यजुर्वेद - अध्याय 39/ मन्त्र 8
ऋषिः - दीर्घतमा ऋषिः
देवता - अग्न्यादयो लिङगोक्ता देवताः
छन्दः - निचृदत्यष्टिः
स्वरः - गान्धारः
185
अ॒ग्निꣳ हृद॑येना॒शनि॑ꣳहृदया॒ग्रेण॑ पशु॒पतिं॑ कृत्स्न॒हृद॑येन भ॒वं य॒क्ना। श॒र्वं मत॑स्नाभ्या॒मीशा॑नं म॒न्युना॑ महादे॒वम॑न्तः पर्श॒व्येनो॒ग्रं दे॒वं व॑नि॒ष्ठुना॑ वसिष्ठ॒हनुः॒शिङ्गी॑नि को॒श्याभ्या॑म्॥८॥
स्वर सहित पद पाठअ॒ग्निम्। हृद॑येन। अ॒शानि॑म्। हृ॒द॒या॒ग्रेणेति॑ हृदयऽअ॒ग्रेण॑। प॒शु॒पति॒मिति॑ पशु॒ऽपति॑म्। कृ॒त्स्न॒हृद॑ये॒नेति॑ कृत्स्न॒ऽहृद॑येन। भ॒वम्। य॒क्ना ॥ श॒र्वम्। मत॑स्नाभ्याम्। ईशा॑नम्। म॒न्युना॑। म॒हा॒दे॒वमिति॑ महाऽदे॒वम्। अ॒न्तः॒ऽप॒र्श॒व्येन॑। उ॒ग्रम्। दे॒वम्। व॒नि॒ष्ठुना॑। व॒सि॒ष्ठ॒हनु॒रिति॑ वसिष्ठ॒ऽहनुः॑। शिङ्गी॑नि। को॒श्याभ्या॑म् ॥८ ॥
स्वर रहित मन्त्र
अग्निँ हृदयेनाशनिँ हृदयाग्रेण पशुपतिङ्कृत्स्नहृदयेन भवँयक्ना । शर्वम्मतस्नाभ्यामीशानम्मन्युना महादेवमन्तःपर्शव्येनोग्रन्देवँवनिष्ठुना वसिष्ठहनुः शिङ्गीनि कोश्याभ्याम् ॥
स्वर रहित पद पाठ
अग्निम्। हृदयेन। अशानिम्। हृदयाग्रेणेति हृदयऽअग्रेण। पशुपतिमिति पशुऽपतिम्। कृत्स्नहृदयेनेति कृत्स्नऽहृदयेन। भवम्। यक्ना॥ शर्वम्। मतस्नाभ्याम्। ईशानम्। मन्युना। महादेवमिति महाऽदेवम्। अन्तःऽपर्शव्येन। उग्रम्। देवम्। वनिष्ठुना। वसिष्ठहनुरिति वसिष्ठऽहनुः। शिङ्गीनि। कोश्याभ्याम्॥८॥
भाष्य भाग
संस्कृत (1)
विषयः
के जना उभयजन्मनोः सुखमाप्नुवन्तीत्याह॥
अन्वयः
हे मनुष्याः! ये ते मृत जीवा हृदेयनाग्निं हृदयाग्रेणाशनिं कृत्स्नहृदयेन पशुपतिं यक्ना भवं मतस्नाभ्यां शर्वं मन्युनेशानमन्तःपर्शव्येन महादेवमुग्रं देवं वनिष्ठुना वसिष्ठहनुः कोश्याभ्यां शिङ्गीनि प्राप्नुवन्तीति यूयं विजानीत॥८॥
पदार्थः
(अग्निम्) पावकम् (हृदयेन) हृदयावयवेन (अशनिम्) विद्युतम् (हृदयाग्रेण) हृदयस्य पुरोभागेन (पशुपतिम्) पशूनां पालकं जगद्धर्त्तारं रुद्रं सर्वप्राणम् (कृत्स्नहृदयेन) संपूर्णहृदयावयवेन (भवम्) यस्सर्वत्र भवति तम् (यक्ना) यकृता शरीराऽवयवेन (शर्वम्) विज्ञातारम् (मतस्नाभ्याम्) हृदयपार्श्वाऽवयवाभ्याम् (ईशानम्) सर्वस्य जगतः स्वामिनम् (मन्युना) दुष्टाचारिणः पापं च प्रति वर्त्तमानेन क्रोधेन (महादेवम्) महांश्चासौ देवश्च तं परमात्मानं (अन्तःपर्शव्येन) अन्तःपार्श्वावयवभावेन (उग्रम्) तीक्ष्णस्वभावम् (देवम्) देदीप्यमानम् (वनिष्ठुना) आन्त्रविशेषेण (वसिष्ठहनुः) वसिष्ठस्यातिशयेन वासहेतोर्हनुरिव हनुर्यस्य तम्। अत्र सुपां सुलुग् [अ॰७.