अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 2
ऋषिः - कौरुपथिः
देवता - अध्यात्मम्, मन्युः
छन्दः - अनुष्टुप्
सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
71
तप॑श्चै॒वास्तां॒ कर्म॑ चा॒न्तर्म॑ह॒त्यर्ण॒वे। त आ॑सं॒ जन्या॑स्ते व॒रा ब्रह्म॑ ज्येष्ठव॒रोभ॑वत् ॥
स्वर सहित पद पाठतप॑: । च॒ । ए॒व । आ॒स्ता॒म् । कर्म॑ । च॒ । अ॒न्त: । म॒ह॒ति । अ॒र्ण॒वे । ते । आ॒स॒न् । जन्या॑: । ते । व॒रा: । ब्रह्म॑ । ज्ये॒ष्ठ॒ऽव॒र: । अ॒भ॒व॒त् ॥१०.२॥
स्वर रहित मन्त्र
तपश्चैवास्तां कर्म चान्तर्महत्यर्णवे। त आसं जन्यास्ते वरा ब्रह्म ज्येष्ठवरोभवत् ॥
स्वर रहित पद पाठतप: । च । एव । आस्ताम् । कर्म । च । अन्त: । महति । अर्णवे । ते । आसन् । जन्या: । ते । वरा: । ब्रह्म । ज्येष्ठऽवर: । अभवत् ॥१०.२॥
भाष्य भाग
हिन्दी (4)
विषय
सब जगत् के कारण परमात्मा का उपदेश।
पदार्थ
(तपः) तप [ईश्वर का सामर्थ्य] (च च) और (कर्म) कर्म [प्राणियों के कर्म का फल] (एव) ही (महति अर्णवे अन्तः) बड़े समुद्र [परमेश्वर के गम्भीर सामर्थ्य] के भीतर (आस्ताम्) दोनों थे। [तप और कर्म ही] (ते) वे प्रसिद्ध (जन्याः) उत्पत्ति में साधन [योग्य] पदार्थ और (ते) वे ही (वराः) वर [वरणीय इष्टफल] (आसन्) थे, (ब्रह्म) ब्रह्म [सबसे बड़ा परमात्मा] (ज्येष्ठवरः) सर्वोत्तम वरों [इष्ट फलों] का दाता (अभवत्) हुआ ॥२॥
भावार्थ
अनादि चक्र रूप संसार में परमात्मा अपने सामर्थ्य से प्राणियों के कर्मानुसार सृष्टि रचकर आप ही सर्वनियन्ता हुआ। यह गत मन्त्र के तीनों प्रश्नों का उत्तर है। मन्त्र ३ तथा ४ में इसी का विवरण है ॥२॥
टिप्पणी
२−(तपः) तप ऐश्वर्ये-असुन्। ईश्वरसामर्थ्यम् (च) (एव) (आस्ताम्) अभवताम् (कर्म) प्राणिनां पुण्यपापकर्मफलम् (च) (अन्तः) मध्ये (महति) प्रभूते (अर्णवे) अ० १।१०।४। समुद्रे। परमेश्वरस्य गम्भीरसामर्थ्ये (ते) प्रसिद्धाः (ब्रह्म) प्रवृद्धः परमात्मा। अन्यत् पूर्ववत्-म० १ ॥
विषय
तप + कर्म
पदार्थ
१. उस सृष्टि के समय (महति अर्णवे अन्त:) = महान् प्रकृति के अणु-समुद्र में (तपः च कर्म च एव आस्ताम्) = प्रभु के स्रष्टव्य पर्यालोचनात्मक तप की [यस्य ज्ञानमयं तपः] तथा प्राणियों से अनुष्ठित फलोन्मुख परिपक्व कर्म की स्थिति हुई। उस समय तप और कर्म ही उपकरणरूप से अवस्थित थे। २. (ते) = के तप और व्यक्तियों से अनुष्ठित बहुल कर्म ही (जन्याः आसन्) = विवाहप्रवृत्त बन्धुजन थे। (ते) = वे ही (वराः) = वरण करनेवाले बाराती थे। (ब्रह्म) = सिसृक्षावस्थावाला जगत् कारणभूत ब्रह्म ही (ज्येष्ठवरः अभवत्) = ज्येष्ठवर था।
भावार्थ
सृष्टि के निर्माण में महत्त्वपूर्ण उपकरण दो ही हैं [१] प्रभु का स्रष्टव्य पर्यालोचनात्मक तप तथा [२] प्राणियों का फलोन्मुख परिपक्व कर्म।
भाषार्थ
(महति अर्णवे अन्तः) प्रलयरूपी महासमुद्र के भीतर, (तपः च, कर्म च एव) तप और कर्म (आस्ताम्) विद्यमान थे। (ते) वे दो (जन्याः) जनीपक्ष के घराती१ (आसन्) थे, (ते) वे दो (वराः) वरपक्ष के बराती थे (ब्रह्म) ब्रह्म (ज्येष्ठवरः) मुखिया वर (अभवत्) हुआ था।
टिप्पणी
[तपः-कर्म =जनीपक्ष के तप और कर्म, और वरपक्ष के तपः और कर्म भिन्न-भिन्न हैं, जैसे कि जनीपक्ष के लोग और वर पक्ष के लोग भिन्न-भिन्न होते हैं, चाहे वे मनुष्यरूप में समान ही हैं। परमेश्वर के सम्बन्ध में तपः है, ज्ञानमय। यथा “यस्य ज्ञानमयं तपः" [मुण्डक १।१।९], अर्थात् "प्राणियों के कर्मों और तदनुरूप सृष्टि की रचना का पर्यालोचनरूपी तपः। परमेश्वर के सम्बन्ध में कर्म वह कर्म नहीं, जिस में कि स्थान परिवर्तन करना होता है। व्यापक के लिये स्थान परिवर्तन असम्भव है। परमेश्वर में कर्म या क्रिया स्वाभाविकी है। यथा “परास्य शक्तिर्विविधैव श्रूयते स्वाभाविकी ज्ञानबलक्रिया च" (श्वेताश्वर, अध्या० ६, मंत्र ८)। इसकी व्याख्या में महर्षि दयानन्द, सप्तम समुल्लास, सत्यार्थप्रकाश में लिखते हैं कि "जो परमेश्वर निष्क्रिय होता तो जगत् की उत्पत्ति, स्थिति न कर सकता। इसलिये वह विभू तथापि चेतन होने से उस में क्रिया भी हैं। "तदेजति तन्नैजति” (यजु० ४०।