचवें दिन चन्द्र के समान आह्लादक होने से 'चन्द्रमा' है । ( पष्ठे ऋतुः) छठे दिन सबको नाना पदार्थों के प्राप्त कराने और सबको नाना प्रकारों से सुखी करने वाला होने से 'ऋतु' है । (मरुतः सप्तमे) सातवें दिन सैनिकों के रूप में या प्रजा साधारण के रूप में विद्यमान होने से वह 'मरुत्गण' ही है । (अष्टमे बृहस्पतिः) बड़े राष्ट्र का पालक होने से 'बृहस्पति' है । (मित्रः नवमे ) नवें दिन वह सर्वत्र स्नेहवान् होने से 'मित्र' है । (वरुणः दशमे) दसवें दिन वह सबसे वरण योग्य होने से 'वरुण' है । ( एकादशे इन्द्रः) ग्यारहवें दिन विद्युत् के समान तेजस्वी होने से 'इन्द्र' हैं और ( विश्वेदेवाः द्वादशे ) बारहवें दिन समस्त विद्वानों के बीच में निष्पक्षपात होकर रहने से विश्वदेवों अर्थात् विद्वानों से सम्मति में भिन्न न होने से 'विश्वदेवमय' है । (२) जीवपक्ष में - वह मरणोत्तर प्रतिदिन क्रम से सूर्य, आग, वायु, रश्मि, चन्द्र, ऋतु, वायु, प्राण, उदान और विद्युत् और शेष सब दिव्य पदार्थ इनमें उत्तरोत्तर प्राप्त होने से उस-उस रूप का होकर विचरता है और कर्मफलों का भोग करता है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
सवित्रादयः । विराढ्धृतिः । धैवतः ।
विषय
दैवीसंपत्-युक्त ज्ञान के दृष्टिकोण से उत्तम जन्म
पदार्थ
पिछले मन्त्र में उत्तम कर्मों व गुणों के दृष्टिकोण से जन्म का विचार हुआ है। प्रस्तुत मन्त्र में ज्ञान के दृष्टिकोण से जन्म का विचार चलता है। जैस ज्योतिश्चक्र को बारह भागों में बाँटकर सूर्य की बारह संक्रान्तियाँ होती हैं उसी प्रकार ज्ञान की भी बारह श्रेणियों की कल्पना करके जीव के भी बारह संक्रमणों-भावी पुनर्जन्मों का यहाँ उल्लेख हुआ है। ये सबके सब जन्म दैवी सम्पत्तिवाले हैं। यहाँ मन्त्र में 'अहन्' शब्द आकाश [Sky] के लिए प्रयुक्त हुआ है। १. (प्रथमे अहन्) = जो व्यक्ति ज्ञान के आकाश के प्रथम विभाग में है, वह (सविता) = उत्पादक होता है। यह जन्म से ही निर्माणात्मक कार्यों में रुचिवाला होता है। तोड़-फोड़ के कार्यों में इसका झुकाव नहीं होता। २. (द्वितीये) = ज्ञान के आकाश के द्वितीय भाग में विचरनेवाला (अग्निः) = ' अग्रेणी' निरन्तर उन्नतिशील मनोवृत्तिवाला होता है। ३. (तृतीये) = ज्ञान की तृतीय श्रेणी में वर्त्तमान व्यक्ति (वायुः) = अपने अगले जन्म में [वा गतिगन्धनयोः] अपनी गति के द्वारा बुराई का गन्धन-हिंसन करनेवाला होता है ४. (चतुर्थे) = ज्ञान की चतुर्थ कक्षा में वर्त्तमान व्यक्ति (आदित्यः) =[आदानात्] सदा अच्छाइयों का आदान करनेवाला होता है। यह खारे समुद्र में से भी शुद्ध जल को ही लेनेवाले सूर्य की भाँति अच्छाई को ही लेता है, बुराई को नहीं । कीचड़ में से भी जल को ही लेनेवाले सूर्य के समान यह कीचड़ व बुराई को वहीं छोड़ देता है । ५. (पञ्चमे) = ज्ञान की पञ्चम कक्षा में पहुँचने पर यह (चन्द्रमाः) = सदा चन्द्र के समान आह्लादमय मनोवृत्तिवाला होता है ६. (षष्ठे) = ज्ञान की छठी श्रेणी में पहुँच चुके व्यक्ति का अगले जन्म में मुख्य गुण (ऋतुः) = ऋतुओं के अनुसार नियमित गति होता है'। 