१.३९] इत्यमः स्थाने सुः (शिङ्गीनि) ज्ञातुं प्राप्तुं योग्यानि। अत्र स्रगिधातोः पृषोदरादिनाभीष्टरूपसिद्धिः। (कोश्याभ्याम्) कोश उदरे भवाभ्यां मांसपिण्डाभ्याम्॥८॥
भावार्थः
ये मनुष्याः सर्वाङ्गैर्धर्माचरणं विद्याग्रहणं सत्सङ्गं जगदीश्वरोपासनं च कुर्वन्ति, ते वर्त्तमानभविष्यतोर्जन्मनोः सर्वाणि सुखानि प्राप्नुवन्ति॥८॥
हिन्दी (3)
विषय
कौन मनुष्य दोनों जन्म में सुख पाते हैं, इस विषय को अगले मन्त्र में कहा है॥
पदार्थ
हे मनुष्यो! जो वे मरे हुए जीव (हृदयेन) हृदयरूप अवयव से (अग्निम्) अग्नि को (हृदयाग्रेण) हृदय के ऊपरले भाग से (अशनिम्) बिजुली को (कृत्स्नहृदयेन) संपूर्ण हृदय के अवयवों से (पशुपतिम्) पशुओं के रक्षक जगत् धारणकर्त्ता सबके जीवनहेतु परमेश्वर को (यक्ना) यकृतरूप शरीर के अवयवों से (भवम्) सर्वत्र होनेवाले ईश्वर को (मतस्नाभ्याम्) हृदय के इधर-उधर के अवयवों से (शर्वम्) विज्ञानयुक्त ईश्वर को (मन्युना) दुष्टाचारी और पाप के प्रति वर्त्तमान क्रोध से (ईशानम्) सब जगत् के स्वामी ईश्वर को (अन्तःपर्शव्येन) भीतरली पसुरियों के अवयवों में हुए विज्ञान से (महादेवम्) महादेव (उग्रम् देवम्) तीक्ष्ण स्वभाववाले प्रकाशमान ईश्वर को (वनिष्ठुना) आँत विशेष से (वसिष्ठहनुः) अत्यन्त वास के हेतु राजा के तुल्य ठोडीवाले जन को (कोश्याभ्याम्) पेट में हुए दो मांसपिण्डों से (शिङ्गीनि) जानने वा प्राप्त होने योग्य वस्तुओं को प्राप्त होते हैं, ऐसा तुम लोग जानो॥८॥
भावार्थ
जो मनुष्य शरीर के सब अङ्गों से धर्माचरण, विद्याग्रहण, सत्सङ्ग और जगदीश्वर की उपासना करते हैं, वे वर्त्तमान और भविष्यत् जन्मों में सुखों को प्राप्त होते हैं॥८॥
विषय
देवमय राजा । लोम त्वचादि देह धातुओं को स्वच्छ रोग रहित रखने का उपदेश ।
भावार्थ