५) में भी, परमेश्वर में स्थान परिवर्तन रूप क्रिया का निषेधपूर्वक क्रियाविशेष का समर्थन हुआ है। कर्म मानसिक भी कहें हैं, चाहे उन कर्मों के करने में मन, शरीर से बाहिर गति नहीं करता। और परमेश्वर के कर्म राग-द्वेष से प्रेरित भी नहीं होते। सृष्टि की रचना भोग और अपवर्ग के लिये होती है, "भोगापवर्गार्थ दृश्यम्" (योग २।१८), मनुष्येतर प्राणियों के लिये भोगार्थ, और मनुष्यों के लिये भोगार्थ और अपवर्गार्थ। अतः मनुष्यों के कर्म इस प्रकार के होने चाहिये जोकि मनुष्यों को अपवर्ग की ओर बढ़ाने वाले हों। दुरित कर्मों का त्याग और भद्रकर्मों का उपादान करते हुए मनुष्य अपवर्ग अर्थात् मोक्ष के अधिकारी बनते हैं। भद्रकर्म यद्यपि सकाम है, क्योंकि भद्रकर्मों में भी अपवर्ग की कामना बनी रहती है। भद्रकर्म परिणाम में सुखदायक कल्याणकारी होते हैं (भदि कल्याणे सुखे च)। परन्तु भद्रकर्म अपवर्ग की प्राप्ति में सहायक होते हैं, बाधक नहीं। ऐसे भद्रकर्मों के सम्बन्ध में कहा है कि: कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेच्छतँ समाः। एवन्त्वयि नान्यथेतो स्ति न कर्म लिप्यते नरे ॥ यजु० ४०।२।। अभिप्राय यह है कि मनुष्य जीवन भर भद्रकर्मों को करता रहे। भद्र कर्म मनुष्य को संसार में लिप्त नहीं करते। तपः अर्थात् तपोमय जीवन भी अपवर्ग में सहायक होता है। "तपः" तो, यम-नियमों आदि में एक अंग है, जो कि योगाङ्ग है। तपः द्वारा शरीर और इन्द्रियों की शुद्धि होती है, इन के तमोगुण और रजोगुण का ह्रास होता है "कायेन्द्रियसिद्धिरशुद्धिक्षयात्तपसः” (योग २।४३)। परमेश्वर के तपः और कर्म द्वारा परमेश्वर और प्रकृति का सम्बन्ध पति-पत्नी रूप में होकर प्रकृति में पत्नीत्व धर्म प्रकट करता है, जायत्वरूप नहीं। प्रकृति में जायात्वरूप तब प्रकट होगा जबकि प्रकृति में परमेश्वर की शक्ति के आधान द्वारा सृष्टि पैदा होगी। जैसे कहा है कि "जायायास्तद्धि जायात्वं२ यदस्यां जायते पुनः"। अतः जनिक्रिया के सम्बन्ध से प्रकृति में जायात्वधर्म प्रकट होता है। सृष्टि दो प्रकार की होती है, जड़ और चेतन। जड़-जगत् चेतनजगत् के भोग और अपवर्ग के लिये ही हैं। अतः चेतन-जगत् के तप और कर्म, प्रकृति में, जायात्व के उत्पादक हैं। अतः सृष्टि रचना के लिये, परमेश्वर और प्रकृति के सम्बन्ध के लिये, परमेश्वर के तप और कर्म हेतुभूत होकर वरपक्ष के "वराः" अर्थात् बरात का निर्माण करते हैं, और प्राणियों और मनुष्यों के तप और कर्म प्रकृति में जायात्वोत्पादन द्वारा "जन्या" अर्थात् कन्यापक्ष के घरातियों अर्थात् घर वालों का निर्माण करते हैं। मन्त्र में ब्रह्म और प्रकृति के परस्पर विवाह का वर्णन हुआ है। इसके द्वारा गृहस्थ जीवन की उपादेयता प्रतीत होती है३]। [१. कन्यापक्ष के घर के लोग। २. मन्त्र १ में विवाह काल में जो प्रकृति को जाया कहा है वह भावी जायात्व की दृष्टि से है। ३. सारांश मन्त्र २ तपः, कर्म= बराती और घराती। ब्रह्म के सम्बन्ध में तपः= ज्ञानमय, पर्यालोचन, स्वाभाविक ज्ञान। कर्म = स्वाभाविकी क्रिया, सृष्टिरचना में। प्राणियों के सम्बन्ध में तपः= इन्द्रिमसंयम। कर्म=सात्विक, राजस, तामस-शारीरिक तथा मानसिक कर्म।]
विषय
मन्यु रूप परमेश्वर का वर्णन।
भावार्थ
(महति अर्णवे अन्तः) उस प्रकृति के परमाणुओं से बने बड़े भारी अव्यक्त कारण रूप समुद्र में या इस महान् आकाश के बीच (तपः च एव कर्म च आस्ताम्) तप और कर्म ये दो ही थे। (ते आसन् जन्याः) वे घराती थे और (ते वराः) वे ही बराती थे। अर्थात् वे ही जन्य सृष्टि के उत्पादक मूलकारण और वे ही ‘वर’ अर्थात् प्रवर्त्तक का कारण थे। उनमें से (ब्रह्म) ब्रह्म, परम आत्मा ही (ज्येष्ठवरः अभवत्) ज्येष्ठ वर सर्वश्रेष्ठ प्रवर्त्तक था।