'ऋ धातु' का अर्थ है गति। इस धातु से बना हुआ 'ऋतु' शब्द नियमित गति का संकेत करता है। ज्ञानी पुरुष सूर्य-चंद्रमा की भाँति अथवा ऋतुओं के चक्र की भाँति अपने नैत्यिक कार्यक्रम में व्यवस्थित होता है। ७. (सप्तमे) = ज्ञान की सप्तमी कक्षा में पहुँचे हुए व्यक्ति (मरुतः) = [मरुतः प्राणाः, मितराविणो वा] प्राणशक्ति के पुञ्ज व मितरावी होने से बड़ा मपा-तुला ही बोलते हैं। ८. (अष्टमे) = अष्टम विभाग में पहुँचे हुए व्यक्ति (बृहस्पतिः) = (ब्रह्मणस्पतिः) = बड़े ऊँचे ज्ञानी बनते हैं - ब्रह्मदर्शन करनेवाले बनते हैं । ९. (नवमे) = अब ज्ञान की नवम श्रेणी में पहुँचा हुआ यह व्यक्ति मित्र:- सबके साथ स्नेह करनेवाला होता है। प्रभु का उपासक सर्वत्र समरूप से अवस्थित प्रभु को देखता है, अतः सभी के प्रति स्नेहवाला होता है। १०. (दशमे) = ज्ञान की दशम श्रेणी में वर्त्तमान व्यक्ति (वरुणः) = वरुण होता है-द्वेष का निवारण करनेवाला अथवा [ वरुणपाशी] अपने-आपको व्रतों के बन्धनों में बाँधनेवाला होता है। ११. (एकादशे) = ज्ञान की ग्यारहवीं श्रेणी में वर्त्तमान व्यक्ति अगले जन्म में (इन्द्रः) = ' इन्द्रियों का अधिष्ठाता - पूर्ण जितेन्द्रिय' होता है। १२. (द्वादशे) = ज्ञानकी बारहवीं व अन्तिम श्रेणी में पहुँचा हुआ व्यक्ति (विश्वदेवा:) = सब दिव्य गुणों का पुञ्ज बन जाता है और इस प्रकार 'पूर्ण दैवी सम्पत्ति' को प्राप्त करता है। यह दैवी सम्पद् इसके मोक्ष का कारण बनती है। इस प्रकार वह चरम- ज्ञान को प्राप्त व्यक्ति जन्म-बन्ध - विनिर्मुक्त होकर प्रभु को प्राप्त करनेवाला बनता है।
भावार्थ
भावार्थ - " उत्पादक मनोवृत्ति, उन्नति की भावना, क्रियाशीलता, गुणों का आदान मनः प्रसाद, नियमित कार्यक्रम, प्राणशक्ति व मितभाषण, ज्ञान, स्नेह, निर्देषता व व्रतबन्धन, जितेन्द्रियत्व और दिव्यता-दान-दीपन द्योतन'- यह है दैवी सम्पत्ति, जिसको लेकर ज्ञानमार्ग पर आगे बढ़नेवाले व्यक्ति उत्पन्न होते हैं और अन्त में मोक्ष का लाभ करते हैं।
मराठी (2)
भावार्थ
हे माणसांनो ! जेव्हा हे जीव या शरीरांचा त्याग करतात तेव्हा सूर्यप्रकाश इत्यादी पदार्थांद्वारे काही काळ भ्रमण करून आपल्या कर्मानुसार गर्भाशयात येतात व शरीर धारण करून उत्पन्न होतात. तेव्हा पुण्य व पापरूपी कर्म करून सुख-दुःख रूपी फळ भोगतात.