(१) राजा के सर्वदेवमय शरीर का अलंकाररूप से वर्णन | वह (हृदयेन अग्निम् ) हृदय से अग्नि को धारण करता है । (हृदयाग्रेण अशनिम् ) हृदय के अगले भाग से वह विद्युत् को धारण करता है । ( कृत्स्नं हृदयेन पशुपतिम् ) समस्त हृदय के भाग से वह पशुओं के पालक प्राणवायु को धारण करता है । ( यक्ना भवम् ) यकृत्, कलेजे से वह सर्वत्र विद्यमान आकाश को धारण करता । है ( मतस्नाभ्यां शर्वम् ) गुर्दो से वह जल को धारण करता है । ( मन्युना ईशानम् ) मननशील, चित्तं या मन्यु, क्रोध से सब पर शासन करने वाले ऐश्वर्यवान् विद्युत् को धारण करता है । (अम्तः पर्शव्येन) भीतर की पसुलियों से ( महादेवम् ) सबसे बड़े देव, अन्तर्यामी परमेश्वर को धारण करता है । ( वनिना ) आंतों से ( उग्रं देवम् ) तीव्र देव, अग्नि को जाठर रूप से धारण करता है । ( वसिष्ठहनुः ) समस्त प्रजा को बसाने हारे लोगों में से सबसे श्रेष्ठ होकर शत्रु को हनन करने वाले साधनों से सम्पन्न होकर (कोश्याभ्याम्) कोश में रखने योग्य शस्त्रों और ऐश्वर्य से (शिङ्गीनि) समस्त प्राप्त करने योग्य कीर्तिजनक पदार्थों को कोश में और गुणों को हृदयकोश में धारण करता है ।
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
प्रजापति: ( ८ ) अग्न्यादयः ( ६ ) उग्रादयः । ( ८ ) भुरिगष्टिः । मध्यमः (६) आकृतिः । पंचमः ॥
विषय
आनन्दमय जीवन का रहस्य [ The nine Secret of a Happy life ]
पदार्थ
'हम अपने जीवन को सुखी कैसे बना सकते हैं। इस विषय का वर्णन करते हुए वेद कहता है कि - १. (हृदयेन) = हृदय से (अग्निम्) = अग्नि को धारण करो । (अग्नि) = का अर्थ है - शक्ति व उत्साह । [Vigour, enthusiasm ] आनन्दमय जीवन के लिए पहली आवश्यक बात हृदय में उत्साह का होना है। हृदय के उत्साहशून्य होने पर आनन्द का प्रश्न ही नहीं उठता। २. (हृदयाग्रेण) = हृदय के अग्रभाग से (अशनिम्) = विद्युत् की दीप्ति को धारण करो । तुम्हारा हृदयाग्र विद्युत् की दीप्ति के समान चमके। कोई भी व्यक्ति तुम्हारे सामने आये तो तुम उसे समझ सको, तुम्हारा हृदयाग्र पर उसका प्रतिबिम्ब-सा पड़ जाए। प्रत्येक व्यक्ति को हम ठीक-ठीक समझेंगे तो यथोचित बर्ताव कर सकने से किसी उलझन में न पड़ेंगे। ३. (पशुपतिम्) = सब प्राणियों के रक्षक प्रभु को कृत्स्नहृदयेन पूर्ण हृदय से धारण करें। प्रभु का यह ध्यान हृदय में उत्साह व शक्ति का संचार करनेवाला होता है । ४. (यक्ना) = जिगर से (भवम्) = पर्जन्य को धारण करो । पर्जन्य (परां तृप्तिं जनयति) = परातृप्ति को पैदा करता है, चारों ओर जल की वर्षा करता हुआ सभी को आनन्दित करता है। इसी प्रकार ठीक जिगरवाला व्यक्ति सभी को देता हुआ प्रसन्नता उत्पन्न करता है। इस तथ्य को 'इसका जिगर ही नहीं है, यह क्या देगा' यह मुहावरा स्पष्ट कर रहा है। ५. (मतस्नाभ्याम्) = हृदय के दोनों पासों में स्थित अस्थियों से (शर्वम्) = ' आपः ' जलों को धारण करो। इनके कार्य के ठीक होने पर ही शरीर में जल की उचित स्थिति रहती है। ६. (मन्युना) = [मन चिन्तन] चिन्तन से (ईशानम्) = आदित्य को धारण करो । आदित्य का चिन्तन करो। आदित्य की भाँति निरन्तर गुणों का आदान करनेवाले बनो। ७. (अन्तः पर्शव्येन) = भीतरी पसवाड़ों से (महादेवम्) = चन्द्र को [महादेवश्चन्द्रमाः] धारण करो। आह्लाद व प्रसन्नता के लिए पार्श्वों का मध्य, अर्थात् आमाशय का ठीक होना अवश्यक है। ८. (वनिष्ठुना) = आँतों rectums से (उग्रदेवम्) = जठराग्नि - वैश्वानराग्नि को धारण करो । यह 'उग्रदेव' आँतों में होनेवाले कृमियों का संहार करके हमें स्वस्थ बनाता है । ९. (कोश्याभ्याम्) = कोश [Scrotum] में होनेवाले अण्डों [testicles] से (वसिष्ठहनुः) = [प्रजापतिर्वै वसिष्ठः, प्रजननं प्रजापति:, हनुः = गदा - Goad.] प्रजननशक्ति का धारण करे। तथा शिङ्गीनि वज्जानि= रोग निवारक शक्तियों को धारण करो। वस्तुतः इन कोश्यों से निकलनेवाले रस प्रजननशक्ति के साथ रोग निवारक शक्ति भी रखते हैं। इनके निकाल देने पर शरीर में नाना प्रकार के विकार उत्पन्न होने लगते हैं।
भावार्थ
भावार्थ- जीवन को आनन्दमय बनाने के लिए उपर्युक्त नौ बातें ध्यान देने योग्य हैं ३. पूर्णहृदय में प्रभु-ध्यान ४. जिगर में पर्जन्य की १. हृदय में उत्साह २. हृदयाग्र में दीप्ति तरह दानवृत्ति ५. गुर्दों में जल ६. मन्यु से आदित्य ७. आमाशय के ठीक होने से प्रसन्नता ८. आँतों में कृमिसंहारक शक्ति तथा ९. कोश्यों [testicles] में प्रजननशक्ति व रोग निवारक रस होने पर जीवन आनन्दमय बन जाता है।
मराठी (2)
भावार्थ
जी माणसे शरीराच्या अंगांनानी धर्माचरण, विद्याग्रहण, सत्संग व जगदीश्वराची उपासना करतात ती वर्तमान व भविष्यकालीन जन्मामध्ये सुख प्राप्त करतात.
