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अथर्ववेद के काण्ड - 11 के सूक्त 8 के मन्त्र
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  • अथर्ववेद - काण्ड {"suktas":143,"mantras":958,"kand_no":20}/ सूक्त 8/ मन्त्र 31
    ऋषिः - कौरुपथिः देवता - अध्यात्मम्, मन्युः छन्दः - अनुष्टुप् सूक्तम् - अध्यात्म सूक्त
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    सूर्य॒श्चक्षु॒र्वातः॑ प्रा॒णं पुरु॑षस्य॒ वि भे॑जिरे। अथा॒स्येत॑रमा॒त्मानं॑ दे॒वाः प्राय॑च्छन्न॒ग्नये॑ ॥

    स्वर सहित पद पाठ

    सूर्य॑: । चक्षु॑: । वात॑: । प्रा॒णम् । पुरु॑षस्य । वि । भे॒जि॒रे॒ । अथ॑ । अ॒स्य॒ । इत॑रम् । आ॒त्मान॑म् । दे॒वा: । प्र । अ॒य॒च्छ॒न् । अ॒ग्नये॑ ॥१०.३१॥


    स्वर रहित मन्त्र

    सूर्यश्चक्षुर्वातः प्राणं पुरुषस्य वि भेजिरे। अथास्येतरमात्मानं देवाः प्रायच्छन्नग्नये ॥

    स्वर रहित पद पाठ

    सूर्य: । चक्षु: । वात: । प्राणम् । पुरुषस्य । वि । भेजिरे । अथ । अस्य । इतरम् । आत्मानम् । देवा: । प्र । अयच्छन् । अग्नये ॥१०.३१॥

    अथर्ववेद - काण्ड » 11; सूक्त » 8; मन्त्र » 31
    Acknowledgment

    हिन्दी (3)

    विषय

    सब जगत् के कारण परमात्मा का उपदेश।

    पदार्थ

    (सूर्यः) सूर्य ने (पुरुषस्य) [जीवात्मा] के (चक्षुः) नेत्र को, (वातः) वायु ने (प्राणम्) प्राण [उसके श्वास प्रश्वास] को (वि) विशेष करके (भेजिरे=भेजे) स्वीकार किया। (अथ) फिर (देवाः) दिव्य पदार्थों [दूसरे इन्द्रिय आदि] ने (अस्य) इस [जीवात्मा] का (इतरम्) दूसरा (आत्मानम्) शरीर का अवयवसमूह (अग्नये) अग्नि को (प्र अयच्छन्) दान किया ॥३१॥

    भावार्थ

    ईश्वरनियम से जैसे शरीर में सूर्य का प्रधानत्व नेत्र पर और वायु का श्वास-प्रश्वास पर है, इसी प्रकार अग्नि तत्त्व की विशेषता शरीर के अन्य सब अङ्गों में है ॥३१॥

    टिप्पणी

    ३१−(सूर्यः) प्रकाशप्रेरको लोकविशेषः (चक्षुः) नेत्रम् (वातः) वायुः (प्राणम्) श्वासप्रश्वासरूपम् (पुरुषम्) जीवात्मनः (वि) विशेषेण (भेजिरे) एकवचनस्य बहुवचनम्। भेजे। स्वीचकार (अथ) अपि च (अस्य) प्राणिनः (इतरम्) अन्यम् (आत्मानम्) शरीरावयवसमूहम् (देवाः) इन्द्रियाद्या दिव्यपदार्थाः (प्र अयच्छन्) दत्तवन्तः (अग्नये) अग्नितत्त्वाय ॥

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    विषय

    स्थूल तथा सूक्ष्म शरीर

    पदार्थ

    १. (सूर्य:) = सूर्य (चक्षुः) = चक्षु-इन्द्रिय को आत्मीयभाग के रूप में स्वीकार करता है । (वात:) = वायु (प्राणम्) = घ्राणेन्द्रिय को अपना भाग बनाता है [आदित्यश्चक्षुर्भूत्वाक्षिणी प्राविशत, वायुः प्राणो भूत्वा नासिके प्राविशत्-ऐ० आ० २।४।२] इसी प्रकार (पुरुषस्य) = इस पुरुष की अन्य इन्द्रियों को उनके अधिष्ठातृदेव (विभेजिरे) = विभागपूर्वक स्वीकार करते हैं। २. (अथ) = इसके बाद (इतरम्) = प्राण-इन्द्रिय आदि से व्यतिरिक्त (अस्य आत्मानम्) = इसके स्थूलशरीर को (देवा:) = सब देव (अग्नये  प्रायच्छन्) = अग्नि के लिए भागरूप से देते हैं। एवं, मरणानन्तर अग्नि से केवल यह स्थूलशरीर ही दग्ध किया जाता है।

    भावार्थ

    'ज्ञानेन्द्रियाणि पञ्चैव तथा कर्मेन्द्रियाण्यपि । वायवः पञ्च बुद्धिच मनः ससदशं विदुः ॥' यह सप्तदशात्मक लिंगशरीर मुक्तिपर्यन्त नष्ट न होकर उन-उन देवों का निवासस्थान बना रहता है। स्थूलशरीर बारम्बार अग्नि का भाग बनता है।

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    भाषार्थ

    मृत्यु होने पर (सूर्यः) सूर्य (चक्षुः) दृष्टि शक्ति को, और (वातः) वायु (प्राणम्) श्वास-प्रश्वास की वायु को (विभेजिरे) अपने अपने भागरूप में ले लेते हैं। (अथ) तथा (अस्य) इस पुरुष के (इतरम्) तद्भिन (आत्मानम्) शरीर को (देवाः) शेष देव (अग्नये प्रायच्छन्) अग्नि को दे देते हैं।

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    इंग्लिश (4)

    Subject

    Constitution of Man

    Meaning

    The sun takes its share of the eye, the wind takes its share of the breath, of man. The rest of man’s person the divinities give over to Agni, the fire.

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    Translation

    The sun, the wind, shared (respectively) the eye, the breath of man; then his other self the gods bestowed (pra-yam) on Agni.

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    Translation

    The sun and the air separate the eye and vital airs of the man respectively and the other parts of his person, the physical substance handed over to Agni, the fire or heat.

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    Translation

    The Sun and Wind formed, separate, the eye and vital breath of man. His other person have the organs bestowed on Agni as a gift.

    Footnote

    Other persons: Other parts of the body. Just as light of the Sun predominantly influences the eye, and wind the Pran, so does fire prevail in all other parts of the body.

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    संस्कृत (1)

    सूचना

    कृपया अस्य मन्त्रस्यार्थम् आर्य(हिन्दी)भाष्ये पश्यत।

    टिप्पणीः

    ३१−(सूर्यः) प्रकाशप्रेरको लोकविशेषः (चक्षुः) नेत्रम् (वातः) वायुः (प्राणम्) श्वासप्रश्वासरूपम् (पुरुषम्) जीवात्मनः (वि) विशेषेण (भेजिरे) एकवचनस्य बहुवचनम्। भेजे। स्वीचकार (अथ) अपि च (अस्य) प्राणिनः (इतरम्) अन्यम् (आत्मानम्) शरीरावयवसमूहम् (देवाः) इन्द्रियाद्या दिव्यपदार्थाः (प्र अयच्छन्) दत्तवन्तः (अग्नये) अग्नितत्त्वाय ॥

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