विषय
पुन्हा, तोच विषय -
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यानो, या जीवात्म्याला (प्रथमे) शरीर सोडल्यानंतरच्या पहिल्या (अहन्) दिनीं (सविता) सूर्याचे तर (द्वितीये) दुसर्या दिनीं (अग्निठ) अग्नीचे (गुण प्राप्त होतात) (तृतीये) तिसर्या दिवशी (वायुः) वायूचे आणि (चतुथे) चवथ्या दिवशीं (आदित्यः) बारा महिन्यांचे (गुण प्राप्त होतात) (पञ्चमे) पाचव्या दिनीं (चन्द्रमाः) चंद्राचे आणि (षष्ठे) सहाव्या दिनीं (ऋतुः) वसंत आदी ऋतूंचे (गुण आप्त होतात) (सप्तमे) सातव्या दिनीं (मरूतः) मनुष्यादी प्राणीचे आणि (अष्टमे) आठव्या दिनीं (बृहस्पतिः) महानांचा रक्षक सूत्रात्मा वायूचे (गुण प्राप्त होतात) (नवमे) नवव्या दिनीं (मित्रः) प्राणाचे आणि (दशमे) दहाव्या दिवशीं (वरूणः) उदानवायूचे (गुण प्राप्त होतात) (एकादशे) अकराव्या दिनीं (इन्द्रः) विद्युतेचे तर (द्वादशे) बाराव्या दिनीं (विश्वे) (देवाः) सर्व उत्तम दिव्य गुण प्राप्त होतात. ॥6॥
भावार्थ
भावार्थ - हे मनुष्यानो, जेव्हा आत्मा शरीर सोडतो तेव्हा सूर्य, प्रकाश आदी पदार्थांना प्राप्त होऊन (त्यांच्यापर्यंत जाऊन-येऊन) काही काळ अवकाशात भ्रमण करून स्वकर्माप्रमाणे कोणत्या तरी गर्भाशयात प्रविष्ट होऊन शरीर धारण करून उत्पन्न होतो तेव्हाच जीवात्मा पुण्यकर्म वा पापकर्मांची सुखमय-दुःखमय फळें भोगतात. ॥6॥
इंग्लिश (3)
Meaning
After death, the soul goes to the Sun on the first day ; to Agni on the second ; to Vayu on the third; to Aditya on the fourth; to Chandrama (the moon) on the fifth ; to Ritu on the sixth ; to Maruts on the seventh ; to Brihaspati on the eighth ; to Mitra on the ninth ; to Varuna on the tenth ; to Indra on the eleventh ; to all divine, noble traits on the twelfth.
Meaning
When the soul leaves the body, on the first stage it goes to Savita, the sun, to Agni on the second, to Vayu on the third, to Aditya on the fourth, to Chandrama on the fifth, to Ritu on the sixth, to Maruts on the seventh, to Brihaspati on the eighth, to Mitra on the nineth, to Varuna on the tenth, to Indra on the eleventh, and to Vishvedevas on the twelfth.
Translation
On the first day, it is the rising sun. (1) On the second, the fire. (2) On the third, the wind. (3) On the fourth, the midday sun. (4) On the fifth, the moon. (5) On the sixth, the season. (6) On the seventh, the cloudbearing winds. (7) On the eighth, the Jupiter. (8) On the ninth, the evening sun. (9) On the tenth, the ocean. (10) On the eleventh, the lightning. (11) On the twelfth day, it is all the bounties of Nature. (12)
Notes
Dayānanda interprets this passage in the context of Antyești and suggests that after quitting the dead body the soul (jiva) goes to Savita on the first day, and so on for twelve days to different bounties of Nature, and after that, is born again. Ahan, अहनि, on the day. Mitrah, evening sun. Savitā, rising sun. Adityaḥ, mid-day sun. Varuṇaḥ, ocean. Indra, lightning. Viśvedevāḥ, all the bounties of Nature.