विषय
कोणते मनुष्य दोन्ही जन्मात सुख उपभोगतात, याविषयी.-
शब्दार्थ
शब्दार्थ - हे मनुष्यानो, (शरीरच्या) मृत्यूनंतर जीवात्मा (हृदयेन) हृदयरूप अवयवाने (अग्निम्) अग्नीला प्राप्त होतात आणि (हृदयाग्रेण) हृदयाच्या वरच्या भागाने (अशनिम्) विद्युतेला प्राप्त होतात. (कृत्स्नहृदयेन) हृद्याच्या समग्र अवयवांसह (पशुपतिम्) पशुरक्षक जगधारक, सर्वांचा जीवनहेतू जो परमात्मा, त्यास ते जीव प्राप्त होतात. (यक्ना) शरीराच्या यकृत नाम अवयवाने (भवम्) सर्वत्र असणार्या परमेश्वराला, तर (मतस्नाभ्याम्) हृदयाच्या दोन्ही बाजूस असलेल्या अवयवांनी (फुफ्फुस, ग्रन्थि आदी) नी (शर्वम्) ज्ञानमय ईश्वराला प्राप्त होतात. (मन्युना) दुष्टाचारी व पापी व्यक्ती जो क्रोध म्हणजे मन्यु, त्या मन्यूद्वारा (ईशानम्) सर्वजगस्वामी ईश्वराला, तर (अन्तःपर्शव्येव) बरगड्यांनी (महादेवम्) सर्वांहून महानदेव (उग्रम्, देवम्) तीव्र स्वभावाच्या देवाला म्हणजे परमेश्वराला प्राप्त होतात. (वनिष्ठुना) पोटातील आतड्यांनी (वसिष्ठहनुः) सर्वाना निवास व जागा देऊन वसविणारा, राजाप्रमाणे हनुवटी असणार्या व्यक्तीला प्राप्त होतात. तर (कोश्याभ्याम्) पोटातील दोन मांसपिंडांनी (यकृत, प्लीहा व वृवक आदी) नी (शिङ्गीनि) ज्ञातव्य वा प्राप्तव्य पदार्थांना प्राप्त होतात. (हे अवयव या देवाला, परमेश्वराला, अथवा अग्नी विद्युत आदीनां प्राप्त होतात, या वर्णनाचा आशय असा की पुढील जन्मात ते जीव ते ते उत्तम अंग वा अवयव प्राप्त करतात.) हे मनुष्यहो, तुम्ही हे यथार्थ नीट जाऊन घ्या. ॥8॥
भावार्थ
भावार्थ- जे लोक शरीराच्या अवयवांनी धर्माचरण, विद्याग्रहण करतात, सत्संगात जातात आणि परमेश्वराची उपासना करतात, ते वर्त्तमान जन्मी आणि भविष्य काळातील जन्मी सुख उपभोगतात. ॥8॥
इंग्लिश (3)
Meaning
The souls after death attain to fire with the heart ; to lightning with the upper part of the heart ; to Pashupati with the whole heart ; to Bhava with the liver. To Sharva with the two cardinal bones ; to Ishana with righteous indignation; to Mahadeva with the intercostal flesh ; to the Fierce God with the rectum ; to handsome chinned person, to knowable and procurable powers with two lumps of flesh near the heart.
Meaning
The soul comes to attain and hold Agni by the heart, electric energy by the front part of the heart, Pashupati Shiva by the whole heart, the kind Shiva by the liver, the fearsome Shiva by sides of the heart, ruling power by righteous anger, the great lord by ribs on both sides of the chest, heat and light of spirits by the intestines, manly excellence by the ventricles of the heart.
Translation
(I worship) the adorable Lord (Agni) with my heart; (1) The Lord of thunder (Asani) with my heart's front portion; (2) The Lord of the creatures (Pasupati) with the whole of my heart; (3) The Supreme being (Bhava) with my liver; (4) The Lord of happiness (Sarva) with my ribs; (5) The Ruler Supreme (Isana) with my fervour; (6) The great God (Mahadeva) with my inner side-bones; (7) The wrathful God with my large intestine; (8) The deities worth knowing with my lower jaw; (9) Sundry deities (Singini) with the two heart muscles. (10)