टिप्पणी
स तपोऽतप्यत तपसतप्त्वा इदं सर्वमसृजत। तै० आ० ८। ६ तम आसीतमसा गूढ़मग्रे सर्वमिदं सलिलं प्रकेतमासीत॥ ऋ०॥
ऋषि | देवता | छन्द | स्वर
कौरुपथिर्ऋषिः। अध्यात्मं मन्युर्देवता। १-३२, ३४ अनुष्टुभः, ३३ पथ्यापंक्तिः। चतुश्चत्वारिंशदृचं सूक्तम्॥
इंग्लिश (4)
Subject
Constitution of Man
Meaning
In that mighty deep darkness of the ocean of uncreation, Tapa and Karma were the co-mates of Prakrti, and they were also the friends of thoughtful love and Cosmic Creativity, and the chief of the occasion was Brahma itself. Note: These two mantras are a metaphor of divine creation. Refer to Chhandogyopanishad, 6, 2, 1- 3 and Brhadaranyakopanishad, 1, 4, 17. In the state of zero, absolute silence, before creation “Atman alone was there, only One (with Its essential Svadha: Rgveda, 10, 129, 2). It desired: I am One. I shall be many. I will create. It yearned for a mate (Prakrti). I shall generate. Let there be my power and potential incarnate, I shall act and create. This was the desire, Divine Resolution.” This action of creation and generation is the divine Karma. If we refer to Rgveda, 10, 190, 1, we find that Rtam, dynamics and Law of mutability, and Satyam, the constancy of Prakrti, were generated by the Tapas of the One sole existent Brahma which is the ever and ultimate presence awake eternally. Thus Karma and Tapas were the two co-mates of Brahma by Its own will. And these two were also the co-mates of simultaneous generation for Prakrti since these became immanent in Prakrti by divine will. This immanence and Prakrtic creation is studied in Sankhya Sutras in detail.
Translation
Penance and also action were within the great sea (arnav); those were the groomsmen, those the wooers; the brahman was the chief wooer.
Translation
In the vast space or ocean (of the atoms or tenacious matter) there were heat and the action. They were the other causes by the side of material cause and these were also the covering causes. Brahman, the Supreme Spirit was the chief cause (Efficient cause) covering all the realm.
Translation
The strength of God, and the fruit of the actions of men, were under the control of Mighty God. These two were the causes of the creation of the universe. They were the aim of its creation. God was the chief Bestower of the fruit of actions.
Footnote
तप (strength of God) and कर्म (fruit of the actions of men) were the two sources of the creation of the universe. God creates the universe to award the souls the fruit of their actions in past lives, and establish His strength of creating it. The aim of creating of the world was to award or punish the souls according to their deeds. The questions raised in the first verse have been answered in the second.
संस्कृत (1)
सूचना
कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।
टिप्पणीः
२−(तपः) तप ऐश्वर्ये-असुन्। ईश्वरसामर्थ्यम् (च) (एव) (आस्ताम्) अभवताम् (कर्म) प्राणिनां पुण्यपापकर्मफलम् (च) (अन्तः) मध्ये (महति) प्रभूते (अर्णवे) अ० १।१०।४। समुद्रे। परमेश्वरस्य गम्भीरसामर्थ्ये (ते) प्रसिद्धाः (ब्रह्म) प्रवृद्धः परमात्मा। अन्यत् पूर्ववत्-म० १ ॥
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