बंगाली (1)
विषय
পুনস্তমেব বিষয়মাহ
পুনঃ সেই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! এই জীবকে (প্রথমে) শরীর ত্যাগ করিবার প্রথম (অহন্) দিন (সবিতা) সূর্য্য (দ্বিতীয়ে) দ্বিতীয় দিন (অগ্নিঃ) অগ্নি (তৃতীয়ে) তৃতীয় (বায়ু) বায়ু (চতুর্থে) চতুর্থে (আদিত্য) মাস (পঞ্চমে) পঞ্চমীতে (চন্দ্রমাঃ) চন্দ্রমা (ষষ্ঠে) ষষ্ঠীতে (ঋতুঃ) বসন্তাদি ঋতু (সপ্তমে) সপ্তমীতে (মরুতঃ) মনুষ্যাদি প্রাণী (অষ্টমে) অষ্টমীতে (বৃহস্পতিঃ) গুরুজনদের রক্ষক সূত্রাত্মা বায়ু (নবমে) নবমীতে (মিত্রঃ) প্রাণ (দশমে) দশমীতে (বরুণঃ) উদান (একাদশে) একাদশীতে (ইন্দ্রঃ) বিদ্যুৎ এবং (দ্বাদশে) দ্বাদশতম দিন (বিশ্বে) সমস্ত (দেবাঃ) দিব্য উত্তম গুণ প্রাপ্ত হয় ॥ ৬ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! যখন হইতে জীব শরীর ত্যাগ করে তখন সূর্য্য প্রকাশ আদি পদার্থ সকলকে প্রাপ্ত হইয়া কিছু কাল ভ্রমণ করিয়া স্বীয় কর্ম্মের অনুকূল গর্ভাশয় প্রাপ্ত হইয়া শরীর ধারণ করিয়া জন্ম গ্রহণ করে তখনই পুণ্য-পাপ কর্ম দ্বারা সুখ-দুঃখ রূপ ফলকে প্রাপ্ত হয় ॥ ৬ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
স॒বি॒তা প্র॑থ॒মেऽহ॑ন্ন॒গ্নির্দ্বি॒তীয়ে॑ বা॒য়ুস্তৃ॒তীয়॑ऽআদি॒ত্যশ্চ॑তু॒র্থে । চ॒ন্দ্রমাঃ॑ পঞ্চ॒মऽঋ॒তুঃ ষ॒ষ্ঠে ম॒রুতঃ॑ সপ্ত॒মে বৃহ॒স্পতি॑রষ্ট॒মে মি॒ত্রো ন॑ব॒মে বর॑ুণো দশ॒মऽইন্দ্র॑ऽএকাদ॒শে বিশ্বে॑ দে॒বা দ্বা॑দ॒শে ॥ ৬ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
সবিতেত্যস্য দীর্ঘতমা ঋষিঃ । সবিতাদয়ো দেবতাঃ । বিরাড্ ধৃতিশ্ছন্দঃ ।
ঋষভঃ স্বরঃ ॥
Acknowledgment
Book Scanning By:
Sri Durga Prasad Agarwal
Typing By:
N/A
Conversion to Unicode/OCR By:
Dr. Naresh Kumar Dhiman (Chair Professor, MDS University, Ajmer)
Donation for Typing/OCR By:
N/A
First Proofing By:
Acharya Chandra Dutta Sharma
Second Proofing By:
Pending
Third Proofing By:
Pending
Donation for Proofing By:
N/A
Databasing By:
Sri Jitendra Bansal
Websiting By:
Sri Raj Kumar Arya
Donation For Websiting By:
N/A
Co-ordination By:
Sri Virendra Agarwal