Notes
As this and the next formula contains no verb, it is very difficult to suggest a definite meaning. Every commentator will add a verb to make the meaning clear. We have taken 'I worship' or 'I propitiate' as understood. One interesting thing to note is that this formula contains Pasupati, Bhava, Śarva, Iśāna and Mahadeva, all names of Rudra, and of Siva in the later period. He is propitiated with various parts of the body, but these parts are mostly pertaining to heart, which can easily be associated with devotion. Yaknā, with liver. Matasnābhyām, with two ribs. Antaḥparśavyena, with inner side-bone. Vanişthunā, with large intestine. Vasiṣṭhahanuḥ and singīni, nothing can be made out of the text, which apears to be corrupt (Griffith). Mahidhara has made a brave effort to make out some meaning by suggesting that singis are some sort of deities. But the tradition does not support this contention. No such deities are popularly known. Kośyābhyām, with the two heart-muscles,
बंगाली (1)
विषय
কোন্ মনুষ্য উভয় জন্মে সুখ লাভ করে, এই বিষয়কে পরবর্ত্তী মন্ত্রে বলা হইয়াছে ॥
पदार्थ
পদার্থঃ- হে মনুষ্যগণ ! সেই মরণ প্রাপ্ত জীবগুলি (হৃদয়েন) হৃদয়রূপ অবয়ব হইতে (অগ্নিম্) অগ্নিকে (হৃদয়াগ্রেণ) হৃদয়ের উপরের ভাগ দ্বারা (অশনিম্) বিদ্যুৎকে (কুৎস্নহৃদয়েন) সম্পূর্ণ হৃদয়ের অবয়ব সকলের দ্বারা (পশুপতিম্) পশুদের রক্ষক জগৎ ধারণকর্তা সকলের জীবন হেতু পরমেশ্বরকে (য়ক্না) যকৃতরূপ শরীরের অবয়বগুলির দ্বারা (ভবম্) সর্বত্র বিদ্যমান ঈশ্বরকে (মতস্নাভ্যম্) হৃদয়ের আশেপাশের অবয়বগুলির দ্বারা (শর্বম্) বিজ্ঞানযুক্ত ঈশ্বরকে (মন্যুনা) দুষ্টাচারী এবং পাপের প্রতি বর্ত্তমান ক্রোধ দ্বারা (ঈশানম্) সকল জগতের স্বামী ঈশ্বরকে (অন্তঃ পর্শব্যেন) ভিতরের পার্শ্বাবয়বের বিজ্ঞান দ্বারা (মহাদেবম্) মহাদেব (উগ্রম্ দেবম্) তীক্ষ্ন স্বভাবযুক্ত প্রকাশমান ঈশ্বরকে (বনিষ্ঠুনা) অন্ত্র বিশেষ দ্বারা (বসিষ্ঠহনুঃ) অত্যন্ত বাসের ফলে রাজার তুল্য হনুযুক্ত ব্যক্তিকে (কোশ্যাভ্যাম্) পেটে হওযা দুটি মাংসপিন্ড দ্বারা (শিঙ্গীনি) জানিবার বা প্রাপ্ত হইবার যোগ্য বস্তু সকলকে প্রাপ্ত হইয়া থাকে, এইরকম তোমরা জানিবে ॥ ৮ ॥
भावार्थ
ভাবার্থঃ- যে সব মনুষ্য শরীরের সকল অঙ্গ দ্বারা ধর্মাচরণ, বিদ্যাগ্রহণ, সৎসঙ্গ এবং জগদীশ্বরের উপাসনা করে, তাহারা বর্ত্তমান ও ভবিষ্যৎ জন্মে সুখ প্রাপ্ত হয় ॥ ৮ ॥
मन्त्र (बांग्ला)
অ॒গ্নিꣳ হৃদ॑য়েনা॒শনি॑ꣳহৃদয়া॒গ্রেণ॑ পশু॒পতিং॑ কৃৎস্ন॒হৃদ॑য়েন ভ॒বং য়॒ক্না । শ॒র্বং মত॑স্নাভ্যা॒মীশা॑নং ম॒ন্যুনা॑ মহাদে॒বম॑ন্তঃ পর্শ॒ব্যেনো॒গ্রং দে॒বং ব॑নি॒ষ্ঠুনা॑ বসিষ্ঠ॒হনুঃ॒শিঙ্গী॑নি কো॒শ্যাভ্যা॑ম্ ॥ ৮ ॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
অগ্নিমিত্যস্য দীর্ঘতমা ঋষিঃ । অগ্ন্যাদয়ো লিঙ্গোক্তা দেবতাঃ । নিচৃদত্যষ্টিশ্ছন্দঃ ।
গান্ধারঃ স্বরঃ ॥
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